बाजार-उन्मुख सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने के लिए एकमात्र रास्ता है। लेकिन व्यावसायिकों की असफलताओं ने इस प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर दी है।
प्रभावशाली क्षेत्रों में यह एक बहुत ही स्वीकार्य धारणा है कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता रहा है जबकि निजी (प्राइवेट) क्षेत्र ने भविष्य की राह दिखाने का काम किया है। इस धारणा को एयरटेल से जोड़कर उदाहरण दिया गया, जिसने दूरसंचार बाजार में जबरदस्त कामयाबी हासिल की जबकि भारत संचार निगम लिमिटेड ने इसको तबाह कर दिया, निजी विमानन कंपनियों ने विमानन क्षेत्र के विस्तार में मदद की जबकि एयर इंडिया की स्थिति दिन प्रति दिन खराब होती चली गई। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में धातु कंपनियों की किस्मत निजीकरण के बाद बदल गई। इसके अलावा प्रौद्योगिकी उद्योग ने इसमें अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पारंपरिक भारतीय उद्यमियों के कारोबारी व्यवहार से अलग छवि बनाई।
ऐसा तब हुआ था। अब हालात एकदम अलग हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के घोटालों में सरकार के लोग शामिल थे लेकिन उनके इस अपराध में कोयला और दूरसंचार क्षेत्र के निजी कारोबारी घराने सहभागी थे। जो बैंक ऋण फंसे हुए कर्ज में तब्दील हुआ उसका बहुत बड़ा हिस्सा निजी उद्यमियों को दे दिया गया था। नुकसान बैंकों को ही उठाना पड़ा लेकिन घाटा निजी उद्यमों के खाते में गया। अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में एक बार फिर निजी क्षेत्र की नाकामी और खामियों की खबरें सामने आ रही हैं। एक समय अपनी चमक बिखेर रहा निजी क्षेत्र गलत कारणों से सुर्खियों में है।
जरा हाल ही की घटनाओं पर विचार कीजिए। आईसीआईसीआई बैंक की समस्या एक समय मुख्य कार्याधिकारी तक सीमित थी जिसे हितों के टकराव की समझ नहीं थी। इसका संबंध एक ऐसे बोर्ड से था जिसे अपने काम की समझ नहीं थी। परंतु अब यह समस्या कहीं अधिक बड़ी और व्यापक रूप लेती जा रही है। मामला खातों की वित्तीय स्थिति सुधार कर पेश करने तथा अन्य बातों तक पहुंच गया है। आमतौर पर देखा जाए तो इससे निजी क्षेत्र के बैंकों की प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ है। हालांकि उनका प्रदर्शन सरकारी बैंकों की तुलना में काफी बेहतर रहा है। उसके बाद नीरव मोदी-मेहुल चौकसी तिकड़ी के मामले ने अपेक्षाकृत सफल हीरा प्रसंस्करण उद्योग को लेकर आशंका पैदा कर दी है। सवाल यह उठ रहा है कि आखिर इस क्षेत्र के वित्तीय लेनदेन में पर्दे के पीछे क्या खामियाँ हैं?
विमानन में एयर एशिया इंडिया पर भुगतान से जुड़े कुछ आरोप हैं और उसके मुख्य अधिकारी को निकाला जा चुका है, इस मामले से भी टाटा घराने का नाम जुड़ा हुआ है। एक और कहानी है जिसमें इन्फोसिस कंपनी को एक कॉर्पोरेट अधिग्रहण के मूल्य के मामले में कड़े सवालों का सामना करना पड़ा। कंपनी छोड़कर जाने वाले वित्तीय अधिकारियों के भुगतान का भी मामला उठाया गया। प्रायः सभी दूरसंचार कंपनियों पर अपने क्षेत्र नियामकों से साथ फर्जीवाड़ा करने का आरोप लगाया जाता है। अच्छे मापन के लिए खनन आदि कारोबार पर्यावरण और सुरक्षा मानकों को लेकर सवालों के घेरे में रहते हैं। इन मामलों में जन विरोध, हिंसा और मौत की घटनाएं आम हैं। इस बीच फोर्टिस अस्पताल और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज चलाने वाले सिंह बंधुओं का मामला चर्चा में है। उनके द्वारा फर्जी शोध नतीजों और खराब गुणवत्ता वाली इकाइयों के इस्तेमाल की जानकारी सामने आई है।
यह सूची बहुत लंबी-चौड़ी नहीं है लेकिन इसमें सुधार के बाद के दौर के अधिकांश सफल कारोबारों जैसे – टेक और टेलीकॉम, दवा उद्योग और हीरा निर्यात तथा बैंकिंग और विमानन का नाम शामिल है। इस्पात और बिजली क्षेत्र के कारण उपजी बैंकिंग समस्याओं को दुर्भाग्य माना जा सकता है क्योंकि उनका कारोबारी चक्र उठता-गिरता रहता है। परंतु बैंकों के जोखिम आकलन के साथ-साथ प्रमुख उद्यमों के कारोबारी निर्णय पर सवाल क्यों नहीं उठाया जाता? निजी क्षेत्र से जुड़े गठजोड़ की खबरें जो फिर सामने आने लगी हैं उन पर भी कोई चर्चा क्यों नहीं करता?
ऐसा हो सकता है कि एक भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में कारोबार भी भ्रष्ट हों। फंड चाहने वाले राजनेता सांठगांठ वाले पूंजीवाद का साथ देंगे। ऐसे राजनेता और इसकी वकालत करने वाले (जैसे स्वदेशी जागरण मंच) निजी क्षेत्र की दुर्भावना की कहानियों का स्वागत करेंगे, चूँकि यह इसको कम करने के बजाय इसमें सरकार की भूमिका के विस्तार को बहाना मुहैया कराते हैं। जो लोग इस दिशा में चल रहे तंत्र का कोई हिस्सा नहीं चाहते या वे इससे जुड़े व्यापार, अनिश्चितता के जोखिम, कर, जाँच और प्रवर्तन अधिकारियों के छापों से डरते हैं वे देश छोड़ देंगें। कई पहले ही देश छोड़ भी चुके हैं।
इस तंत्र का विपरीत पक्ष यह है कि निजी कारोबारियों की विफलता ने बाजार आधारित सुधार की प्रक्रिया को काफी नुकसान पहुँचाया है, हालांकि यही आगे जाने का एकमात्र रास्ता है। निजीकरण राजनीतिक रूप से काफी जोखिम भरा हो गया है, और सार्वजनिक लागत पर निजी जोखिम को वहन करने के लिए आरामदायक नियंत्रण देखा जाता है। इसके सुधारों को लेकर कोई भी बहस नहीं की जा रही है और लोगों को लुभाने वाले वादों में बढ़ोतरी होती जा रही है।
Read in English : Private companies have caught up with India’s public sector on delinquent behaviour