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Saturday, 1 March, 2025
होममत-विमतप्रशांत को नीतीश की मानसिक हालत पर संदेह है, CM के बेटे के आने से बिहार की राजनीति में क्या मायने हैं

प्रशांत को नीतीश की मानसिक हालत पर संदेह है, CM के बेटे के आने से बिहार की राजनीति में क्या मायने हैं

प्रशांत किशोर ने बिहार के मतदाताओं की नब्ज़ पकड़ ली है — एक ऐसे CM के प्रति उनकी हताशा और उदासीनता, जिनका जादू खो गया है, लेकिन हार मानने से इनकार कर रहे हैं.

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जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने शुक्रवार को कहा कि नीतीश कुमार बिहार के “मुखिया” बने रहने के लिए “मानसिक रूप से फिट” नहीं हैं. पूर्व चुनाव रणनीतिकार ने पहले कुमार के मेडिकल टेस्ट की मांग की थी, लेकिन अब उन्होंने नई चुनौती पेश की है. अगर बिहार के मुख्यमंत्री बिना किसी कागज़ को देखे कैमरे के सामने अपने मंत्रियों के नाम और उनके विभागों के बारे में बता दें तो किशोर अपना आंदोलन वापस ले लेंगे और कुमार का समर्थन करेंगे. यह कुमार के एक पूर्व विश्वासपात्र की ओर से एक दिलचस्प चुनौती है, जिनका कभी सीएम आवास में एक स्थायी कमरा हुआ करता था और जिन्हें जनता दल (यूनाइटेड) के उपाध्यक्ष के रूप में उनके छोटे कार्यकाल के दौरान कुमार का संभावित उत्तराधिकारी माना जाता था.

किशोर शायद नीतीश कुमार के साथ वही करना चाहते हैं जो भाजपा ने ओडिशा में नवीन पटनायक के साथ किया था. पिछले साल ओडिशा चुनावों के दौरान, भाजपा ने तत्कालीन सीएम को एक बीमार, बूढ़े व्यक्ति की तरह पेश किया, जो अपने ही घर में बंधक हैं और जो स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते. भाजपा तमिलनाडु के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी वीके पांडियन को निशाना बना रही थी, जो पटनायक के बहुत करीबी सहयोगी थे. वे वस्तुतः सरकार और बीजू जनता दल को चलाते थे. भाजपा का यह अभियान कि कोई “बाहरी व्यक्ति” जनता के एकांतप्रिय व्यक्ति को “कठपुतली की तरह” नियंत्रित कर रहा है, स्पष्ट रूप से कारगर साबित हुआ, क्योंकि राज्य के लोगों ने पटनायक के खिलाफ वोट देकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया.

कुमार की दिमागी हालत पर किशोर के दावे वास्तव में बिहार के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पैर छूने के लिए झुके नीतीश कुमार के वीडियो क्लिप वायरल होने के महीनों पहले, पटना के सत्ता के गलियारों में इस बात की चर्चा थी कि कैसे उन्होंने एक ठेकेदार के पैर छुए थे, जब उसने उन्हें वक्त पर प्रोजेक्ट पूरा होने की बात बताई थी. उन नौकरशाहों से पूछिए जिन्होंने सीएम के साथ सालों तक काम किया है. वे अक्सर उन्हें पहचान नहीं पाते. ताज़ा चर्चा यह है कि बिहार के सीएम के साथ आजकल एक सहायक रहते हैं, जिनका काम उन्हें आने वाले विजिटर्स की पहचान याद दिलाना है. सीएम जो अक्सर मीडिया से अनौपचारिक बातचीत करते थे, उन्होंने कोविड-19 के बाद इसे लगभग बंद कर दिया और टीवी कैमरों के सामने अपनी प्रतिक्रिया को कभी-कभार कुछ वाक्यों तक सीमित कर दिया है. इनमें से कुछ नैरेटिव मनगढ़ंत या बनी बनाई हो सकते हैं, लेकिन गर्भनिरोधक और फैमिली प्लानिंग पर उनकी विवादास्पद टिप्पणियों ने 73-वर्षीय नेता की छवि में कोई मदद नहीं की और यह भी सच है कि बिहार में सिविल सेवकों का एक गिरोह ही सब कुछ चला रहा है.

इसलिए, यह कोई हैरान होने वाली बात नहीं है कि प्रशांत किशोर जैसे शानदार चुनावी रणनीतिकार नीतीश कुमार की राजनीति और प्रशासन में इन खामियों का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले नवंबर में हुए चार विधानसभा उपचुनावों में जनसुराज पार्टी को भले ही केवल 10 प्रतिशत वोट मिले हों, लेकिन एक महीने पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. सच तो यह है कि किशोर बिहार की राजनीतिक चर्चाओं पर हावी हो रहे हैं, यकीनन राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के प्रमुख विपक्षी चेहरे तेजस्वी यादव से भी ज़्यादा. जनसुराज भले ही 2025 में सत्ता के लिए एक मजबूत दावेदार की तरह न दिखे, लेकिन इसने राज्य की राजनीति में इतनी हलचल मचा दी है कि प्रतिद्वंद्वी असहज और सतर्क हो गए हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बाद तेजस्वी यादव की गति धीमी पड़ गई है और जब नीतीश कुमार सूर्यास्त की ओर बढ़ रहे हैं, किशोर का आशावाद होना गलत नहीं है.

लेकिन यह कॉलम प्रशांत किशोर के बारे में नहीं है. मैं उनका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन्होंने बिहार के मतदाताओं की नब्ज़ पकड़ ली है — एक ऐसे मुख्यमंत्री के प्रति उनकी हताशा और उदासीनता, जिसने अपना जादू खो दिया है, लेकिन हार मानने को तैयार नहीं है.

विकास पुरुष की परछाई

जनवरी 2024 में जब नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ फिर से हाथ मिलाने के लिए एक और राजनीतिक कलाबाजी की थी, तो ऐसा लगा कि शायद उन्होंने कुछ ज्यादा ही खेल खेल लिया था.

बिहार के राजनीतिक हलकों में कई लोगों का मानना ​​था कि भाजपा उन्हें लोकसभा चुनाव में इस्तेमाल करेगी और फिर उनके पैरों तले ज़मीन खींच लेगी.

वह इस बात से चूक गए कि नीतीश कुमार की किस्मत का सितारा हमेशा बुलंद रहा है. लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के आंकड़े से चूक गई और 12 सांसदों के साथ कुमार मोदी 3.0 के लिए ज़रूरी हो गए. बिहार में कुमार से मोहभंग एक असलियत है. अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) और महादलितों, खासकर महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता कम हो रही है, लेकिन एनडीए के लिए कुमार अभी भी सबसे अच्छे दावेदार हैं.

इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा बिहार में अपना खुद का सीएम बनाने के अपने लंबे समय से संजोए गए सपने को छोड़ देगी. दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में हुए जश्न को याद कीजिए जब 2020 के चुनावों में 243-सदस्यीय विधानसभा में जेडी(यू) की संख्या घटकर 43 रह गई थी और भाजपा 74 सीटों के साथ बिहार एनडीए में बड़े भाई के रूप में उभरी थी. भाजपा अभी भी 2020 के नतीजों को दोहराने की उम्मीद कर सकती है.

पिछले पांच साल में कई चीज़ें बदल गई हैं, या ऐसा भाजपा सोचती होगी. एक बात तो यह है कि कुमार पांच साल बड़े हो गए हैं. उनके अवसरवादी उलटफेरों ने उनकी चमक को फीका किया है. वे उस ‘विकास पुरुष’ की परछाई बनकर रह गए हैं जो वे कभी हुआ करते थे. शासन करने के लिए उनकी योग्यता को लेकर चिंताएं हैं. ये सभी चीज़ें मिलकर जेडी(यू) नेताओं को बेचैन करती हैं. वे लंबे समय तक उन पर निर्भर नहीं रह सकते. उन्हें विकल्प तलाशने होंगे. कुछ पहले से ही भाजपा के साथ घुलमिल रहे हैं; अन्य दुविधा में हैं. 2025 में 2020 जैसा नतीजा नीतीश कुमार को और कमज़ोर कर देगा, खासकर अंदर से. 2025 के चुनाव में भाजपा के लिए यही सबसे बड़ी उम्मीद होगी — बेशक विपक्षी गुट के हारने के अलावा, लेकिन यहां एक पेंच है. हम कुमार की किस्मत जानते हैं. क्या होगा अगर उनके पास विपक्ष की संख्या को बहुमत के आंकड़े तक ले जाने के लिए पर्याप्त सीटें हों? तब भाजपा फिर से शुरुआती स्थिति में आ जाएगी. मसलन, जब तक तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले विपक्षी गुट को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल जाता, तब तक नीतीश कुमार कहीं नहीं जा रहे.


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कुछ भी तय नहीं

नीतीश कुमार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके उत्तराधिकारी का स्पष्ट न होना उनके सहयोगियों को बेचैन कर रहा है. अगर कभी वे अलग-थलग पड़ गए तो वह उन पर भरोसा नहीं कर सकते. भाजपा उस नाज़ुक मौके का इंतज़ार करेगी. यही वजह है कि नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार के आने से बिहार में इतनी उत्सुकता है. मेसरा के बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट निशांत राजनीति से दूर रहकर दिल्ली के द्वारका फ्लैट में रह रहे थे. उनके पिता वंशवादी राजनीति के मुखर आलोचक हैं और शायद ही कभी सार्वजनिक रूप से उनके बारे में बात करते हैं. करीब 15 दिन पहले 48-वर्षीय निशांत अपने पिता के साथ उनके गृहनगर बख्तियारपुर में एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे. निशांत ने मीडिया से बात करते हुए लोगों से जेडी(यू) और अपने पिता के लिए वोट करने की अपील की. इसने बिहार के राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी — क्या नीतीश कुमार आखिरकार उत्तराधिकारी पेश करने के बारे में सोच रहे हैं?

जेडी(यू) के कई नेता जो अपनी पार्टी के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं — कुमार के अपनी ताकत खोने और JD(U) के बिखराव की आशंका से — निशांत के राजनीति में उतरने का समर्थन कर रहे हैं. उनका कहना है कि वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत का दावा कर सकते हैं. उनके पास कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है, लेकिन निशांत के समर्थक तर्क देंगे कि जब नवीन पटनायक ने अपने दिवंगत पिता की विरासत संभालने का फैसला किया तो उनके पास भी कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था. पटनायक के विपरीत, निशांत को नीतीश कुमार के सहायक के रूप में सीखने का अवसर मिलेगा.

उत्तराधिकारी की बहस जारी रहने के दौरान नीतीश कुमार चुप रहे हैं. उन्होंने अभी तक इस अटकलबाज़ी को रोकने की कोशिश नहीं की है. हालांकि, भाजपा को इस बारे में ज़्यादा चिंता होगी क्योंकि वह जल्द से जल्द उनकी राजनीतिक विरासत पर कब्ज़ा करने की उम्मीद कर रही थी. कुमार कैमरे के सामने अपने सभी मंत्रियों और उनके विभागों के नाम बता पाएं या न बता पाएं, लेकिन उनके पास अभी भी एक ऐसा इक्का हो सकता है. क्या निशांत कुमार वह इक्का हो सकते हैं? जेडी(यू) के कुछ नेताओं का मानना है कि वही हैं, लेकिन वह जानते हैं कि जब बात नीतीश कुमार की आती है, तो कुछ भी कहना मुश्किल होता है.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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