असम और उत्तर प्रदेश द्वारा लाए गए जनसंख्या नियंत्रण कानून को कई लोगों ने यह कह कर खारिज करने का प्रयास किया कि इस संवेदनशील विषय पर कानून की नहीं बल्कि जन जागरूकता की आवश्यकता है. यह तर्क कानून की महत्ता को नज़रअंदाज़ करता है.
1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ था तब भारतीय राज्य को सामाजिक बदलाव की अहम ज़िम्मेदारी दी गयी थी. इसी ज़िम्मेदारी के तहत भारतीय राज्य ने दहेज उत्पीड़न समेत कई विषयों पर कानून बनाने का काम किया.
यह सच है कि कानून से अधिक दहेज की प्रथा को खत्म करने में महिलाओं की शिक्षा समेत कई कारकों के महत्वपूर्ण योगदान की जरूरत है लेकिन, दहेज उत्पीड़न कानून के कारण समाज में एक ऐसा सार्वजनिक डिस्कोर्स ज़रूर बना जिसमें लोग दहेज को सामाजिक बुराई के तौर पर स्वीकारने लगे. छुआछूत के खिलाफ कानून को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. सार्वजनिक जीवन में इस कानून का असर साफ दिखता है.
आजादी से पहले भी राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश सरकार से आग्रह कर सती ऐक्ट पास करवाना इस बात का प्रमाण है कि कानून के कारण किसी विषय को लेकर समाज में एक मजबूत धारणा बनती है. भारत एक ऐसा देश है जहां लोग वाहन चलाते समय हेलमेट और सीट बेल्ट का प्रयोग अपनी सुरक्षा से अधिक कानून का पालन करने के लिए करते हैं.
पश्चिम के देशों में औद्योगिक क्रांति को जनसंख्या वृद्धि का कारण माना जाता है लेकिन भारत में जनसंख्या वृद्धि के दो प्रमुख कारण हैं. पहला, जन्म दर का प्रतिशत मृत्यु दर से अधिक होना और दूसरा, निम्न साक्षरता, परिवार नियोजन के प्रति विमुखता आदि.
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परिवार नियोजन से लेकर हम दो हमारे दो तक
हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि का कारण पश्चिम के देशों से बिल्कुल अलग है और इसलिए हमें इस विषय पर राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की आवश्यकता है. पूर्व में भी देश में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बहस हुई है. परिवार नियोजन और हम दो हमारे दो जैसे नारों से जन जागरूकता बढ़ाने की कोशिश भी की गयी लेकिन इन अभियानों के बावजूद जनसंख्या पर उल्लेखनीय नियंत्रण नहीं हो सका.
समय-समय पर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा भी जनसंख्या नियंत्रण कानून लाए गए. राजस्थान में स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने पंचायत और नगरपालिका कानून में बदलाव करते हुए जनप्रतिनिधि चुने जाने के लिए दो से अधिक बच्चों का न होना अनिवार्य कर दिया थे. लेकिन आजतक जनसंख्या को लेकर भारत में कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बन सकी है. राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और धर्म से जोड़कर देखने की प्रवृति ने इसे कभी राजनीतिक डिस्कॉर्स में आने नहीं दिया.
लांसेट रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2048 में भारत की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक होने का अनुमान लगाया गया है. भारत एक विकासशील देश है और स्वाभाविक है कि यहां सीमित संसाधनों से ही अपने नागरिकों के लिए कोई योजना बनायी जा सकती है. ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण भारत के लिए एक गंभीर चुनौती है. जहां तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नज़रिए से ऐसे कानूनों को देखने की बात है तो यह बताना उचित होगा कि एक लोककल्याणकारी राज्य में बड़े हित (लार्जर इंट्रेस्ट) के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा सकता है.
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जनसंख्या नियंत्रण का धर्म से कोई लेना नहीं
जनसंख्या नियंत्रण कानून को धर्म के चश्मे से देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. भारत सरकार के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 2 से ज्यादा बच्चे वाले 83% परिवार वे हैं जो जनगणना में खुद को हिंदू लिखवाते हैं. इसलिए ये कहना गलत होगा यह कानून मुसलमानों के खिलाफ है. हालांकि, इसी सर्वे रेपोर्ट के अनुसार 46.5 मुस्लिम महिलाओं को दो से अधिक बच्चे हैं. जबकि हिंदू महिलाओं में यह प्रतिशत 34.2 है. बौद्ध धर्म को छोड़ अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में यह आंकड़ा और भी कम है.
मुस्लिम ‘कट्टरपंथियों’ द्वारा परिवार नियोजन को धर्म से जोड़कर देखना न सिर्फ गलत है बल्कि यह बात इस्लाम में कहीं नहीं कही गयी है. पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की किताब इस्लाम, फ़ैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया में इस बात का स्पष्ट ज़िक्र है कि क़ुरान ने परिवार नियोजन को प्रतिबंधित नहीं किया है.
मुस्लिम कट्टरपंथियों को इस कानून का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए कि यह भाजपा सरकार द्वारा लाया जा रहा है. इसी तरह तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) को भी गुनाह माना गया है लेकिन इस प्रथा का भी भारत के कट्टरपंथी तबकों ने समर्थन किया. इस कुप्रथा के खिलाफ भी भाजपा सरकार ही कानून लेकर आयी. इस कानून को भी धर्म के बजाए महिलाओं के बेहतरी के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है.
ठीक इसी तर्ज़ पर जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे को भी सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है. जनसंख्या विस्फोट एक राष्ट्रीय समस्या है. इस समस्या को धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर एक भारतीय के नज़रिए से देखने की जरूरत है.
जनसंख्या नियंत्रण का मॉडल क्या हो, इस पर एक व्यापक राष्ट्रीय बहस की आवश्यकता है. यह विषय डेमोग्राफिक (जनसांख्यिकी) असंतुलन से सीधा संबंध रखता है. हमें चीन के अनुभवों से सीखते हुए वन चाइल्ड पॉलिसी को प्रोत्साहित न करते हुए टू चाइल्ड पॉलिसी को जनसंख्या नियंत्रण का आधार बनाना चाहिए.
(लेखक आईआईटी दिल्ली से स्नातक और भाजपा बिहार प्रदेश कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रवक्ता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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