आज रामनवमी है. असंख्य निर्बलों के बल, आराध्य और साथ ही आदर्श भगवान राम का जन्मदिन. कोरानावायरस की महामारी से निपटने में हलकान इस देश के निकटवर्ती इतिहास में संभवतः यह पहली बार है जब इस अवसर पर कहीं भी कोई मेला नहीं लग रहा, न कोई सार्वजनिक समारोह आयोजित किया जा रहा है.
उस अयोध्या में भी नहीं, जिसे न सिर्फ राम की जन्मभूमि बल्कि राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त है और जहां चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नये संवत्सर के आरम्भ यानी नौ दिन पहले से ही राम जन्मोत्सव का उल्लास असीम होने लग जाता है और जब आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, वहां सरयू का तट, श्रद्वालुओं के ‘भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी’ से गूंज रहे होते. वह ‘कनक भवन’ इस उत्सव का मुख्य केन्द्र होता, जिसे कहते हैं कि कौशल्या ने सीता को तब मुंह दिखाई में दिया था जब वे नयी-नयी ब्याहकर जनकपुर से आई थीं.
लेकिन इस अभूतपूर्व सन्नाटे से भी घट-घटवासी राम की उन विविधवर्णी व बहुआयामी छवियों को कतई कोई फर्क नहीं पड़ने वाला जो उनके अनुयायियों के हृदयों में बसी हुई हैं. कारण यह कि वे वहां जबरन नहीं जा बसी हैं. उन्हें बसाने वाले हृदयों को उनकी ओर से यह अगाध छूट हासिल है कि वे उनमें से जिसको भी चाहें, उसी के हो लें. अपनी भावनाओं के अनुसार अपने राम की कोई नई ‘मूरत’ गढ़ लें, तो भी कोई हर्ज नहीं. उनके राम ‘रघुपति राघव राजा राम’ हों, धनुर्धर, वल्कलवस्त्रधारी या वनवासी, सभी अंततः ‘पतितपावन’ ही हैं. वे उनमें से किसी के पिउ हैं तो कोई उनकी बहुरिया.
संत कबीर कभी एलानिया कहते हैं, ‘हरि मोर पिउ मैं राम की बहुरिया’ और कभी उनके हरि उनकी जननी हो जाते है- ‘हरि जननी मैं बालक तोरा.’ दरअसल, उनके निकट यह संत और उसके आराध्य के बीच का मामला है, जिसमें किसी और को दखल देने का अधिकार नहीं. अयोध्या में तो एक ऐसा सम्प्रदाय भी है जो सखा भाव से राम की उपासना किया करता है. ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ का उद्घोष करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की बात करें तो उनके निकट वे सबको सन्मति प्रदान करने वाले हैं.
निस्संदेह, किसी को शौक-ए-दीदार हो तो वह राम की इन कुछ बेहद जतन से गढ़ी गयी और ज्यादातर सर्वथा अनगढ़ छवियों में भारत के उस बहुलतावाद का, जो उसकी बहुप्रचारित विशाल हृदयता में प्रायः चार चांद लगाता रहता है, सबसे प्रामाणिक अक्स देख सकता है. इस खासियत के साथ कि ये छवियां अपनी बहुलता में ‘एक राम दशरथ को बेटा, एक राम घर-घर में लेटा’ तक ही सीमित नहीं हैं.
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‘राम अतक्रय बुद्धि मन बानी’ वाली बात ऐसे ही थोड़े कही जाती है. समाजवादी विचारक डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने भी ऐसे ही नहीं कह दिया कि भारतीय इतिहास की आत्मा और देश के सांस्कृतिक इतिहास के लिए यह निरर्थक बात है कि भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं.
अपने बहुचर्चित निबन्ध ‘राम, कृष्ण और शिव’ में वे शिव और कृष्ण के साथ राम को भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्नों में शामिल करते और कहते हैं कि उनमें भारत की उदासी और रंगीन सपने एक साथ प्रतिबिम्बित होते हैं.
आज की भूमंडलीकृत दुनिया में सब कुछ अपनी मुट्ठी में करने की होड़ में फंसी पीढ़ी के लिए यह जानना दिलचस्प है कि डाॅ. लोहिया के अनुसार राम का जीवन किसी का कुछ भी हड़पे बिना फलने की कहानी है.
वे लिखते हैं, ‘उनका निर्वासन देश को एक शक्ति केंद्र के अंदर बांधने का एक मौका था. इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे- अयोध्या और लंका. अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गए. मर्यादित पुरुष की नीति-निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति तब हुई, जब राम ने रावण के राज्यों में से एक बड़े राज्य को जीता. उसका राजा बालि था…राम ने इस पहली जीत को शालीनता और मर्यादित पुरुष की तरह निभाया. वह राज्य हड़पा नहीं, जैसे का तैसा रहने दिया. वहां के ऊंचे या छोटे पदों पर बाहरी लोग नहीं बैठाए गए. कुल इतना ही हुआ कि एक द्वंद्व में बालि की मृत्यु के बाद सुग्रीव राजा बनाए गये.’ रावण की लंका को जीतकर भी उन्होंने उसे हड़पा नहीं- विभीषण को उसका राजा बनाया.
अल्लामा इकबाल कहते हैं कि ‘है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज, अहलेनज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द’ तो सुनना अच्छा लगता है.
लेकिन इकबाल के सबसे प्यारे दोस्त पंडित ब्रजनारायण चकबस्त द्वारा ‘रामायण का एक सीन’ नाम से रची गई लम्बी नज्म में राम के मुंह से कहलवाई गई यह बात देश की सीमाओं व धर्म की संकीर्णताओं से परे उनकी घट घट व्यापकता के साथ कहीं ज्यादा न्याय करती है- ‘कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चराग’.
इस चिराग की रौशनी में देखें तो आज की तारीख में रामकथा न सिर्फ भारत, बल्कि अखंड भारत की सीमाओं से भी परे, दुनिया के 63 देशों में कही जाती है. इंडोनेशिया, थाईलैंड और फिलीपींस समेत ये सारे देश हिन्दुबहुल न होकर दूसरे धर्मों व सम्प्रदायों के अनुयायियों से भरे पड़े हैं. इनमें से कई में रामकथाओं का मंचन भी होता है, जिसमें अन्य धर्मावलम्बियों की प्रमुख भूमिका होती है.
फिलीपींस की रामकथा में तो इस्लाम के कई तत्वों का इस तरह समावेश है कि अब विशेषज्ञों के लिए भी अलगाना मुश्किल है कि उनमें से कौन-सा तत्व कब कहां से आया.
जैसे राम की छवियों में, वैसे देशांतर की रामकथाओं में भी अनेक स्वरूपगत भिन्नताएं हैं. लेकिन ये भिन्नताएं न उन्हें एक दूजे के विरुद्ध खड़ी करती है और न राम की अपनाने, स्वीकारने या व्यापक बनाने में बाधक बनती हैं. वहां अनेक लोग इस दृष्टिकोण को किसी दुराग्रह से जोड़कर नहीं देखते कि ‘क्या हुआ जो आज हमारा धर्म हिन्दू नहीं है. हम इससे कैसे इनकार कर सकते हैं कि अतीत में हमारा भगवान राम से गहरा नाता रहा है. वह नाता हमारी सांस्कृतिक धरोहर है.’
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पिछले साल अयोध्या में एक विदेशी ने इन पंक्तियों के लेखक को ये बातें बताईं तो चकित होते देख यह सवाल करने से भी नहीं चूका कि आप चकित क्यों हो रहे हैं? रामानुजाचार्य की भक्ति परम्परा में चौथे स्थान पर आने वाले संत रामानन्द के (जिन्होंने उत्तर व दक्षिण भारत की भक्ति परम्पराओं में समन्वय के लिए अथक परिश्रम किया और जो कहा करते थे कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सतान हैं और उनमें कोई भेदभाव या ऊंच-नीच नहीं है) शिष्यों में कबीर के अलावा भी तो दूसरे धर्माें व सम्प्रदायों के लोग थे.’
उस विदेशी के कथन को इस तथ्य के साथ मिलाकर देखा जा सकता है कि अंग्रेज़ों ने 11 फरवरी, 1856 को अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर गिरफ्तार किया तो उनके कुशलक्षेम के लिए भगवान राम से प्रार्थनाएं की गईं. इसके पीछे वह गंगा-जमुनी संस्कृति थी, जिसे नवाबों ने अपने समय में लगातार सींचा. उनमें से कई स्वयं रामोपासक थे और उन्होंने अयोध्या के अनेक मन्दिरों को दान व जागीरें वगैरह देने में खासी दरियादिली दिखाई.
आइये, इस बार रामनवमी के बहाने ‘रघुपति राघव राजाराम’ के अनन्य उपासक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को भी याद करें जिन्होंने अपने ‘साकेत’ में भगवान राम को इन शब्दों में याद किया था- ‘राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या? विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या? तब मैं निरीश्वर हूं ईश्वर क्षमा करे, तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे’.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)