यह एक आश्चर्य की बात ही है कि हमारे राजनीतिक दल यह जान कर हैरान थे कि उनके बीच के ही एक दल भाजपा ने, जैसा कि चलन है बिहार विधानसभा चुनाव के लिए जारी अपने घोषणापत्र में वादा कर दिया कि अगर वह सत्ता में आई तो राज्य में हरेक व्यक्ति को कोविड-19 का टीका का मुफ्त में दिया जाएगा. इन दलों को अब तक तो पता चल ही जाना चाहिए था कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली भाजपा उस ‘टोटलपॉलिटिक’ यानी सम्पूर्ण राजनीति की प्रवर्तक है, जो छोटा-बड़ा हर चुनाव येन केन प्रकारेण जीतने में विश्वास रखती है और मुफ्त वैक्सीन का वादा तो शायद उसके राजनीतिक तरकश का मामूली तीर ही है. वैसे भी, जिस देश में राजनीतिक दल रंगीन टीवी सेट से लेकर केबल टीवी कनेक्शन, साइकिल, स्कूटर, टिकाऊ चप्पलों, लंचबॉक्स, साड़ी, बरतन, रसोई तेल, चावल, बिजली, खाद, दहेज, लैपटॉप, वाईफाई और छह महीने तक मुफ्त इन्टरनेट सुविधा के साथ स्मार्टफोन तक देने के वादे मतदाताओं से करते रहे हैं. वहां महामारी के बीच मुफ्त वैक्सीन देने का वादा तो मुनासिब ही लगता है.
नहीं, यह सवाल का जवाब सवाल करने से वाले से ही वही सवाल पूछने की चालबाजी नहीं है. पहले मैं इस स्तम्भ में लिख चुका हूं कि मोदी सरकार देशव्यापी टीकाकरण अभियान के तहत सबको मुफ्त में टीका दे तो इसका ठोस आर्थिक कारण भी बनता है. इसलिए यह एक अच्छी खबर है कि मोदी सरकार ने देश में सबको मुफ्त में टीका उपलब्ध कराने का संकेत दिया है. तमिलनाडु और मध्य प्रदेश सरकारों की प्रतिक्रियाओं से साफ है कि राजनीतिक लाभ के लिए सभी राज्य सरकारें- चाहे वे सत्ता में हों या चुनाव लड़ने जा रही हों- लोगों के लिए मुफ्त टीका देने की घोषणा करेंगी.
केंद्र सरकार वैक्सीन को हासिल करने उनके भंडारण और वितरण की केंद्रीकृत प्रक्रिया अपना सकती है. तब राज्य सरकारों को उसे बांटने के लिए अपने प्रशासन को सक्रिय करना होगा. केंद्र तथा राज्यों को इस पूरी व्यवस्था की लागत में साझीदारी करने के बारे में भी फैसला करना पड़ेगा. दोनों को जिस वित्तीय कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है उसे देखते हुए इस बारे में बातचीत निश्चित ही चुनौतीपूर्ण होगी. लेकिन एक बात तो कुल मिलाकर राजनीतिक रूप से तय हो गई है कि लोगों को वैक्सीन के लिए खर्च नहीं करना पड़ेगा. भाजपा की तरह राज्य सरकारें, राजनीतिक दल और स्थानीय नेता मुफ्त वैक्सीन देने का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करेंगे. भारत में नीतियां चूंकि आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक कारणों से तय की जाती हैं. भाजपा के बिहार के घोषणापत्र में किए गए वादे का इतना तो असर हो सकता है कि भारत में सबका टीकाकरण तेजी से होगा.
हमेशा राजनीति
टीकाकरण में राजनीति न हो, यह तर्क इस वास्तविकता की ‘उपेक्षा’ करता है कि महामारियां मूलतः राजनीतिक होती हैं. कोविड-19 शुरू से ही राजनीतिक मुद्दा बन गया. याद कीजिए कि चीनी नेताओं ने शुरू में इस महामारी के हमले की खबर को दबाने की किस तरह कोशिश की थी. उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) पर दबाव डाला कि वह इस वायरस का नाम वुहान वायरस नहीं बल्कि कोविड-19 वायरस रखें. उधर अमेरिका में मास्क लगाने जैसी समझदारी को आज तक एक राजनीतिक मामला माना जाता है और व्लादिमीर पुतिन ने जब ‘पहला’ वैक्सीन बना लेने की घोषणा की या शी जिंपिंग ने वैक्सीन को दुनियाभर से साझा करने का वादा किया या भारत में ‘आइसीएमआर’ ने अगस्त तक वैक्सीन तैयार कर देने का बेतुका फरमान जारी किया, तब इन सबने किसी वैज्ञानिक या आर्थिक कारण से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से ऐसा किया. डोनाल्ड ट्रंप तो अपने यहां नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव से पहले वैक्सीन तैयार करवाने के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं. बल्कि उन्होंने तो पिछले महीने घोषणा भी कर दी कि ‘हम बहुत जल्दी वैक्सीन ला रहे हैं, संभवतः उस खास तारीख से भी पहले. आप जानते हैं कि मैं किस तारीख की बात कर रहा हूं.’
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वैक्सीन संबंधी किसी भी नीति का राजनीतिकरण होना ही है, क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य एक राजनीतिक मसला है. राजनीतिक पहलू से बचा नहीं जा सकता. आज के इस दौर में अमेरिका और ब्रिटेन में वैक्सीन विरोधी आंदोलन भी चल रहा है. दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे लोग और समूह हैं जो धार्मिक या वैचारिक आस्थाओं के कारण टीके लगवाने से मना करते हैं. गनीमत है कि भारत में टीके लगवाने के लिए कोई राजनीतिक कारण नहीं ढूंढना पड़ता हालांकि टीकाकरण अभियान के लिए जन जागरूकता और शिक्षण जरूरी होगा. इसकी जगह हम इस बहस में उलझे हैं कि क्या यह उचित है कि कोई पार्टी अपने चुनाव घोषणापत्र में मुफ्त टीके उपलब्ध कराने का वादा करे. ऐसी बहस अच्छी ही है.
बड़े सवाल
भाजपा विरोधी दलों को तो सरकार को इन सवालों से घेरना चाहिए कि राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम किस तरह, कब और किस लागत से चलाया जाएगा? जहां राज्यों की क्षमताओं में भारी अंतर है उस संघीय ढांचे में इस कार्यक्रम को किस तरह लागू किया जाएगा? स्वास्थ्य जबकि राज्यों का विषय है, मोदी सरकार उन्हें इस कार्यक्रम की रणनीति तैयार करने में कब शरीक करेगी? केंद्र और राज्य सरकारें किस तरह तय करेंगी कि वे पहले किनका टीकाकरण करेंगी?
बिहार में मुफ्त वैक्सीन देने का वादा करने के बाद अब बहस तो इस नीति को लेकर होनी चाहिए कि ‘मुफ्त’ का क्या-क्या मतलब है. पहली बात तो यह है कि ‘मुफ्त’ का मतलब कमतर ‘क्वालिटी’ नहीं होना चाहिए, जैसा कि स्कूलों, अस्पतालों और सरकार द्वारा दी जाने वाली दूसरी सुविधाओं के मामले में होता रहा है. लेकिन इसका मतलब यह जरूर होगा कि प्राथमिकताएं तय की जाएंगी, कतार लगेगी, और इन सबसे जुड़ी राजनीति भी होगी, इसलिए इस सबको उदारता के भाव से चलाना पड़ेगा. राजनीतिक कारणों से प्राथमिकताएं तय की जाएंगी तो सार्वजनिक स्वास्थ्य का लक्ष्य अच्छी तरह पूरा नहीं हो पाएगा.
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दूसरा बड़ा नीतिगत सवाल यह होगा कि जो लोग कीमत देकर टीके लेना चाहेंगे उनके लिए निजी संस्थानों को किस तरह अनुमति दी जाएगी. जो लोग कीमत देने की क्षमता रखते हैं वे उस तरह टीके ले सकें तो यह सार्वजनिक हित में ही होगा और इससे सरकार पर बोझ घटेगा. अगर सप्लाई भरपूर रही तो इसमें दिक्कत नहीं होगी, वरना मुश्किल होगी.
आर्थिक नीति इन नीतिगत सवालों का समाधान करने में मदद कर सकती है मगर फैसले तो राजनीतिक स्तरों पर होते हैं. जब तक वैज्ञानिक प्रक्रिया की उपेक्षा नहीं होती, तब तक टीकाकरण का राजनीतिकरण बुरी बात नहीं है.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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