शायद इसे ही कहते हैं – बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां शुभांअल्लाह! भाजपा की सबसे पुरानी गठबंधन सहयोगियों में से एक शिवसेना, जो अब अपनी आधारभूमि में भी उसकी जूनियर होने को अभिशप्त हो गई है, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बढ़त बनाने के लिए खुद को हिंदुत्व की भाजपा से बड़ी अलमबरदार सिद्ध करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही. यह और बात है कि आज की तारीख में किसी भी निष्पक्ष प्रेक्षक को नहीं लगता कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अब तक अबूझ और अपराजित रणनीति के बरक्स वह इस ‘सिद्धि’ के पास भटक भी सकेगी.
पाठकों को याद होगा, गत लोकसभा चुनाव के वक्त अपने इसी तरह के एक उपक्रम में शिवसेना ने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण की सबसे बड़ी हिमायत अपने नाम करने के फेर में ‘पहले मन्दिर फिर सरकार’ जैसा नारा देने से भी गुरेज नहीं किया था. तब भाजपा और उसकी तत्कालीन नरेन्द्र मोदी सरकार ने खुद पर कितना दबाव महसूस किया था, इसे इस एक तथ्य से ही समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राम मन्दिर मुद्दे पर अपनी लम्बी चुप्पी तोड़नी पड़ी थी और वे उसका निर्माण अटकाने का सारा ठीकरा ‘कांग्रेस के वकीलों’ पर फोड़ने लगे थे.
शायद यह उसी के मद्देनजर था कि गत 19 सितम्बर को नासिक में हुई भाजपा की रैली में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए उसके अभियान का आगाज़ करते हुए मोदी ने पेशबंदी के तौर पर ‘बड़बोले बयान बहादुरों’ से राम मन्दिर निर्माण को लेकर अनाप-शनाप बातें न कहने और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही अयोध्या विवाद की सुनवाई में भरोसा रखने का ‘करबद्ध निवेदन’ कर डाला. प्रेक्षकों के अनुसार प्रधानमंत्री ने उक्त ‘निवेदन’ उद्धव ठाकरे के उस आह्वान की धार कुन्द करने के लिए ही किया, जिसमें उन्होंने शिवसैनिकों से कहा था कि वे नवम्बर में अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के लिए तैयार रहें.
लेकिन मजबूत विपक्ष की अनुपस्थिति के बीच भाजपा और शिवसेना में महाराष्ट्र में ‘तू बड़ा या मैं’ का खेल इतने तक ही सीमित नहीं है. इसे यूं समझ सकते हैं कि भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने दिल्ली विश्वविद्यालय में दो राष्ट्रनायकों – शहीद-ए-आजम भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस-के बीच ‘हिंदुत्व के नायक’ विनायक दामोदर सावरकर की प्रतिमा लगाये और हटाये जाने का मामला गर्म कर विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव जीत लिया तो शिवसेना प्रमुख को सावरकर की प्रशंसा और ‘प्रतिष्ठा’ को लेकर भी भाजपा से पीछे रहना गवारा नहीं हुआ.
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भाजपा से, कम से कम महाराष्ट्र में, यह सावरकर कार्ड छीनकर खुद खेलने के लिए उन्होंने ‘सावरकर: इकोज फ्रॉम ए फॉरगाटेन पास्ट’ नामक पुस्तक के विमोचन के मौके पर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मजाक की सारी सीमाएं तोड़ते हुए कह डाला कि अगर वीर सावरकर देश के प्रधानमंत्री होते तो पाकिस्तान अस्तित्व में ही नहीं आता. इतना ही नहीं, उन्होंने सावरकर को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने की मांग भी कर डाली और इस डर से कि कहीं उनकी ‘कोशिश’ में कोई कसर बाकी न रह जाये, देश के पहले प्रधानमंत्री और ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए कह दिया कि उन्हें नेहरू को भी सावरकर जैसा वीर कहने में गुरेज नहीं होता, यदि वे चौदह मिनट भी सावरकर की तरह जेल के भीतर रहे होते.
याद कीजिए, दिल्ली विश्वविद्यालय में सावरकर को भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस के बराबर खड़ा करने की कोशिश की गई थी और यहां उद्धव उनके समानांतर जवाहरलाल नेहरू का जिक्र कर रहे थे. जाहिर है कि मामला आगे निकलने का ही था. लेकिन वे इतने पर ही रुक जाते तो भी गनीमत थी. मगर उन्होंने उन राहुल गांधी को भी नहीं बख्शा, जो आजकल कुछ बेचते ही नहीं हैं. उन्होंने कहा कि विमोचित पुस्तक की एक प्रति कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को भी दी जानी चाहिए ताकि वे सावरकर के बारे में ठीक से जान लें और ‘गलतबयानी की हिमाकत’ न कर सकें.
उनका सौभाग्य है कि भाजपा ने भले ही उनके कथन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, राज्य के कांग्रेस नेताओं को इससे भरपूर मिर्ची लगी. वे पूछने लगे कि भाजपा और शिवसेना राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट जाने के बाद भी उन्हें हर बात के बीच में क्यों ले आती हैं? उन्होंने यह भी कहा कि उद्धव ठाकरे राहुल को सावरकर पर आधारित पुस्तक पढ़ाना चाहते हैं तो यह उलटे चोर कोतवाल को डांटने जैसी बात है क्योंकि इतिहास को लेकर गलतबयानी के रिकॉर्ड तोड़ने के रिकॉर्ड तो भाजपा व शिवसेना के नेताओं के ही नाम हैं.
लेकिन उद्धव की सावरकर प्रशस्ति पर चुप्पी साधने में ही भलाई समझने वाली भाजपा ने प्रकारांतर से उन्हें यह संदेश देने में देर नहीं की कि उन्हें किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए क्योंकि अंततः उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस से नहीं, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से डील करना है. उन मोदी से, जिनको जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए फड़णवीस की जीवन संगिनी अमृता ने ‘फादर ऑफ द कंट्री’ की उपाधि दे डाली है. बताने की जरूरत नहीं कि यहां मामला यह जताने का था कि सावरकर की जितनी भी स्तुति कर डालो, हमारे इस नायक का कोई तोड़ तुम्हारे पास हो तो बताओ. समझने की बात है कि अमृता ने अपनी उपाधि में बड़ी चतुराई से ‘नेशन’ की जगह ‘कंट्री’ लिखा ताकि मोदी को ‘फादर ऑफ द नेशन’ महात्मा गांधी से भी ऊपर दिखाने की उनकी ‘हसरत’ भी पूरी हो जाये और उन पर चापलूसी की तोहमत भी न लगे. दरअसल, उद्धव ठाकरे सावरकर की स्तुति के लिए पंडित नेहरू को नीचा दिखाना चाहते थे, जबकि अमृता ने मोदी को महात्मा गांधी के समकक्ष ला खड़ा किया है.
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अलबत्ता, भाजपा व शिवसेना के बीच इस प्रतिद्वंद्विता ने राज्य के कांग्रेसियों को भी मुखर होने का मौका दे दिया है. वे कह रहे हैं कि मोदी की सत्ताधीशी में भी महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, शहीद-ए-आजम भगत सिंह और बाबासाहब डाॅ. भीमराव अंबेडकर जैसे नेताओं के कद की ऊंचाई इतनी ज्यादा है कि ऐसी किसी भी उछल-कूद के लिए उसे छू पाना मुमकिन नहीं है. कम से कम इनमें से किसी ने भी सावरकर की तरह अंग्रेजों से माफी मांगकर वीर होने का खिताब हासिल नहीं किया.
ये कांग्रेसी कह रहे हैं कि 1911 में अंग्रेजों ने सावरकर को पकड़कर 50 साल की कैद की सजा सुनाई और अंडमान की जेल में डाल दिया तो दो ही साल में उनके कसबल ढीले पड़ गये. फिर तो 1913 में माफीनामा लिख दिया. ऐसे में अच्छी बात है कि उद्धव पंडित नेहरू को उनके जैसा ‘वीर’ नहीं कहते क्योंकि नेहरू ने नौ बार जेलयात्राएं की और एक बार भी माफीनामा नहीं लिखा. इसके उलट जेलों में रहते हुए उन्होंने कई उच्च कोटि की पुस्तकें लिखीं और कमजोर से कमजोर क्षणों में भी देश की जनता का अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने का हौसला तोड़ने वाला कोई काम नहीं किया.
वे यह भी याद दिला रहे हैं कि वह सावरकर ही थे, जिन्होंने 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण के दौरान यह घोषणा कर देश के विभाजन की पृष्ठभूमि भी तैयार की कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं. मुस्लिम लीग ने इसके तीन साल बाद 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया.
लेकिन शिवसेना कांग्रेसियों के यों लाल-पीले होने में भी अपने नेता उद्धव की जीत ही देख रही है. यह कहकर कि अंततः उद्धव ने विधानसभा चुनाव का एजेंडा सेट करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन आरंभ कर दिया है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)