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Sunday, 22 December, 2024
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चंद्रशेखर आज़ाद या सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की पुलिस द्वारा हर गिरफ्तारी कानून का उल्लंघन है

सभी नागरिकों को जिसमें दिल्ली के शाहीन बाग में शामिल महिलाएं भी है, उन्हें राइट टू प्रोटेस्ट का अधिकार है जिसमें सरकार का विरोध भी शामिल है. पुलिस उन्हें बंद नहीं कर सकती है.

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भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद एक परखे हुए नेता नहीं है. वो दलित अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं और भाजपा के हिंदुत्व नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं. पर हर विरोध प्रदर्शन में वो अपनी पहचान की छाप छोड़ते हैं, चाहे ये विरोध प्रदर्शन दूसरों द्वारा आयोजित हो और वे कानून स्थापित करने वाली एजेंसियों को भी अपनी ओर खींचते हैं. आज़ाद को कई बार मनमाने तरीके से हिरासत में लिया गया है जिसने उनकी छवि को अपने प्रशंसकों के बीच पुख्ता ही किया है.

सरकारें, चाहे उत्तर प्रदेश की योगी सरकार हो या केंद्र की नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली सरकार, सभी उनसे डरे हुए लगते हैं. नहीं तो आखिर क्यों उनको बार बार हिरासत में लिया जाता है या फिर राज्य में घुसने से अजीबो-गरीब तर्कों से रोका जाता है कि उनके प्रदर्शन में आने से शांति भंग हो सकती है.

तेलंगाना पुलिस का तर्क था कि जिस नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ रैली को चंद्रशेखर आज़ाद संबोधित करने वाले थे उसके पास इसकी अनुमति नहीं थी. दिसंबर में भी भीम आर्मी प्रमुख को गिरफ्तार किया गया था और उनको एक महीना जेल की सज़ा काटनी पड़ी थी. वे दिल्ली के जामा मस्जिद से जंतर मंतर तक सीएए के खिलाफ मार्च निकालना चाह रहे थे. पर आज़ाद अकेले नहीं हैं. कई अन्य की भी मनमाने ढंग से धड़पकड़ की गई और मकसद बस ये था कि वे लोग सीएए विरोधी मार्च में भाग न लें. हालांकि भाजपा के सदस्यों और उनके समर्थकों के सीएए के समर्थन में निकाली गई रैलियों में ऐसी कोई कार्यवाई नहीं की गई. जबकि इनमें भी भड़काऊ भाषण दिए गये और धमकियां दी गईं.

क्या कहता है कानून

भारतीय कानून सरकार के मनमाने फैसले के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों के पक्ष में है. किसी को इस कारण से हिरासत में लेना इसमें शामिल नहीं है.

बार बार आज़ाद कि हिरासत दिखाती है कि पुलिस प्रशासन इस बात को नज़रअंदाज़ कर रही है कि संविधान में अन्याय के खिलाफ लड़ाई का अधिकार है. चाहे ये लड़ाई तथ्यों पर आधारित हो या महसूस होने के आधार पर लड़ी जा रही हो. हम भारतीय, सत्तासीन समेत सभी संविधान का उत्सव हर साल मनाते है. नरेंद्र मोदी सरकार की सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को रोकने और उन्हें पीछे खदेड़ने की चाहत में ऐसा लगता है कि सरकार अपने ही पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के कथन को भूल गई है.


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हर नागरिक, शाहीन बाग की औरतों समेत सभी, जिन्हें मंत्री और पत्रकार ‘देश विरोधी’ का तमगा दे रहे हैं- के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार है जोकि संविधान की धारा 19(1) (बी) के तहत मिला हुआ है. सरकार के खिलाफ नारे लगाने में भी कोई अपराध नहीं है और उसे देशद्रोह नहीं कहा जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट का मनमानी गिरफ्तारी पर रुख

सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में इस बात को दोहराया है कि पुलिस किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी का हनन नहीं कर सकती है जो उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त है. जिसमें लिखा हुआ है, ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा.’

मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया जो एक नागरिक की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है, सही, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होनी चाहिए और मनमानी, काल्पनिक या दमनकारी नहीं होनी चाहिए और यह प्रक्रिया जो उक्त परीक्षण को संतुष्ट नहीं करती है वह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा.’

लेकिन पुलिस द्वारा उठाए गए कदम जिसमें सीएए विरोधी प्रदर्शन भी शामिल है …दिखाता है कि कई राज्यों की पुलिस बलों ने स्थापित कानून को नज़रअंदाज़ किया है.

पुलिस की ज्यादती पर अंकुश लगाने के लिए न्यायालयों से पर्याप्त और मजबूत प्रतिक्रिया का अभाव चिंताजनक है.

प्रदर्शन करने के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट

फरवरी 2012 में सुप्रीम कोर्ट की बीएस चौहान और स्वतंतर कुमार की बेंच ने प्रदर्शनकारियों पर आधीरात को लिए गए एक्शन पर जिसमें रामदेव भी शामिल थे…. कहा था, ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी, इकट्ठा होने के अधिकार, धरना और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने को लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल तत्व बताया. लोकतांत्रिक देश में हमारे तरह के लोगों के पास सरकार द्वारा लिए गए कदमों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने का अधिकार है और यहां तक सरकार के कदम जो सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों से जुड़ें हों उसपर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं.’

और हां अनुमान लगाइए किसने इस फैसले की सराहना की थी? अरुण जेटली.

एक कॉलम जिसकी हेडलाइन ‘क्या स्टेट नागरिकों के राइट टू प्रोटेस्ट को बाधित कर सकती है’ में जो कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वकील से नेता बने जेटली ने लिखा था, ‘सिर्फ प्रतिबंधों के अधीन शांतिपूर्वक विरोध का अधिकार अब फ्री स्पीच और इकट्ठा करने के अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है. इसके अतिरिक्त, यह राज्य का एक सकारात्मक दायित्व है कि वह इस अधिकार को प्रभावी बनाए.’

सीएए विरोधी और यहां तक की सीएए के पक्ष के प्रदर्शनकारियों को अगर कहीं से प्रेरणा लेनी की जरूरत है तो वो भाजपा के नेता के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आए बयान को ही देख सकते हैं.

नागरिकों को सिर्फ इसलिए उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है कि स्टेट ने यह निर्णय लिया हो कि राइट टू प्रोटेस्ट प्रतिबंधित हो. हालांकि, यह (निर्णय) एक अत्यधिक संदिग्ध प्रस्ताव को दबाकर मौलिक अधिकार की नींव को हिला देता है कि एक बार विरोध करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, तो विरोध करने वाले को पुलिस के जुल्म के लिए योगदान की लापरवाही के जोखिम को अस्वीकार करना चाहिए या भागना चाहिए.’


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अरुण जेटली ने कोर्ट की नागरिकों के राइट टू प्रोटेस्ट पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में खामियां निकाली. यह (निर्णय) प्रदर्शनकारियों पर हर वैध आदेश का पालन करने के लिए एक दायित्व लागू करता है. जाहिर है, इस मामले में न तो धारा 144 लागू (रामदेव के नेतृत्व वाला विरोध) और न ही अनुमति वापस लेना या ज़बरन बेदखली का तरीका विधिसम्मत था. प्रदर्शनकारियों को ऐसा आदेश क्यों स्वीकार करना चाहिए था? फिर अंशदायी लापरवाही का सिद्धांत एक ऐसे रक्षक पर कैसे लगाया जा सकता है जो विरोध करने के अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग कर रहा था? अंशदायी लापरवाही की अवधारणा का जन्म अत्याचार के कानून से हुआ है. जेटली ने लिखा है कि इसका इस्तेमाल किसी मौलिक अधिकार की कवायद को कम करने के लिए नहीं किया जा सकता है.

कोर्ट क्या कर सकती है

हाल के दिनों में भारतीय न्यायालयों ने दिखाया है कि वो नागरिकों के राइट टू प्रोटेस्ट से जुड़े मसलों को नज़रअंदाज़ कर रही है और इसमें बढ़ावा हो रहा है. काफी बार तो सरकार द्वारा किए गए दावों से सहमति रखकर. ये बेहद ज़रूरी है कि कोर्ट ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के अधिकारों पर ज्यादा गंभीर हो, भले ही विरोध प्रदर्शन करने का कारण त्रुटिपूर्ण लगता हो या उसपर प्रश्न खड़े हो रहे हो.

जब बात नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को बचाने की हो तो कोई भी अगर और मगर की संभावना नहीं हो सकती है. आदर्श तौर पर ऐसे मामले में न्याय की धुरी नागरिकों की तरफ मुड़ी होनी चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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