ऐसा अमूमन होता तो नहीं है कि कोई मुख्यमंत्री किसी दूसरे राज्य के मंत्रियों के प्रस्तावित दौरे को सार्वजनिक तौर पर अस्वीकार कर दे. लेकिन सीएम ने इसे ‘अनुचित’ पाया और अपने मुख्य सचिव को पड़ोसी राज्य तक यह संदेश पहुंचाने का निर्देश दे डाला.
आखिर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का क्या हुआ! यह थोड़ा विचित्र इसलिए भी लगता है क्योंकि पड़ोसी राज्य के मंत्री और मुख्यमंत्री एक ही दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और सहयोगी बालासाहेबंची शिवसेना के हैं. कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच सीमा विवाद में यह महज एक नया घटनाक्रम ही है.
सीएम बसवराज बोम्मई ने पिछले माह काफी आक्रामक अंदाज में कहा, ‘हम कर्नाटक की सीमाओं की रक्षा करने में सक्षम हैं.’ उनका लहजा कुछ उसी तरह फौलादी था जैसा यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की का अपने देशवासियों को संबोधित करते समय होता है.
कर्नाटक के करीब 800 सीमावर्ती गांवों को लेकर दोनों राज्यों के बीच दशकों से जारी विवाद एक बेहद खराब मोड़ पर पहुंच चुका है. दोनों राज्यों ने इस मामले को लेकर अपनी-अपनी बांहें चढ़ा रखी हैं और दोनों सरकारें एक-दूसरे के राज्य में भाषाई समूहों—कन्नड़ और मराठी भाषियों—को पेंशन और अन्य प्रोत्साहनों की घोषणा कर रही हैं.
इस बीच, केंद्र ने इस मामले में मूकदर्शक बने रहने का विकल्प अपनाया है. वैसे तो तर्क दिया जा सकता है कि दोनों राज्यों में सत्ताधारी पार्टियां तनातनी का सिर्फ दिखावा ही कर रही हैं, और उनके बयानों में कोई खास गंभीरता नहीं है. महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस ने कर्नाटक के मराठी भाषी क्षेत्रों को महाराष्ट्र में शामिल करने की मांग करते हुए कहा है कि दोनों राज्यों के बीच कोई दुश्मनी नहीं है और यह एक कानूनी मुद्दा है जिसे सुप्रीम कोर्ट में उठाया जा रहा है.
वास्तविकता चाहे जो भी हो, लेकिन इस मुद्दे पर सियासी पारा बढ़ाने के नतीजे अनपेक्षित हो सकते हैं. हो सकता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव अभियानों में इस कदर व्यस्त रहे हों कि इस पर ध्यान ही न दे पाएं हों कि इस राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई का अंजाम क्या हो सकता है. या, फिर हो सकता है, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए इन दोनों राज्यों के बीच विवाद में फसना राजनीतिक तौर पर असजह करने वाला हो, क्योंकि दोनों जगह उसकी सत्ता में सीधी भागीदारी है.
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केंद्र-राज्य, अंतर-राज्यीय विवादों की लंबी फेहरिस्त
हालांकि, केंद्र खुद को ऐसे किसी भी सीमा विवादों में उलझाने का इच्छुक नहीं है, लेकिन यह रुख खुद उसके लिए घातक साबित हो सकता है. एक ऐसी पार्टी जो भारत निर्माण में सरदार पटेल के योगदान को लगातार दोहराती रहती है, उसका ऐसे मसलों से अपना मुंह मोड़ना उचित नहीं लगता, खासकर तब जब सीमा विवाद हिंसक संघर्षों की वजह बन रहे हों.
करीब एक पखवाड़े पहले असम-मेघालय सीमा पर पुलिस फायरिंग में छह लोग मारे गए थे. इसमें मेघालय के पांच ग्रामीण और असम के वन रक्षक शामिल थे. इस घटना के बाद सीमा के दोनों ओर तनाव काफी बढ़ गया. मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने दिल्ली पहुंचे और ‘असम पुलिस की तरफ से’ गोलीबारी की केंद्रीय जांच कराने की मांग उठाई. असम में सत्तासीन भाजपा मेघालय में भी संगमा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का हिस्सा है.
जुलाई 2021 में, सीमा पर भड़की हिंसा के बाद मिजोरम पुलिस की तरफ से गोलीबारी में असम के पांच पुलिसकर्मी मारे गए. इससे दोनों राज्यों के बीच लंबे समय तक तनातनी बनी रही, यहां तक कि पीएम मोदी और अमित शाह ने भी हफ्तों इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया देने से परहेज ही किया.
दोनों पक्षों के बीच विवाद इतना ज्यादा बढ़ गया कि मिजोरम पुलिस ने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ ही एफआईआर दर्ज कर ली. हालांकि, बाद में इसे वापस ले लिया गया. असम-मिजोरम सीमा पर झड़प ऐसे समय पर हुई थी जब अंतर-राज्य सीमा विवादों पर एक बैठक के बाद अमित शाह को शिलांग से लौटे बमुश्किल दो दिन ही हुए थे.
असम का अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड के साथ भी सीमा विवाद है. असम के मुख्यमंत्री सरमा इन विवादों को सुलझाने के लिए इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ पूरी सक्रियता के साथ बातचीत में लगे हैं. लेकिन इन सीमाओं का हर पहलू काफी जटिल होने और क्षेत्रीय जनभावनाएं भी इनसे काफी मजबूती से जुड़ी होने के देखते हुए जरूरी है कि केंद्र सरकार बस यहां-वहां बयान देने के बजाये इसे सुलझाने के लिए अधिक सक्रिय भूमिका निभाए. न कि सारा मसला सुलझाने की जिम्मेदारी पूरी तरह संघर्षरत गुटों पर छोड़ दे.
पूर्वोत्तर राज्यों पर शासन करने वाले क्षेत्रीय दलों के साथ एक लचर गठबंधन बनाकर भाजपा ने पूर्वोत्तर से कांग्रेस का एक तरह से सफाया ही कर दिया है. ऐसे में, जब भी ये सीमा विवाद किसी बुरे मोड़ पर पहुंचते हैं तो केंद्र में सत्ताधारी पार्टी खुद को दुविधा की स्थिति में पाती है.
बात सिर्फ सीमा विवाद तक ही सीमित नहीं है. अक्टूबर में उत्तराखंड पुलिस ने यूपी के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के एक कथित अभियान के दौरान पहाड़ी राज्य में एक महिला की मौत के बाद यूपी पुलिस के एक दर्जन अनाम अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी.
उत्तराखंड के एक वरिष्ठ अधिकारी—अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह)—ने सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाया कि यूपी पुलिस ‘निर्दोष लोगों’ को गिरफ्तार करके ‘मामले को सुलझाने’ का दावा कर रही है. यूपी पुलिस ने उनकी टिप्पणी पर पलटवार करते हुए इसे ‘गैर जिम्मेदाराना’ करार दिया.
यहां भी, भाजपा ही उत्तराखंड और यूपी दोनों राज्यों में सत्ताधारी पार्टी है. केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के नाते ‘डबल इंजन’ विकास का वादा करने वाली किसी पार्टी के लिए अपने ही शासन वाले दो राज्यों के बीच जारी झगड़े, उसके वादों और दावों को हवा में उड़ा देने के लिए काफी हैं.
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रिश्तों में खटास के बीच मोदी ने साध रखी है चुप्पी
भाजपा-नीत सरकारों के बीच परस्पर विवादों से जुड़े इन उदाहरणों को गिनाने के पीछे मकसद अंतर-राज्यीय स्तर पर और केंद्र तथा गैर-भाजपा शासित राज्यों के बीच असंगति—और अक्सर होने वाले झगड़ों—के एक बड़े मुद्दे को सामने रखना है. चंडीगढ़ पर अपने-अपने हक को लेकर पंजाब और हरियाणा की दशकों पुरानी लड़ाई फिर सतह पर आ गई है, और यहां तक कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने भी पंजाब में 400 हिंदी भाषी क्षेत्रों को हरियाणा में शामिल करने की मांग उठा दी है.
कम से कम दस राज्यों ने सीबीआई को अपने यहां मामलों की जांच करने देने से जुड़ी सामान्य सहमित वापस ले ली है. एक राज्य विधानसभा ने तो केंद्रीय जांच एजेंसियों के खिलाफ एक प्रस्ताव भी पारित कर दिया है. जिन राज्यों में गैर-एनडीए सरकारें हैं, वहां उनकी राज्यपालों के साथ ठनी हुई है.
कई बार मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री की बुलाई बैठकों से दूरी बना लेना पसंद करते हैं. प्रधानमंत्री की पिछली चार तेलंगाना यात्राओं के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव एयरपोर्ट पर उनकी अगवानी के लिए मौजूद नहीं रहे. ऐसे कई और उदाहरण सामने हैं जिनसे केंद्र और राज्यों के बीच टकराव के संकेत मिलते हैं. इन मुद्दों पर बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है.
सबसे अहम मुद्दा यह है कि आखिर पीएम मोदी इसे लेकर बहुत गंभीर क्यों नहीं दिखते? केंद्र-राज्य और राज्यों के बीच परस्पर समन्वय और सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से गठित इंटर-स्टेट काउंसिल की बैठक पिछले छह सालों से नहीं हुई है. जबकि इसे साल में तीन बार मिलना चाहिए.
छह माह पहले पीएम की अध्यक्षता वाली परिषद का पुनर्गठन किया गया था लेकिन अभी तक इसकी कोई बैठक नहीं हुई है. केंद्र-राज्य संबंधों में आई खटास आमतौर पर राजनीतिक रैलियों में एक-दूसरे पर किए जाने वाले हमलों से साफ जाहिर होती है. राज्यों के बीच जल बंटवारे के विवाद लगातार बढ़ रहे हैं, न्यायाधिकरण तंत्र इन्हें सुलझाने में नाकाम रहा है और केंद्र ने भी इस पर अपना मुंह फेर रखा है.
प्रधानमंत्री मोदी अक्सर इस बात को दोहराते हैं कि कैसे सरदार पटेल ने तमाम रियासतों का विलय करके पूरे भारत को एकजुट किया था. हाल ही में एक चुनावी रैली के दौरान उन्होंने कहा था कि कश्मीर समस्या का ‘समाधान’ निकालकर वह सरदार पटेल के नक्शेकदम पर ही चल रहे हैं.
तो, प्रधानमंत्री उस समय चुप रहना क्यों पसंद करते हैं जब राज्य भाषाई समूहों को लेकर क्षेत्रीय झगड़ों में उलझते हैं, उनके पुलिस बल सीमा विवाद पर एक-दूसरे पर गोलियां चलाते हैं और सहकारी संघवाद की अवधारणा बिखर जाती है? वह इंटर-स्टेट काउंसिल तंत्र पर इतने उदासीन क्यों नजर आते हैं?
हो सकता है, उन्हें लगता हो कि इसमें अधिकांश मामले राजनीतिक विचारों से प्रेरित हैं. केंद्र, उसकी एजेंसियों और संस्थानों के खिलाफ विपक्षी दलों के लगातार हमलों के पीछे राजनीतिक एजेंडा होने की राय बनाने की वजहें भी हो सकती हैं. लेकिन सिर्फ इसलिए केंद्र-राज्य संबंधों को बिगड़ने देना कतई उचित नहीं माना जा सकता. यह अक्सर उनकी तरफ से सामने रखे जाने वाले राष्ट्र निर्माण के लक्ष्यों के अनुरूप नहीं है.
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पीएम मोदी को विभिन्न राज्यों के बीच पानी, सीमा जैसे तमाम तरह के विवाद इतने पेचीदा लगते हैं कि वे खुद को इसमें उलझाना नहीं चाहते? बहरहाल, रियासतों के भारत संघ में विलय का कार्य बहुत ही अधिक जटिल था. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि पटेल के नक्शेकदम पर चलने की बात करना तो आसान है, उस पर अमल करना नहीं.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(अनुवाद: रावी द्विवेदी)
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