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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी का आत्म-निर्भर भारत आइडिया वही है जो गांधी का था- आधुनिकीकरण हो, लेकिन पश्चिम पर निर्भरता नहीं

मोदी का आत्म-निर्भर भारत आइडिया वही है जो गांधी का था- आधुनिकीकरण हो, लेकिन पश्चिम पर निर्भरता नहीं

स्वदेशी न तो अलगाव है, न ही इसका ये अर्थ निकाला जाना चाहिए. ये स्थानीयकरण और वैश्वीकरण के बीच भारत का पुल है.

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प्रधानमंत्री नरेंद मोदी का ‘आत्म-निर्भर भारत’ पर ज़ोर, दूसरे शब्दों में स्वदेशी अर्थशास्त्र ही है.

भारत के प्रसंग में, आत्म-निर्भरता का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अलगाव नहीं होना चाहिए. भारत को गंभीरता से अपने रीजन और दुनिया से जुड़ना होगा लेकिन साथ ही गवर्नेंस सिस्टम को सरल व कारगर बनाकर, केवल बदलावों और घोषणाओं से बहुत आगे निकलना होगा. स्वदेशी ना तो अलगाव है, ना ही इसका ये अर्थ निकालना चाहिए. महात्मा गांधी का स्वदेशी आंदोलन और आत्म-निर्भरता एक ही सिक्के के दो पहलू थे, और एक हो गई आज की दुनिया में भी सार्थक हैं.

गांधी के हिंद स्वराज में ‘भारत के पूरे आर्थिक (और राजनीतिक) मॉडल’ को विस्तार से समझाया गया है. गांधी के लिए स्वदेशी में भारत के उस औपनिवेषिक शोषण को ख़ारिज किया गया था, जिससे ब्रिटिश ख़ज़ाने भरते थे और नतीजे में भारत के ग़रीब और कुचले हुए लोग घाटे में रहते थे. मूर्खतापूर्ण उपभोक्तावाद की कभी ना मिटने वाली भूख को शांत करने के लिए, असीमित औद्योगिक विकास पर आधारित पूंजीवाद, पश्चिमी आर्थिक मॉडल में, खुले बाज़ार का आदर्श बन गया, जिसकी गांधी ने हिंद स्वराज में आलोचना की. ब्रिटिश औपनिवेशिक मॉडल अमेरिका तक पहुंचा दिया गया, और आर्थिक विकास के रामबाण के रूप में प्रचारित किया गया, जिसमें एक अपरिहार्य कारगर साधन के तौर पर, द्वंदात्मक भौतिकवाद के मुक़ाबले, तकनीकी भौतिकवाद को पेश किया गया लेकिन ये वो नहीं था, और इसी कारण हमें फिर से स्वदेशी अर्थशास्त्र की आवश्यकता है.


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मध्यम मार्ग

गांधी के हिंद स्वराज की तरह स्वदेशी मॉडल, टेक्नोलॉजी के ख़िलाफ नहीं था लेकिन इसमें आर्थिक विकास के पश्चिम उन्मुख मॉडल से जुड़े ताम-झाम के बे-लगाम आयात का तिरस्कार किया गया था. इसलिए, ‘आधुनिकीकरण चाहिए, पश्चिमीकरण नहीं’ 1990 के दशक का एक आकर्षक नारा बन गया, जब पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह, भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगे पांच दशक पुराने समाजवाद के जाले झाड़ रहे थे.

राव-सिंह के आर्थिक उदारीकरण के आलोचकों ने बड़ी मज़बूती से तर्क रखे, कि भारत का वही हश्र होगा जो पेरेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त के बाद पूर्व सोवियत संघ का हुआ था, हालांकि दोनों धारणाओं में कोई समानताएं नहीं थीं. नरसिम्हा राव ने विश्व आर्थिक मंच पर दावोस में दिए गए अपने भाषण में जिस ‘मध्यम मार्ग’ का ज़िक्र किया (जो मूल रूप से नेहरूवादी विचार था), उस नीति के समर्थकों को स्वदेशी विरोधियों ने चिल्ला-चिल्ला कर चुप करा दिया. लेकिन किसी भी पक्ष के पास आर्थिक विकास के किसी ऐसे मॉडल की स्पष्ट कल्पना नहीं थी, जो राष्ट्रीय ज़रूरतों और अंतर्राष्ट्रीय विवशताओं के बीच संतुलन बिठा सके.

खुले बाज़ार की इकॉनॉमी का विरोध तब भी जारी रहा, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वदेशी को अंत्योदय के रूप में बढ़ावा देने का प्रयास किया, लेकिन स्वदेशी जागरण मंच के समर्थकों ने उसे मंज़ूर नहीं किया, और बड़े पैमाने पर एफडीआई और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार शुरू कर दिया.

लोकल के लिए वोकल

बाज़ार अर्थव्यवस्था में चीन का प्रवेश और उसका कामयाबी के साथ दुनिया का मैन्युफेक्चरिंग हब बन जाना, और साथ ही महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) ने मिलकर, विश्व व्यापार की सूरत ही बदल दी. अगर कोरोनावायरस वैश्विक महामारी का उदय वुहान से ना होता, तो विश्व व्यापार का संतुलन निश्चित ही चीन के पक्ष में हो गया होता, और अमेरिका व चीन का व्यापार युद्ध समाप्त हो जाता.

मौजूदा आर्थिक संकट 1991 या 2008-2009 की आर्थिक मंदियों की अपेक्षा, कहीं बड़े पैमाने का है. ‘आत्मनिर्भर भारत’ के पांच खम्भे, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी वाकपटुता से गिनाया- इकॉनॉमी, इनफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोल़जी, एक ऊर्जावान आबादी और मांग- क्या ‘भारत के गिरते आर्थिक ढांचे को संभाल पाएंगे?

कोविड के बाद की दुनिया उतनी ही डरावनी है, जितना सोवियत संघ के पतन के बाद थी. बहु-पक्षीय और रीजनल व्यापार संस्थाएं नकाम हो रही हैं, ठीक वैसे ही जैसे संरक्षणवाद, ग़ैर-टैरिफ बाधाएं, और स्वचालित आर्थिक मॉडल्स कहीं पीछे हो जा रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ‘अमेरिका को फिर से महान बनाने’ का संकल्प, जिससे अमेरिका फिर से जीतना शुरू कर दे…ऐसी जीत जैसी पहले कभी न हुई हो…’ वैसा ही था जैसा कि ‘अमेरिकी बनिए, अमेरिकी ख़रीदिए’ का ‘स्वदेशी’ नारा था.


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लोकल के लिए मुखर होना अस्ल मायनों में, भारत की उद्यमिता की आंतरिक शक्ति को पहचान कर उसे बढ़ावा देना है, जो ज़मीन, मज़दूर, पैसे और क़ानून के उलझाव में फंसी, उनसे मुक्त होने के इंतज़ार में है, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा. स्वदेशी की फिर से व्याख्या होनी चाहिए, सुदृढ़ स्थानीयकरण और अपरिहार्य वैश्वीकरण के बीच, एक ऐसे पुल के रूप में, जो एक दूसरे के पूरक हों, विरोधी नहीं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

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