भारत से हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और पारासीटामॉल दवाओं की मांग करते हुए ब्राज़ील के राष्ट्रपति जाइरो बोल्सोनारो ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजे अपने पत्र में रामायण के उस प्रसंग का जिक्र किया है, जिसमें लक्ष्मण की जान बचाने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी लेकर आए थे. ऐसा लगता है कि बोल्सोनारो के दफ्तर में कोई पक्का हनुमान भक्त बैठा है जिसने यह व्यवस्था की कि वह पत्र ठीक हनुमान जयंती के दिन ही यहां पहुंचे.
बहरहाल, आज जब हम यह अनुमान लगा रहे हैं कि 21 दिनों के लॉकडाउन को और आगे बढ़ाया जाएगा (जो हम नहीं चाहते), या पूरी तरह खत्म किया जाएगा (जो भगवान न करे कि हो), या इसमें व्यवस्थित तरीके से धीरे-धीरे ढील दी जाएगी, तब हमें ऐसी और कथाएं भी याद आ रही हैं. हम चाहेंगे कि इस तीसरे विकल्प को चुना जाए, और इसे क्यों चुना जाए इस पर बेशक बजरंगबली की थोड़ी सहायता से चर्चा करेंगे. हमारे जितने भगवान हैं वे दयालु ही नहीं, क्षमाशील भी हैं. और उनमें हास्यबोध भी है, खासकर उनमें तो है ही जिनका नाम बोल्सोनारो ने लिया है.
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जरा संजीवनी बूटी वाले प्रसंग को याद कीजिए. रावण के योद्धा पुत्र मेघनाद (जिसे इंद्रजीत भी कहा जाता है) के बाण (जिसकी तुलना आज के किसी मिसाइल से की जाती है) से मूर्च्छित लक्ष्मण अचेत पड़े हैं, लंका के सबसे योग्य चिकित्सक सुषेण कहते हैं कि हिमालय पर्वत पर मिलने वाली चमत्कारी संजीवनी बूटी ही लक्ष्मण को बचा सकती है, जामवंत कहते हैं कि केवल हनुमान में ही वह शक्ति है कि वे वह बूटी ला सकें. हम जानते हैं कि इसके बाद क्या हुआ. बूटी को न पहचान पाने के कारण हनुमान पूरा द्रोणगिरि पर्वत ही उठाकर ले आते हैं. हनुमान से जुड़ी कथाओं में यह प्रसंग सबसे लोकप्रिय है. सुषेण तुरंत बूटी उखाड़कर लक्ष्मण का उपचार कर देते हैं.
अब जरा देखिए कि यह कथा आज की परिस्थिति में कितनी मौजूं है. आइसीएमआर ने भारत में कोरोना वायरस के फैलाव पर फरवरी के मध्य से नज़र रखना शुरू किया. पहले केवल उन लोगों की जांच की गई जिनमें इसके लक्षण का संदेह दिखा, या जो विदेश से आए थे, या इन लोगों के संपर्क में आए. इन सबकी संख्या बहुत छोटी थी. बड़ी आबादी वाले देश के लिहाज से देखें तो प्रति दस लाख आबादी पर जांच करवाने वालों का अनुपात सबसे कम था. आइसीएमआर के विशेषज्ञों ने भारत में महामारी विज्ञान के सबसे पुराने, आजमाए और मजबूत तरीके को अपनाया, जिसे निगरानी का प्रहरीनुमा तरीका कहा जा सकता है.
इसमें उन रोगियों के नमूने लिये गए, जो ‘सारी’ (सांस के गंभीर संक्रमण) या गंभीर निमोनिया के कारण 50 बड़े अस्पतालों के आइसीयू में भर्ती थे. दो सप्ताह में जिन प्रथम 826 मामलों की जांच की गई उनमें कोविड-19 के संक्रमण के कोई लक्षण नहीं पाए गए. इसे इस बात का प्रमाण माना गया कि यह बीमारी अभी पहले चरण (आयातित) में है या दूसरे चरण (संपर्क के कारण स्थानीय लोगों के संक्रमण) में है.
इसके बाद के कुछ दिनों में और ज्यादा जांच की गई. 19 मार्च को दो पॉज़िटिव मामले सामने आए. 965 लोगों की जांच में ये केवल दो मामले थे, सबसे पहले दो मामले. अब यह तो मुझसे किसी ने कहा नहीं है, मगर सिस्टम को इतने समय से जानने के कारण मैं अनुमान ही लगा रहा हूं कि यह खतरे की घंटी थी. उसी दिन, देश के सभी अस्पतालों में भर्ती ‘सारी’ के सभी मरीजों की जांच शुरू कर दी गई. इसलिए, पहले पांच सप्ताह में अगर केवल 965 की जांच हुई थी, तो 2 अप्रैल तक दो सप्ताह में 4,946 की जांच की गई. आइसीएमआर ने बृहस्पतिवार को अपनी जो महत्वपूर्ण शोध रिपोर्ट ‘इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ (आइजेएमआर) में जारी की है उसमें कहा गया है कि ‘सारी’ के 5,911 मरीजों में से 104 में कोरोना का संक्रमण पाया गया है. यह केवल 1.8 प्रतिशत है मगर नगण्य नहीं है. इसलिए हम कह सकते हैं कि ये संकेत 21-23 मार्च तक सामने आ गए थे. इसलिए लॉकडाउन की घोषणा का समय, उसकी जरूरत और दबाव स्पष्ट था.
अब सटीक, सीधे उपचार की खोज करने का समय नहीं रह गया था. यानी अब बूटी की पहचान करने का समय नहीं बचा था, अब तो पूरा पहाड़ ही उखाड़ लेने की जरूरत थी. इसके बाद क्या आप उस पहाड़ की ओट में बैठकर तीन सप्ताह तक राम-राम जपते रह सकते थे? तब तो आप लक्ष्मण की जान को ही खतरे में डाल देते. यहां लक्ष्मण यानी अपनी अर्थव्यवस्था, अपनी सबसे गरीब आबादी ही मरणासन्न हो रही थी. अब तो ऐसे ज्ञानी की जरूरत है, जो उस बूटी या उन बूटियों को खोज निकाले जिनसे उनमें जान आए और वह गतिशील हो जाए.
विश्व भर में हो रहे जो आकलन सामने आए हैं, उन्होंने भारत में हुए लॉकडाउन को महामारी के खिलाफ सबसे सख्त कदम बताया है. सबसे उल्लेखनीय है वह ग्राफिक, जिसका उपयोग ‘द एकोनोमिस्ट’ ने किया है. यह ग्राफिक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ब्लावत्नीक स्कूल ऑफ गवर्मेंट द्वारा ईजाद ‘स्ट्रिंजेंसि इंडेक्स’ (सख्ती सूचकांक) के आधार पर तैयार किया गया है. इसमें 100 प्रतिशत के अंक के साथ भारत सबसे ऊपर है और इटली भी 90 प्रतिशत के साथ शामिल है. लेकिन यह सूचकांक हमारी सीमाएं भी उजागर करता है. जीडीपी के अनुपात में वित्तीय पैकेज के प्रतिशत के मामले में भारत इस चार्ट में सबसे नीचे है.
यह बेवजह नहीं है. इस चार्ट में जिन देशों को शामिल किया गया है और जिनकी रैंकिंग की गई है उनमें भारत सबसे गरीब है. उससे कम ‘निर्धनतम’ जो देश हैं, चीन और मलेशिया, उनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े का पांच गुना ज्यादा है. इसलिए, भारत के लिए चुनौती तीन गुनी बड़ी है. यहां की आबादी ज्यादा और घनी है, इसकी स्वास्थ्य व्यवस्था साधनहीन और चरमराती हुई है. ऐसी परिस्थिति में कड़े लॉकडाउन की ही जरूरत थी. नतीजे बताते हैं कि यह कारगर रहा है. अब कोरोना के नये मामले बढ़े हैं, खासकर इसलिए कि जांच बढ़ाई गई है. लेकिन मामलों का ग्राफ गुनात्मक तो क्या ज्यामितीय गति से भी नहीं बढ़ रहा है.
कुछ तो है जो कारगर हुआ है. हमारे खून में बीसीजी टीके से लेकर क्लोरोक्विन के असर की बात हो या हमारे ‘जीन’ की, तमाम अनुमानों से ज्यादा लॉकडाउन का योगदान रहा है इस कामयाबी में. इसलिए, सहज प्रतिक्रिया यही हो सकती है कि लॉकडाउन को आगे बढ़ाया जाए. कई राज्य सरकारों ने इसकी मांग भी कर दी है. दो राज्यों ने तो इसे 30 अप्रैल तक बढ़ा भी दिया है.
लेकिन सवाल है कि क्या यह लाभदायक होगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि जीवन रक्षक दवा की जरूरत से ज्यादा खुराक के साइड इफेक्ट के कारण आपको अंततः जान न गंवानी पड़े. स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस सप्ताह जो ‘रोकथाम’ योजना घोषित की है उससे कुछ अच्छे संकेत उभरते हैं. गौर से देखने पर आप सोच सकते हैं कि राजस्थान के भीलवाड़ा का जो मॉडल है वह संजीवनी बूटी है, जिसे ज्यादा बड़े भूभाग के लिए स्थानीय परिस्थितियों और वास्तविकताओं का ध्यान रखते हुए इस्तेमाल किया जा सकता है.
इसका अर्थ यह होगा कि पूरे देश का गला दाबे बिना और उसे अधर में लटकाए बिना तमाम भीलवाड़ाओं की पहचान करके उन्हें लक्ष्मण रेखा में बांधा जाए. यह हम दिल्ली सहित कई ‘हॉटस्पॉट्स’ और ‘रोकथाम क्षेत्रों’ की घोषणा के तौर पर देख सकते हैं. इस तरह के मॉडल को अपनाया जा सकता है.
हां, यह एक सीटी बजाकर लॉकडाउन कर देने से ज्यादा कठिन और जटिल काम है. लेकिन लॉकडाउन को 21 दिन से आगे बढ़ाने के उलटे नतीजे भी निकल सकते हैं. देश में एक-एक जून का भोजन जुटाने के लिए रोज कमाने वाले दिहाड़ी मजदूरों की संख्या बहुत बड़ी है. रबी फसल की कटाई और उसका भंडारण होना है, खेतों को खरीफ फसल के लिए तैयार किया जाना है. कारखानों—दुनियाभर में प्रशंसित दवा उद्योगों—को अपना काम शुरू करना है. और, जहां भी खतरा दिखे वहां रोकथाम का मॉडल को लागू करने का विकल्प तो है ही.
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वेंटिलेटरों की कमी के कारण उन्हें ज्यादा से ज्यादा संख्या में खरीदने की मांग चल पड़ी है. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि वेंटिलेटर पर रहना कितना कठिन होता है. इस सप्ताह व्हाइट हाउस प्रेस ब्रीफिंग में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस बढ़ती मांग के जवाब में यह डरावना सवाल किया कि क्या आप मुझे यह कहने को मजबूर कर रहे हैं कि वेंटिलेटर पर रखे गए लोगों में कितने जिंदा बच पाते हैं? शायद आप यह नहीं जानना चाहेंगे. लेकिन इसके एक दिन पहले न्यू यॉर्क के गवर्नर एंड्रिव कुओमो ने भावना में आकर इस सवाल का जवाब दे दिया था कि ऐसे केवल 20 प्रतिशत लोग ही बच पाते हैं. इसलिए बेहतर यही है कि मरीजों को वेंटिलेटर पर रखने से पहले बचा लिया जाए.
हमने 138 करोड़ आबादी वाले देश, 3 लाख करोड़ डॉलर वाली अर्थव्यवस्था को वेंटिलेटर पर डाल दिया है. समय आ गया है कि हम इस रोगी को आंशिक तौर पर ही सही, खुद सांस लेने की छूट दें.
(इस लेख को अंग्रेजी में भी पढ़ा जा सकता है,यहां क्लिक करें)
Sarthak lekh…good job