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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमोदी को अर्थव्यवस्था की बागडोर हाथ में लेनी होगी ताकि 80 के दशक जैसे हालात न बने

मोदी को अर्थव्यवस्था की बागडोर हाथ में लेनी होगी ताकि 80 के दशक जैसे हालात न बने

जब आर्थिक वृद्धि थम गई तो देश को अपने क्षेत्र में और इससे बाहर भी चीन के खिलाफ एक स्वाभाविक ढाल या आर्थिक मामले में अगला चीन शायद ही माना जाएगा

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नरेंद्र मोदी ने दोबारा जो सरकार बनाई है उसके बारे में यह कतई नहीं कहा जा सकता कि वह काम नहीं कर रही है. इसके पहले 100 दिन तो जबरदस्त ऐक्शन के रहे हैं. जम्मू-कश्मीर में ऐतिहासिक कदम उठाया गया, संसद में रेकॉर्ड संख्या में कानून बनाए गए, प्रधानमंत्री ने कई शिखर बैठकें की— भूटान, जी-7, यूएई, रूस आदि-आदि. अगले दिनों में संयुक्त राष्ट्र आमसभा को संबोधित करने के बाद वे चीन के साथ बैठक करेंगे. इसके अलावा, मंत्रिमंडल में अरुण जेटली के बाद नंबर दो के ओहदे पर अमित शाह की ताजपोशी के बाद सरकार के तेवर और तरीके में जो निर्णायक परिवर्तन आया है, वह भी काबिलेगौर है.

इन सबको देखते हुए बिल क्लिंटन का यह चुनावी नारा याद आता है— ‘अरे, असली चीज़ तो अर्थव्यवस्था है !’ तो ऐसा नहीं है कि इन 100 दिनों में अर्थव्यवस्था की उपेक्षा की गई है. ऐसा दूर-दूर तक नहीं दिखता. सरकारी बैंकों का ‘मेगा मर्जर’ यानी भारी विलय किया गया है, बजट पेश किया गया, विदेशी निवेश के लिए दरवाजा और खोला गया, आर्थिक पहलू से जुड़े कुछ नए कानून बनाए गए— श्रम संबंधी दो नई संहिताएं बनाई गईं, कंपनी के दिवालिया होने से संबन्धित कानून में संशोधन किया गया. रिजर्व बैंक ने अपनी तरफ से पहल करते हुए दरों में कटौती की दो घोषणाएं की. फिर भी, वित्त मंत्री को छोड़ बाकी केंद्र सरकार व्यापक आर्थिक नीति से संबन्धित मसलों से कटी हुई दिखी. जब अर्थव्यवस्था बढ़ती बेरोजगारी, कृषि संकट, मैनुफैक्चरिंग में गतिरोध और निर्यात में गिरावट से परेशान है, तब इस तरह की चीज़ समझ से परे है.


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क्लिंटन के पुराने नारे ने जाहिर-सी बात को दोहराने के सिवाय कुछ नहीं किया था. लेकिन कभी-कभी, जैसी कि आज स्थिति है उसमें जाहिर बात को दोहराना भी जरूरी हो जाता है. खासकर तब जब मोदी के पिछले आर्थिक कदमों की तरह आज के कदमों के लिए भी सरकारी पैसे का खर्च जरूरी हो— मसलन किसानों के बीच पैसे बांटना, सरकारी कोश से स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम चलाना, आदि. जब आर्थिक सुस्ती के कारण लगातार दूसरे साल टैक्स से हासिल होने वाले राजस्व को लेकर अनुमान गड़बड़ा रहे हों, तब इस तरह के और दूसरे कार्यक्रमों के लिए पैसा मिल पाना मुश्किल ही है.

आर्थिक मोर्चे पर कमजोरी के बड़े नतीजे हो सकते हैं. बदलती विश्व व्यवस्था में, जिसमें विशालकाय राज्यतंत्र निरंकुश सत्ता चाहता है, किसी भी देश का बाहरी दबदबा सीधे इसकी रणनीतिक छवि और इसके बाज़ार से उभरने वाली संभावनाओं से तय होता है. जब आर्थिक वृद्धि थम गई तो देश को अपने क्षेत्र में और इससे बाहर भी चीन के खिलाफ स्वाभाविक ढाल या आर्थिक मामले में अगला चीन शायद ही माना जाएगा. याद रहे कि अमेरिका ने राष्ट्रपति बुश-2 के जमाने में परमाणु संधि से शुरुआत करके भारत से दोबारा संबंध इसी धारणा का साथ बनाया था.


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अमेरिका अब अगर फैसला करता है कि भारत ‘बहुत ज्यादा बिक चुका है’, जैसा कि वाशिंगटन में कुछ प्रेक्षक कहने लगे हैं, तो इसकी कूटनीतिक कीमत देनी होगी. भारत को तब आर्थिक प्रतिबंधों के दौर से छुटकारा शायद नहीं मिलेगा, और दूसरे देश कश्मीर मसले पर पाकिस्तान के विरोध के कारण भारत की बात पर सीधे यकीन नहीं करेंगे. इस बीच सेनाओं को घाटा उठाना पड़ेगा क्योंकि पनडुब्बियां, मारक युद्धपोतों को खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे जबकि चीनी नौसेना तेजी से मजबूत होती जाएगी और हिन्द महासागर में फैलती जाएगी. यह एक सामरिक सहयोगी के तौर पर भारत की हैसियत को कमजोर कर देगा.

इस सबके ऊपर, अगर हमारे व्यवसायी शुल्कों की सुरक्षा की तलाश में एक राष्ट्रवादी सरकार पर दबाव डालकर उसे ‘आरसीईपी’ (रीजनल कम्प्रिहेंसिव एकोनोमिक पार्टनरशिप) नामक मेगा व्यापार समझौते से अलग कर देते हैं तो भारत विश्व अर्थव्यवस्था के सबसे गतिशील पहल की ओर से मुंह फेर लेगा. वैसे, सरकार ने यह तय कर लिया लगता है कि ‘मेक इन इंडिया’ आयात का विकल्प देने के लिए ही काम करेगा, जिसका अर्थ है शुल्कों में वृद्धि. विश्व व्यापार एवं आर्थिक कामकाज के, और भारत की भी नीति-निर्माण प्रक्रिया के इतिहास से यही जाहिर होता है इस तरह की रणनीति दीर्घकालिक लिहाज से कारगर नहीं होती.


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यह सब इसी बात पर ज़ोर देता है कि प्रधानमंत्री समेत सरकार की सभी प्रमुख हस्तियां मिलकर सीधी कार्रवाई करें ताकि मौजूदा गिरावट 1980 के दशक वाली वृद्धिदर में न तब्दील हो जाए. खासकर मोदी को व्यापक आर्थिक नीति के मामले में अपनी उदासीनता को परे करके यह तार्किक दृष्टि बनानी पड़ेगी कि सुधार की रणनीति (‘पैकेज’ की घोषणा से इतर) के विभिन्न तत्व किस तरह एक-दूसरे से तालमेल बनाते हैं. और तब जरूरी उपायों को लागू करते रहना होगा क्योंकि संरचनात्मक मसले मौसम के साथ नहीं बदला करते.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. मोदी बेईमान नहीं है।देश की ही सोचते हैं।इसलिए भरोसा है कि नीति भले गलत हो जाय नियत तो कतई गलत नहीं है।

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