विष्णु पुराण में भारत के बारे में इस श्लोक में बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया गया है:
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्.
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥
समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में. उस भूमि को भारत कहा जाता है, जहाँ भरत के वंशज रहते हैं.
यह न केवल हमारे राष्ट्र की प्राकृतिक सीमाओं को रेखांकित करता है, बल्कि भारतीय सभ्यता के समृद्ध ऐतिहासिक ताने-बाने की मार्मिक याद भी दिलाता है, जो 5,000 वर्षों से भी अधिक समय से चला आ रही है.
भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं है; यह संस्कृतियों, दर्शन और आध्यात्मिक परंपराओं का एक अनूठा मिश्रण है जो सहस्राब्दियों से पनप रहा है. कल्चर के लिए भारतीय शब्द संस्कृति है. अनादि काल से, भारतीयों ने अपनी संस्कृति को मानव धर्म या “मानव संस्कृति” के रूप में माना है, जो मानवता के साथ एक आंतरिक संबंध को दर्शाता है. संस्कृति में सामूहिक तरीके शामिल हैं जिसमें व्यक्ति और समूह सोचते हैं, महसूस करते हैं, अपने जीवन को व्यवस्थित करते हैं और अपने अस्तित्व के प्रति आनंदित होते हैं. यह हमारी पहचान को आकार देता है, हमारे मूल्यों, दृष्टिकोणों और सामाजिक विकास को प्रभावित करता है.
प्राकृतिक आपदाओं और बाहरी आक्रमणों से कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, भारत तन्यक है – जो कि हमारी सांस्कृतिक निरंतरता और विकास की स्थायी शक्ति का एक प्रमाण है. जबकि हम अपने तन्यकता की सराहना करते हैं, तो वहीं यह भी चिंताजनक है कि भारत ने सैकड़ों वर्षों की निर्बाध लूट की वजह से अपनी बहुत सी अमूल्य विरासत खो दी है. सदियों से, विदेशी आक्रमणकारियों और भाड़े के सैनिकों ने देश के खजाने को लूटा, जिससे अमूल्य कलाकृतियाँ और स्मारक नष्ट हो गए. सदियों से हुई भीषण लूट के बावजूद भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता है, जो आज भी इसकी पहचान बना हुआ है और यह भारत की विरासत की समृद्धि को सटीक रूप से दर्शाता है, जिस पर बहुतों की नज़र रही है.
भारत की सांस्कृतिक विरासत को लुटेरों, साम्राज्यवादियों और बाद में संगठित तस्करों के नेटवर्क के माध्यम से व्यवस्थित रूप से लूटा गया है. हजारों प्राचीन और मध्यकालीन मूर्तियाँ और कलाकृतियाँ, जो कभी राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक थे, अब विदेशों में सार्वजनिक संग्रहालयों में और निजी संग्रह के रूप में मौजूद हैं. यूनेस्को के अनुमानों के अनुसार, भारतीय मंदिरों से चुराई गई लगभग 50,000 कलाकृतियाँ वर्तमान में संग्रहालयों या निजी हाथों में संग्रह के रूप में हैं. वास्तविक संख्या बहुत अधिक होनी चाहिए क्योंकि न तो सभी चोरियाँ दर्ज की जाती हैं और न ही सभी कलाकृतियां कानूनी दस्तावेजों के माध्यम से प्रदर्शित किए या बेचे और हस्तांतरित किए जाते हैं. ये केवल दर्ज किए गए आंकड़े हैं.
समुदाय का पैतृक अधिकार
जबकि ये कलाकृतियां उनके कमरों के कोनों में सुसज्जित होती हैं, लेकिन वे भारतीय लोगों के लिए एक गहरी सांस्कृतिक पहचान और विरासत का प्रतीक हैं. क्योंकि बहुत सारी मूर्तियाँ मंदिरों से हैं, वे देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं और उस समुदाय के लिए उनका एक आंतरिक विरासती मूल्य है. उदाहरण के लिए, कोहिनूर हीरे को इसके नाम से जाने जाने के पूर्व इसका इतिहास एक हज़ार साल से भी पुराना है.
मुर्गी के अंडे के आकार का हीरा जो कि मूल रूप से मंदिर की संपत्ति थी, वह शुरू में कई राजवंशों के हाथों से होकर गुज़री. लेकिन फारसी आक्रमणकारी नादिर शाह के हाथों में आने के बाद, इसे कोहिनूर नाम दिया गया. प्रसिद्ध गुलाबी हीरे ने काफी विवादों को जन्म दिया क्योंकि यह भगवान तिरुपति के आभूषणों का हिस्सा थे. और कलादि पन्ना शिलिंग कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें समुदाय द्वारा दिए गए मात्र मौद्रिक मूल्य से कहीं ज़्यादा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है. सामाजिक तुलना और स्वामित्व के तरीके ही इन स्पष्ट अंतरों को प्रकाश में लाएंगे.
जब संबंधित देशों के कानूनी इतिहास और मामलों का विश्लेषण किया जाता है तो ये तथ्य विशेष रूप से प्रासंगिक हैं. इस मामले में कानून का हवाला महामहिम बनाम भगवान शिव नामक मामले से दिया जा सकता है.
इस प्रकार ब्रिटिश कानून ने भी माना है कि “भगवान की मूर्ति, हमेशा भगवान की मूर्ति रहती है. एक मूर्ति हमेशा एक कानूनी व्यक्ति बनी रहती है, चाहे उसे कितने भी समय तक के लिए जमीन के नीचे दबा दिया जाए या क्षतिग्रस्त कर दिया जाए, क्योंकि भगवान और उसकी कानूनी इकाई उसके सांसारिक रूप के पूर्ण विनाश के बाद भी जीवित रहती है.” महामहिम बनाम भगवान शिव के मामले में पुरातत्वविद् आर नागास्वामी के प्रयासों के कारण चोल वंश की कांस्य प्रतिमा वापस मिली थी.
निराशाजनक रूप से, इनमें से कई वस्तुओं को सामान्य “एशियाई कलाकृतियों” के रूप में गलत तरीके से वर्गीकृत किया जाता है, जिससे उनकी उत्पत्ति और उनसे जुड़ी कहानियाँ मिट जाती हैं. सांस्कृतिक विरासत की चोरी केवल खोई हुई पहचान का मुद्दा नहीं है; यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और इतिहास से जुड़ाव को भी कमज़ोर करती है. तस्करी को सुविधाजनक बनाने के लिए अक्सर श्रद्धा वाली वस्तुओं को विकृत कर दिया जाता है, और उनके मूल समुदायों के उचित दावों को रोकने के लिए उनकी पहचान बदल दी जाती है.
कलाकृतियों की घर वापसी
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने पुरावशेषों के निर्यात से निपटने के लिए कई विधायी उपाय किए, जिनमें 1947 का पुरावशेष (निर्यात नियंत्रण) अधिनियम और 1958 का प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम शामिल हैं. 1972 के पुरावशेष और कला खजाने अधिनियम का उद्देश्य चल सांस्कृतिक संपत्ति को विनियमित करना था.
हालाँकि, इन कानूनों में सांस्कृतिक कलाकृतियों के देश में वापस लाने के लिए मजबूत तंत्र का अभाव था, जिससे अक्सर तस्करी को अनियंत्रित रूप से जारी रखने की सुविधा मिल जाती थी. इन वस्तुओं की चोरी को साबित करना भी मुश्किल है क्योंकि भारत से बाहर ले जाए जाने के समय पैतृक या विरासतीय अधिकार स्थापित नहीं हो सकते हैं. इस तथ्य के अलावा कि भारत पर आक्रमण किया गया, गुलाम बनाया गया और स्वतंत्रता के बाद कानूनी प्रक्रिया में कई खामियाँ मौजूद थीं.
निराशाजनक और आश्चर्यजनक बात यह है कि आजादी के बाद से 2014 तक चोरी की गई केवल 13 कलाकृतियाँ वापस लाई गईं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की चोरी और लूटी गई सांस्कृतिक विरासत को बचाने का बीड़ा उठाया है, जिसे देश से बाहर तस्करी करके ले जाया गया था. इस संबंध में, 26 जुलाई 2024 को हस्ताक्षरित यूएस-भारत सांस्कृतिक संपत्ति समझौता एक अत्यंत प्रासंगिक समझौता है और मोदी 2.0 के दौरान वर्षों के काम का परिणाम है. इन प्रयासों का एक परिणाम 297 मूर्तियों की ‘घर वापसी’ थी, जिन्हें पिछले सप्ताह पीएम मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत को सौंप दिया गया था.
10वीं-12वीं ई. शताब्दी की बलुआ पत्थर की अप्सरा, तीसरी-चौथी शताब्दी ई. की पूर्वी भारत की टेराकोटा फूलदान और पहली शताब्दी ई.पू. की दक्षिण भारतीय पत्थर की मूर्ति, वापस की गई कलाकृतियों में शामिल थीं. पीएम मोदी की पिछली अमेरिकी यात्राएं 2021 में 157 पुरावशेषों की वापसी के साथ हुई थीं; इनमें प्रसिद्ध कांस्य नटराज प्रतिमा शामिल है, जो 12वीं शताब्दी ई. की है; और 2023 की यात्रा से 105 पुरावशेष शामिल हैं. जल्द ही वापस की जाने वाली कलाकृतियाँ सांस्कृतिक विरासत की वकालत करने वालों की जीत का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है और इससे वापस आने वाले कुल पुरावशेषों की संख्या को बढ़कर 640 हो जाएगी.
नीतिगत स्तर पर, पिछले साल भारत की जी-20 अध्यक्षता के तहत, सांस्कृतिक संपत्ति संरक्षण का मुद्दा एक प्रमुख विषय के रूप में उभरा, जिसकी परिणति काशी संस्कृति पथ में हुई जो कि एक ऐसी पहल थी जिसने सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त किया. 2023 के नई दिल्ली नेताओं की घोषणा ने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयासों को मजबूत करने के लिए वैश्विक प्रतिबद्धता की पुष्टि की ताकि सांस्कृतिक कलाकृतियों को उनके मूल देशों में वापस लाया जा सके और उन्हें वापस किया जा सके. संस्कृति के जी-20 मंत्रियों की रोम घोषणा को अपनाया गया, जिसमें “लूट और अवैध तस्करी सहित सांस्कृतिक संसाधनों के लिए खतरों” को मान्यता दी गई.
पीएम मोदी ने सांस्कृतिक विरासत के प्रत्यावर्तन की एक मजबूत नीति के लिए मुखर रूप से जोर दिया है. दुनिया को उन खजानों के प्रत्यावर्तन के रास्ते में आने वाली बाधाओं पर विचार-विमर्श करना होगा जो न केवल आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं बल्कि देश के सांस्कृतिक लोकाचार से भी जुड़े हैं.
भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत इसकी राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक है. जबकि लूट के घाव अभी भी मिटे नहीं है, लेकिन देश में इनकी वापसी और वैश्विक सहयोग की दिशा में चल रहे प्रयास भविष्य के लिए आशा का संकेत देते हैं. अपने अतीत को पुनः प्राप्त करके, भारत न केवल अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को पुनर्स्थापित करता है, बल्कि इतिहास और विरासत में गहराई से निहित एक राष्ट्र के रूप में अपनी स्थिति को भी मजबूत करता है. अपने अतीत को पुनः प्राप्त करने की यात्रा न केवल भारत के लिए बल्कि मानवता के सामूहिक इतिहास के संरक्षण के लिए आवश्यक है. ये प्रक्रियाएँ और प्रथाएँ दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं, खासकर वैश्विक दक्षिण के लिए और न केवल भारत के लिए.
(मीनाक्षी लेखी भाजपा नेता, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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