क्या दुनिया को कश्मीर से कोई मतलब है? वह तो यही जानती है कि कश्मीर भारतीय उपमहाद्वीप का एक हिस्सा है जिसको लेकर भारत और पाकिस्तान गुत्थमगुत्था है और उनकी यह टक्कर आमतौर पर इस तरह की रहती है, जिससे बाकी दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता, बेशक कभी-कभार यह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकियों तक पहुंच जाता है. तब हर कोई हड़बड़ी में नक्शे ढूंढ़ने लगता है. सो, हरेक महत्वपूर्ण देश के पास अब तक कश्मीर के बारे अक्सर पूछे जाने वाले सवालों-जवाबों की प्राथमिक पोथी सी तैयार है.
लेकिन, डोनाल्ड ट्रम्प को ऐसे लोगों की उम्दा मिसाल नहीं माना जा सकता, खासकर यह जानने के बाद कि इस उपमहाद्वीप के बारे में जानकारियां लेते हुए वे पूछ बैठे थे कि ये ‘बटन’ और ‘निपल’ (भूटान और नेपाल के लिए उन्होंने कथित तौर पर यही शब्द इस्तेमाल किए थे) क्या है. फिर भी, जुलाई में इमरान खान के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में की गई उनकी यह टिप्पणी भी काबिले गौर है कि कश्मीर वह खूबसूरत जगह है जहां हर जगह बम फट रहे हैं. उनका दिमाग बिलकुल साफ है जिसमें न तो ब्योरे हैं, न संस्थात्मक स्मृतियां हैं और उनका जनरल नॉलेज यूपीएससी के स्तर का भी नहीं है. इसलिए, इस टिप्पणी से उन्होंने साफ कर दिया कि कश्मीर पहली बार उनके दिमाग में ‘बड़े’ तौर पर तब उभरा जब फरवरी में पुलवामा कांड हुआ था. आप रिकॉर्ड जांचें तो पाएंगे कि उनके अब तक के पूरे कार्यकाल में कश्मीर में अगर किसी गिनती के लायक आकार का बम फटा होगा तो यह उसी कांड में फटा होगा.
इससे क्या पता चलता है? यही कि भारत के सबसे बेहतर रणनीतिक और राजनीतिक हित में यही है कि कश्मीर को लेकर कोई खबर न बनना ही उसके लिए अच्छी खबर है. कश्मीर में इस नए अलगाववाद के शुरू होने के 30 सालों में इस मसले ने दुनिया को तभी झकझोरा था. जब 1991-94 में पीवी नरसिंहराव ने अलगाववाद विरोधी कठोर अभियान शुरू किया था और तमाम अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों से लेकर क्लिंटन प्रशासन तक ने भारी नाराजगी जताई थी. राव ने इस संकट को खत्म करने के लिए सुधार के कुछ कदम उठाए, विश्वमत को आश्वस्त करने के वास्ते विश्व मीडिया के लिए कश्मीर के दरवाजे खोल दिए थे और 1993 में अपना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) गठित कर दिया था.
इसके बाद से उनकी कोशिश कश्मीर मसले को गौण बनाने में जुट गई. कश्मीर को एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल करने से वे परहेज करने लगे. एक प्रकाशित इंटरव्यू में मेरे इस सवाल पर कि कश्मीर में आगे वे क्या देखते हैं, उनका जवाब था, ‘भाई, वे कुछ करेंगे, हम कुछ करेंगे.’ आगे जो होगा वह इसका ही कुल नतीजा होगा और उन्होंने हवा में अपनी उंगली कुछ इस तरह घुमाई मानो गणित का कोई सवाल हल कर रहे हों और दो समानान्तर रेखाएं खींच कर कुल नतीजे का संकेत दिया. वे इतनी ही दूर तक जाने को तैयार थे.
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शिमला समझौते के बाद के दशकों में अटल बिहारी वाजपेयी समेत सभी प्रधानमंत्रियों ने कश्मीर मसले को तरजीह न देने की रणनीति ही अपनाई. पाकिस्तान के साथ युद्ध जैसे हालात (करगिल, ऑपरेशन पराक्रम) और दूसरे तमाम सवाल आतंकवाद तक ही सीमित रहे. कश्मीर को कभी मसला नहीं बनने दिया गया.
लंबे समय से यही रुख कारगर रहा. यहां तक कि 9/11 कांड के बाद अमेरिका जब पाकिस्तान को फिर पुचकारने लगा और पाकिस्तानी ‘फ़ौजीसत्तातंत्र’ को फिर से जादुई चिराग हाथ लग गया था, तब भी कश्मीर की बात नहीं उठी थी. पाकिस्तान कभी बेचैन होने लगता तो अमेरिका और दूसरे सहयोगी उसे शांत करा देते. वे कोई गड़बड़ नहीं चाहते थे. दूसरी ओर भारत नए हालात का माकूल उपयोग कर रहा था- अपने बिगड़ैल बच्चे को काबू में रखो वरना हमने तुम्हारे इरादों को नाकाम कर दिया तो हमें दोष मत देना और यह पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर था.
इसके तीन नतीजे उभरे. पहला तो यह कि दुनिया यह मान बैठी कि इन दोनों देशों ने अपना रणनीतिक संतुलन कायम कर लिया है और कोई मुश्किल पैदा होगी तो वह नीतिगत स्तर पर ही होगी. दूसरे, पाकिस्तान अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और भारत अपनी लहलहाती अर्थव्यवस्था के कारण यथास्थिति बनाए रखने में ही अपना-अपना हित देखने लगा था और तीसरे, दोनों देश नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमा मानने की ओर बढ़ रहे थे. तंग श्याओ पिंग ने राजीव गांधी से जो कहा था उन मशहूर शब्दों को उधार लेते हुए कहा जा सकता है कि औपचारिक सुलह की ज़िम्मेदारी ज्यादा समझदार पीढ़ी के भरोसे छोड़ी जा सकती है. दरअसल, सबसे महत्वपूर्ण शब्द तो मुझे नब्बे के दशक में कश्मीर संकट पर खबर करने के दौरान अमेरिकी उपविदेश मंत्री रॉबिन राफेल से सुनने को मिले थे, जिन्हें यहां दुश्मन के तौर पर देखा गया था. कश्मीर के विलय के दस्तावेज़ को लेकर उनके सवालिया बयान पर जब हंगामा मचा तो उन्होंने कुछ दार्शनिक अंदाज़ में कहा था, ‘कश्मीर को अगर हारेगा तो भारत ही हारेगा.’
मोदी राज में भारत ने यथास्थिति को तोड़ते हुए अपने पूर्ववर्तियों की उस कश्मीर रणनीति से पल्ला झाड़ लिया है जो उन्हें आकस्मिक लाभ के तौर पर हासिल हुई थी.
अब यह पाकिस्तान के ऊपर है कि वह युद्ध की धमकी दे. ऐसा उसने कुछ समय तक किया भी और फिर शांत हो गया. उसने अपनी फौजी ताकत की सीमाओं को पहचाना और उसे यह भी समझ में आ गया कि दुनिया उस पर ध्यान नहीं दे रही है. जरा न्यूयॉर्क में इमरान खान के प्रेस कॉन्फ्रेंस के वीडियो क्लिप को देखिए, जिसमें वे हताश होकर कह रहे हैं कि ‘हम जो कुछ करते रहे हैं उसके अलावा अब और क्या कर सकते हैं? हम भारत पर हमला तो नहीं कर सकते.’
यह सब तो ठीक है, लेकिन इसके बाद मुश्किलें शुरू होती हैं. आप मानें या न मानें, करीब आधी सदी बाद कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया है और यह पाकिस्तान ने नहीं बल्कि भारत ने आगे बढ़कर किया है. अगर आप पक्षपाती नज़रिया अपनाएं, तो भारत के लिए यह हौसला बढ़ाने वाली बात दिखेगी कि चीन और तुर्की को छोड़ किसी और देश ने इस बात का खंडन नहीं किया है कि 5 अगस्त को जो बदलाव किए गए वे भारत के आंतरिक मामले हैं कि 5 अगस्त से पहले की स्थिति बहाल की जाए. लेकिन तस्वीर अभी मुमुकम्मल नहीं हुई है.
अमेरिका सहित कई देश चिंतित हैं कि कश्मीर में अब पता नहीं आगे क्या होगा. कोई इमरान की इस बात पर यकीन नहीं कर रहा है कि वहां कत्लेआम हो रहा है. न ही किसी को ड्रोन से खींची गई श्रीनगर की उन तस्वीरों पर यकीन हो रहा है कि वहां हालात ‘सामान्य’ हैं. माना यही जा रहा है कि घाटी क्रूर तालबंदी में जकड़ी है, हजारों लोगों को बिना आरोप के, बिना सुनवाई के गिरफ्तार किया गया है और यह की इन सबको लेकर दुनिया का धैर्य जल्दी ही टूटने वाला है.
संयुक्त राष्ट्र सप्ताह खत्म हो गया है. अब ‘कूटनीतिक जीत’ के जश्न मनाए जाएंगे कि पाकिस्तान को किस तरह अलग-थलग कर दिया गया और मोदी नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक उपलब्धियों के साथ घर लौटेंगे. ‘कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है’ सरीखा भारत का पुराना जुमला बिना किसी चुनौती के चल निकला है. ट्रम्प ने भी व्हाइट हाउस में मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद जारी बयान में उनसे सिर्फ सामान्य स्थिति बहाल करने की अपील की और कश्मीरी लोगों से किए अपने वादों को पूरा करने को कहा, 5 अगस्त के पहले की स्थिति को बहाल करने की बात नहीं की. कश्मीर में किए गए बदलाव ने पाकिस्तान को और ज्यादा अलग-थलग करने की जगह उसे मौका दिया है कि वह दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचे, खुद को पीड़ित और नाइंसाफी का शिकार बताए.
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कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मान लिया जाना अगर न्यूयॉर्क में भारत-पाकिस्तान की सालाना तू-तू-मैं-मैं के बाद एक कूटनीतिक जीत है, तो इसके भविष्य और भारत के सर्वोच्च हित भी इसी में निहित हैं. वहां संचार व्यवस्था को ठप किए जाने के दो महीने पूरे होने को हैं. कई सप्ताह तो पहले ही बीत चुके हैं. खुलापन बहाल करने में देरी कश्मीर के कोप को बढ़ा रही है. देरी जितनी ज्यादा की जाएगी, विस्फोट, हिंसा और खूनखराबे के खतरे उतने ही बढ़ेंगे. हालात बेकाबू भी हो सकते हैं.
दुनिया कश्मीर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रही है, लेकिन वह खतरे को महसूस कर रही है. इसलिए उस हद तक यह मसला अंतरराष्ट्रीय हो चुका है. 2016 में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद एक सप्ताह में 40 लोग मार डाले गए थे. आज केवल एक युवा असरार वानी की मौत विवाद का मसला बन रही है. दुनिया की नज़रें कश्मीर पर हैं. 5 अगस्त के बाद जो तालाबंदी हुई है उसे नई सामान्य स्थिति या यथास्थिति मान लेना भारी भूल होगी.
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