आज खबरों की दुनिया का जो माहौल है उसमें दुष्ट कोरोनावायरस ने बाकी सबको गौण बना दिया है. और यह सब जल्दी खत्म होता नहीं दिख रहा है. लेकिन आपको बताऊं कि मैं इससे कम-से-कम इस सप्ताह छुट्टी चाहता हूं. मुझे अपनी वो पुरानी राजनीति में जाने की छूट दीजिए. लेकिन वह राजनीति भी, इधर-उधर कुछ पुरानी टीका-टिप्पणी को छोड़, फिलहाल काफी हद तक स्थगित हालत में है.
इसलिए हम कोरोनावायरस की छाया के साथ राजनीति की दुनिया की ओर मुड़ रहे हैं. हम जरा देखें कि अपने सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती के मद्देनजर नरेंद्र मोदी ने मैसेजिंग यानी संदेश देने के मोर्चे पर कैसा काम किया है. तो शुरुआत हम उनके भीतर बैठे मेसेंजर यानी संदेश देने वाले से ही करें. उन्हें जो वरदान मिला हुआ है वह मनमोहन सिंह से लेकर राजीव गांधी तक उनके आठ पूर्ववर्तियों को नहीं हासिल था, कि वे भारतीयों के एक काफी बड़े समूह से सीधे और पूरे भरोसे से संवाद कर सकते हैं, जो उनके शब्दों को देववाणी की तरह मानता है और उनके फरमान को पोप के आदेश का दर्जा देता है.
जनता, खासकर अपने मतदाताओं की नब्ज को पहचानने के मामले में वे इंदिरा गांधी से भी आगे नज़र आते हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपनी सरकार की ओर से तमाम संदेश देने का जिम्मा उन्होंने खुद उठा रखा है. वे बयान देते हैं, कुछ घिसी-पिटी बातें करते हैं, कुछ तीखे तंज़ कसते हैं, बाकी मकसद खुद पूरा हो जाता है. उनका भाषण खत्म होने या आधा ही खत्म होने के घंटेभर के भीतर उनका पूरा मंत्रिमंडल, आला पार्टी नेता, उनके सोशल मीडियावीर, आरएसएस व भाजपा के बौद्धिक, तमाम लोग उनके भाषण के अंश ट्वीट करने लगते हैं, जैसा कि अभी-अभी हाल में भी हुआ, जब उन्होंने ‘रविवार रात 9 बजे 9 मिनट’ वाला संदेश दिया.
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दरअसल, कोरोना के इस मौसम में दिए गए उनके चारों संदेशों के पूरे पाठ को देखकर आप समझ सकते हैं कि उन्हें प्रमुख ‘हैंडलों’ के ट्वीटों से जोड़ कर तैयार किया गया. जब वे बोलते हैं तो उसमें बस इन्हीं की प्रतिध्वनि सुनाई देती है. यह संदेश को ‘शुद्धता’ प्रदान करती है. आखिर हर कोई अपनी ही आवाज़ में बोलता है.
अब हम संदेश पर आते हैं, कि किस तरह एक मूल सूत्र को बनाए रखा गया है, भले ही उसके अंदाज बदलते रहे हों. इसमें इस एहसास का योगदान तो है ही कि उनके लोगों की एक महत्वपूर्ण जमात, उनके पक्के वोटर—जो बड़ी तादात में हैं— हर हाल में उन पर विश्वास करेंगे ही. और भले ही वे कभी गड़बड़ कर दें, मसलन नोटबंदी, उनके लोग उन्हें माफ कर देंगे. जरा कल्पना कीजिए कि पिछले रविवार को जब अपनी ‘मन की बात’ में उन्होंने देश के गरीबों से माफी मांगी तब कितने करोड़ दिल तुरंत पसीज गए होंगे.
अगली खासियत यह कि वे आपको यह शायद ही बताएंगे कि वे आपके लिए क्या करने जा रहे हैं. आप उनके सबसे उल्लेखनीय भाषणों पर, और पिछले चार भाषणों—राष्ट्र के नाम दो संदेशों समेत ‘मन की बात’ तथा ‘दीया जलाओ’ संदेश पर तो जरूर, नज़र डालिए. आप पाएंगे कि वे लोगों से यह नहीं कहते कि वे उनके लिए क्या करने जा रहे हैं बल्कि इसकी जगह वे लोगों को अपने लिए ही, और उनके लिए भी कुछ करने की हिदायत देते हैं.
‘स्वच्छ भारत’ से लेकर समर्थ्य लोगों के लिए रसोई गैस पर सब्सिडी खत्म करने तक, नोटबंदी से लेकर अब कोरोना संकट आदि तक उन्होंने जो भी कदम उठाए हैं, वे लोगों से ही कुछ करने के लिए कहते रहे हैं. यह लोगों को तुरंत खुद को महत्वपूर्ण और जिम्मेदार महसूस कराता है. ऐसा शक्तिशाली नेता अगर आपको गंभीरता से ले रहा हो तो यह किसे अच्छा नहीं लगेगा? मोदी को वह महारत हासिल है जो लोगों से त्याग भी करवाती है और उन्हें बिना कोई अनुग्रह दिए खुश भी रखती है.
कोरोना के दौर के अपने भाषणों में उन्होंने यही किया है. पहले भाषण में उन्होंने कहा कि वे आपसे अपने जीवन के कुछ सप्ताह मांगने जा रहे हैं. यह कहके वे रुक गए, आगे कुछ नहीं कहा. यह जनमत को आगे आने वाले संदेश के लिए तैयार करने का एक नुस्खा था.
उन्होंने एक दिन के जनता कर्फ़्यू की घोषणा की. और हम सबने तुरंत समझ लिया कि यह लंबे लॉकडाउन की तैयारी का एक हिस्सा है. उन्होंने आवश्यक सेवाओं में लगे डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों, पुलिस एवं दूसरे लोगों की हौसलाअफजाई के लिए ताली बजाने के लिए कहा. इसे और आकर्षक बनने के लिए घंटी और थाली बजाने के सुझाव भी दिए.
अब आप इस पर चाहे जितना हंस लीजिए, आपकी मर्जी. लेकिन क्या आप इस बात की अनदेखी कर सकते हैं कि पूरे देश में करोड़ों लोगों ने वही किया, और इसके लिए खुद को कृतज्ञ भी महसूस किया. बेशक कई लोगों ने अति भी कर दी और देर तक ज्यादा शोर मचाकर बेचारे पक्षियों और पशुओं को परेशान किया. लेकिन वायरस तो कोई पूरी तरह से जीवित प्राणी है नहीं कि शोर से डर जाएगा. बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने न तो कोई वादा किया, और न कुछ दिया. लोगों ने ही उनकी अपील का बढ़-चढ़कर पालन किया.
मोदी के ‘माफी मांगने’ में भी एक तरीका छिपा है. याद कीजिए, नोटबंदी से जब पूरे देश में अराजकता फैल गई थी तब उन्होंने गोवा में दिए गए एक भाषण में अच्छी तरह से भरे गले से कहा था कि मुझे बस 50 दिन दीजिए, उसके बाद मेरी मंशा या मेरे कामों में कोई खोट दिखे तो देश जो सज़ा देगा उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं. अब किसी नेता की ऐसी ‘विनम्रता’ के लिए सज़ा कौन देता है! नोटबंदी वैसी ही भयानक भूल थी जैसी माओ ने चीन के सारे गोरैयों को मार कर की थी. लेकिन यहां तो एक ताकतवर प्रधानमंत्री एक भारी जोखिम ले रहा था—जाहिर है, अच्छी मंशा से—और आपसे देश की खातिर थोड़ी तकलीफ सहने की अपील कर रहा था.
और, कोरोना के मामले में ‘मन की बात’ में उन्होंने जो माफी मांगी उसमें कहीं अधिक बारीकी छिपी थी. उन्होंने जो गड़बड़ी की थी उसके लिए उन्होंने कोई अफसोस नहीं जाहिर किया, बल्कि ‘भारत को कोरोना के कहर से बचाने के लिए’ उठाए गए साहसी कदम से हुई असुविधा के लिए खेद जाहिर किया. गौर कीजिए कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों के पलायन और उसके कारण पैदा हुए संकट का कोई जिक्र तक नहीं किया.
यानी, तीन सबक हैं. पहला यह कि नरेंद्र मोदी अपने संदेश में आपसे कोई वादा नहीं करते. दूसरा यह कि वे हमेशा आपसे ही कहते हैं कि आप उनके लिए और इस तरह देश के लिए कुछ कीजिए. और तीसरा सबक यह कि वे अपनी किसी करनी के लिए कभी अफसोस नहीं जताते. उनके शब्दकोश में इस तरह के कोई शब्द नहीं हैं— ‘मुझे लगता है कि इसे बेहतर तरीके से किया जा सकता था’.
एक चौथा सबक भी है, जो मोदी की शैली का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. वह यह कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि उन्हें किसे संबोधित करना है, किसकी उपेक्षा करनी है, और किसकी अनदेखी नहीं करनी है बल्कि उसे लाभ पहुंचाना है. इसका अर्थ यह हुआ कि उनके आलोचक, टीका-टिप्पणी करने वाले टीकाकार, तथाकथित उदारवादी, ऊंचे तबके के ‘इलीट’ तो उनके विचारों की बचपना के लिए उनका मखौल उड़ाते ही रहेंगे. उनकी ताली, थाली, दीया, मोमबत्ती को लेकर सोशल मीडिया पर चुट्कुले और ‘मेमे’ आते रहेंगे. मोदी के भाषण और संदेश उस तबके के लिए हैं ही नहीं.
दूसरा तबका जिसे वे संबोधित नहीं कर रहे हैं मगर जिसकी अनदेखी वे नहीं कर सकते वह है गरीब तबका. उन्हें बहुमत उस तबके के वोट से ही हासिल होता है. वह तबका सार्वजनिक बहस को नियंत्रित नहीं करता लेकिन वह स्मार्ट है, राजनीतिक रूप से अवज्ञावादी है और सवाल उठाने वाला है. उसके मामले में जोखिम क्यों लिया जाए? मध्यवर्गीय वोटर ऐसा कतई नहीं है, और वह एजेंडा भी तय करता है. अगर वह सवाल उठाने वाला होता तो अपनी ‘बालकॉनी’ पर थाली या दीया लेकर क्यों खड़ा होता?
गरीबों तक मोदी की पहुंच सीधे और तुरंत लाभ के जरिए है चाहे वह नकदी भुगतान हो, या रसोई गैस, शौचालय, मकान की सुविधाएं. और भी चीज़ें आगे आ सकती हैं. जहां पैसा काम करता हो वहां संदेश की जरूरत नहीं. गरीबों को सीधे लाभ पहुंचाने की उनकी व्यवस्था इतनी बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त है जितनी पहले कभी नहीं थी.
एक आलोचना हम बराबर सुनते हैं, या करते हैं कि मोदी देश के लोगों को बचकानेपन की ओर ले जा रहे हैं. इस ताली, थाली, दीया, मोमबत्ती, ‘गो कोरोना गो’ गाना जैसे तमाम टोटकों को और क्या कहा जा सकता है, जिनका औचित्य हम समझ नहीं पाते? लेकिन क्या आप जानते हैं कि मोदी हम सबको पहचानते हैं कि हम क्या हैं? वरना हम थाली-चिमटा, ढोल-बाजा लेकर सड़कों पर क्यों उतर आते हैं कोरोना को भगाने के लिए? हम तो व्हाट्सअप पर भी यह संदेश साझा करने में जुट जाते हैं कि इन टोटकों से वायरस खत्म हो जाएगा.
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शुक्रवार को एक जाने-माने डॉक्टर, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष सरीखे महानुभाव ने ऐसा ही कुछ बकवास जैसा किया कि दीया-मोमबत्ती किस तरह हमारी ‘एस-2’ रिसेप्टर नामक कोशिकाओं को इतना ताकतवर बना देगी कि वे कोरोनावायरस की चटनी बना डालेंगी. जाहिर है, बाद में उन्हें भी यह कुछ बड़बोलापन लगा. अगले भाषण में उन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ कड़ा रुख दिखाते हुए लोगों को बालकॉनी या सड़कों पर भीड़ न लगाने के लिए चेताया और ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ बरतने की याद दिलाई.
जो भी दावा करत है कि वह मोदी के दिमाग की थाह रखता है, वह या तो झूठ बोल रहा है (ज्यादा संभावना यही है) या आइंस्टीन का अवतार है. लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं यही कहूंगा कि, ओह, ये लोग बच्चे हैं, बेशक आज्ञाकारी बच्चे. आज्ञापालन के अपने उत्साह में जब-तब ये अति कर सकते हैं, लेकिन मैं इन्हें सावधान करता रहूंगा.
लेकिन जरा मोदी की नज़र से देखिए. वे तो जीत ही रहे हैं. तो वे भला शिकायत क्यों करें? या उन जाने-पहचाने आलोचकों की फिक्र क्यों करें जो उन पर वोटरों को बचकानेपन की ओर ले जाने के आरोप लगाते रहते हैं? वे वोटर तो इसी में खुश हैं, आज्ञाकारी बच्चे बनने में!
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आप मीडिया के मोदी हैं। आप जैसा नेताओं को समझने और समझाने वाला दूसरा कोई नहीं। एक शुद्ध पत्रकार।
मगर आप एक निठल्ले, जमीन से कटे और बौद्धिक जुगाली बाज, चापलूस तथाकथित पत्रकारों को बकवास लेखन को बचकाना मौका देते हैं।