जनता की नब्ज पकड़ने के सप्ताह भर के भीतर ही कोई कैसे पकड़ पूरी तरह गंवा सकता है? लेकिन कोरोनावायरस को लेकर 21 दिनों के लॉकडाउन के मंगलवार के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यही किया.
संकट के समय दो तरह के भाषण दिए जाते हैं – एक विंस्टन चर्चिल के युद्धकालीन भाषणों की तरह लोगों के मनोबल को बढ़ाने वाला, और दूसरा सैनिकों को दिशा-निर्देश देने वाला कि उन्हें वास्तव में करना क्या है. पहला भाषण जहां गूढ़ होता है, वहीं दूसरा सटीक और विस्तृत. नोवेल कोरोनोवायरस या कोविड-19 संकट के साथ समस्या ये है कि इसे लेकर आम जनता से सैनिकों जैसे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है, हममें से हरेक से. इसलिए हमें अपना मनोबल बढ़ाए जाने और विस्तृत निर्देश, दोनों की ही आवश्यकता है. और यही वो पहलू है जहां मोदी का मंगलवार का भाषण बुरी तरह नाकाम रहा.
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एक दिन की एकजुटता या ‘जनता कर्फ्यू’ वाला उनका पहला भाषण मनोबल बढ़ाने को लेकर था – लेकिन 21 दिवसीय अखिल भारतीय लॉकडाउन की घोषणा वाला उनका भाषण, एक तरह से, सैन्य अभियान वाली श्रेणी में था. लेकिन यह दिल्ली दंगों के संदर्भ में उनके रवैये से जुड़ता है, और कुल मिलाकर इससे एक नियमित पैटर्न उजागर होता है जो इन तीन बातों में से किसी एक को परिलक्षित करता है: कुप्रबंधन, आलस या हेकड़ी.
गुजरात दंगे
पैटर्न ये है: मैसेजिंग, कानून-व्यवस्था और अफरातफरी. प्रत्येक मामले में, हम पूर्व की गलतियों को बार-बार दोहराया जाता देखते हैं, जिससे एक चिंताजनक निष्कर्ष निकलता है कि ये गलतियां नहीं हैं बल्कि ऐसा जानबूझ कर किया गया है.
हमें लगातार बताया जाता है कि मोदी मैसेजिंग के मास्टर हैं और संसद में 303 सीटें इस बात का पुख्ता सबूत है कि वह अपनी बातों की पैकेजिंग में सिद्धहस्त हैं. फिर भी हम पाते हैं कि उनकी मैसेजिंग मात्र न्यूनतम अपेक्षित मानदंडों पर ही खरा उतरती है.
इस पर विचार करें: गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गोधरा कांड के बाद हुए 2002 के दंगों से दो तरह के संदेश निकाले गए. विदेशी और घरेलू मीडिया के लिए ये संदेश दंगों में शासन की सहभागिता के बारे में था. जबकि प्रेस को विश्वसनीय नहीं मानते वालों (बचपन में जातीय तनाव के केंद्र साउथ अर्कोट के दंगे का गवाह होने के कारण मैं खुद को भी इसी श्रेणी में रखता हूं) के लिए कथानक एक ऐसे व्यक्ति की थी, जिसे सच्चाई और वास्तविकता से दूर खड़े मीडिया द्वारा अपमानित और प्रताड़ित किया जा रहा था. यह अधूरा कथानक मोदी के खूब काम आया और आखिरकार उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाने में उसकी भूमिका रही.
दिल्ली के दंगे
इसे 2020 के पूर्वोत्तर दिल्ली के दंगों के समय फिर से दोहराया गया. गुजरात दंगों के कारण भारत, गुजरात और खुद उनकी प्रतिष्ठा गिरने के बावजूद दिल्ली दंगों से निपटने की मोदी की शैली पहले वाली ही रही. सुरक्षा बलों के उपयोग में उसी तरह की देरी, पुलिस के खुले पक्षपात का पहले जैसा ही मामला (दिल्ली के मामले में इसके ठोस प्रक्रियात्मक कारण हैं जोकि इस लेख के दायरे से बाहर का विषय है) और समुदाय विशेष के कत्लेआम के वही आरोप.
आपने इस पैटर्न पर ध्यान दिया? कमाल की बात यह है कि एक बार प्रधानमंत्री और एक बार मुख्यमंत्री के रूप में दो दंगों के दौरान नेतृत्व संभालने के बावजूद मोदी ने ना तो किसी तरह के पुलिस सुधार या प्रक्रिया के मानकीकरण की ही पहल की है. वास्तव में, कानून-व्यवस्था से जुड़ा कोई भी अधिकारी आपको यही बताएगा कि भीड़ नियंत्रण का मूलमंत्र ये है कि भीड़ को इकट्ठा ही नहीं होने दें. एक बार जब लोग जमा हो जाते हैं, तो मामला हाथ से निकल चुका होता है. फिर भी, हमें खुफिया या निगरानी व्यवस्था में कोई सुधार देखने को नहीं मिला है.
या तो मोदी किसी की सुनते नहीं हैं, या वह परवाह नहीं करते, या अधिक चिंताजनक निष्कर्ष: वह ऐसा ही चाहते हैं. सच्चाई ये है कि दिल्ली में जो हुआ उसके बारे में हमारे पास अभी भी एक स्पष्ट सरकारी कथानक नहीं है, और इससे भी यही संकेत मिलता है कि वह समुदाय विशेष के कत्लेआम (जो स्पष्ट रूप से नहीं था) वाले कथानक की मौजूदगी बने रहने को लेकर संतुष्ट हैं – संभव है उन्हें इसका अच्छा लाभ मिले, लेकिन इससे भारत को नुकसान उठाना पड़ता है.
एक स्थापित पैटर्न
यह वही पैटर्न है जो हमें मंगलवार की रात मोदी के भाषण के बाद पूरे भारत में घबराहट में हुई खरीदारी के रूप में देखने को मिला. अपने नेतृत्व में 2016 में हुई नोटबंदी और उसके व्यापक कहर को देखते हुए, सबसे पहले उन्हें न सिर्फ मालूम होना चाहिए था, बल्कि मालूम करने का उनका दायित्व भी था कि उनकी घोषणा से किस तरह की घबराहट फैल सकती है.
उनके भाषण को लाइव-ट्वीट करते हुए, मुझे सुरक्षा और भीड़ नियंत्रण के अपने सीमित प्रशिक्षण के बूते ही साफ दिख रहा था कि घबराहट में खरीदारी को लेकर अफरातफरी आसन्न है. तो फिर सहायता में तैनात सुरक्षा एवं सामाजिक विशेषज्ञों के लश्कर से घिरे एक व्यक्ति को इस बात की भनक क्यों नहीं लगी? एक बार फिर, या तो वह किसी की सुनते नहीं, या वह परवाह नहीं करते, या वह ऐसा ही चाहते हैं.
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अकादमिक दृष्टि से, किसी पैटर्न को साबित करने के लिए तीन उदाहरणों की आवश्यकता होती है. अब तो हमारे पास चार उदाहरण हैं: गोधरा, नोटबंदी, दिल्ली दंगे, और अब कोरोनावायरस लॉकडाउन. यहां मामले की गंभीरता को कम करने वाला एक कारक ये हो सकता है कि हमारे पास उग्र प्रतिक्रियात्मक नीतियों का भी एक पैटर्न है – जो ‘पहले दिन अधिकतम झटका देने’ की मानसिकता के अनुरूप है, और जिसमें दूसरे और तीसरे क्रम के अधिक महत्वपूर्ण प्रभावों की अनदेखी की जाती है. हमने इसे बारंबार देखा है – जैसे जीएसटी, बालाकोट, अनुच्छेद 370 आदि के मामलों में.
संक्षेप में, इन उदाहरणों से आप एक दुर्भावनापूर्ण मोदी का चित्रण कर सकते हैं, लेकिन तमाम तथ्यों के एक साथ रखने पर हमें एक अक्षम मोदी की छवि दिखती है. ऐसा प्रतीत होता है कि, नेहरू के समान ही, मोदी चुनाव तो जीत सकते हैं, पर और कुछ नहीं.
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
Modi virodhi ka koi naha tarika nikaollo….lab Tak Gujrat dango ki bekar rat lagaoge..tm jaise ko kisne Hal Diya ki tm is type ke bakwass karo…..shame on u …kitne Mai bike ho…..kitni pase milte hai musalmano ki bat likhne ke..kabhi nirdosh Hindu ki bat b karo..kabhi godhara ki train Mai jalay Hindu ke bare Mai b likho…..Tim insan nahi bhediya ho Jo insano ka khin pita hai …..pahle Tim Hindu musalmano ko badakte go is type ke bakwass lekh likh Kar…fir Rona rote ho….aaj afgainstan Mai isis ne sikho kabkatal kiya unpr b apne vichar likhna…..murkha vyakti