2006 में ‘इंडिया एवरीव्हेयर’ (हर तरफ भारत) और 2011 में ‘इंडिया इनक्लूजिव’ के बाद भारत इस साल तीसरी बार दावोस पहुंचा था. बड़ा फर्क यह था कि पिछले दो मौके के विपरीत इस बार भारत के प्रधानमंत्री दावोस पधारे. इससे पहले, अंतिम बार यहां पहुंचने वाले भारतीय प्रधानमंत्री थे देवेगौड़ा, जिन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था. लेकिन नरेंद्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनमें एक आन भी है और अपना अंदाज भी है. संसद में उन्हें जोरदार बहुमत हासिल है, उनकी पार्टी और उसके सहयोगी 19 राज्यों में राजपाट संभाले हुए हैं और वे खुद अपनी पार्टी पर जैसी पकड़ रखते हैं वैसी इंदिरा गांधी के बाद किसी ने नहीं रखी और याद रहे कि आज किसी बड़े लोकतंत्र में कोई नेता ऐसा नहीं कर पा रहा है. खुशमिजाज सैलानी मोदी ने दुनियाभर के नेताओं के साथ एक जबरदस्त तालमेल भी बैठा लिया है और शिखर मुलाकातों की परंपरा में उन्होंने नेताओं को देर तक गहरी झप्पी देने के अपने अंदाज से खास योगदान भी दिया है.
दावोस में उनकी मौजूदगी भी विश्व आर्थिक मंच (डब्लूईएफ) और इसके संस्थापक क्लॉस श्वाब के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी. गुजरात के मोदी के दौर से जुड़ी तमाम दूसरी बातों की तरह डब्लूईएफ से भी उनके जुड़ाव की एक पुरानी कहानी है. उन्होंने डब्लूईएफ को गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए काफी पहले ही अपना लिया था और गर्मियों में होने वाले इसके ‘समर दावोस’ में 2007 में भाग लिया था, जो डालियान में हुआ था. वास्तव में, वहां पेनल का संचालन मैंने ही किया था. मैंने गौर किया था कि मोदी से घरेलू राजनीति को लेकर कई प्रश्न पूछे गए थे लेकिन उन्होंने साफ कह दिया था कि वहां वे किसी दल के नेता के तौर पर नहीं आए हैं और किसी घरेलू मसले को वहां नहीं उठाएंगे. यह रुख प्रभावशाली था.
लेकिन दावोस में घरेलू राजनीति की मौजूदगी दिखी, क्योंकि भारतीय उद्योग जगत में उनकी लोकप्रियता बढ़ी, और इस बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन के लिए उनकी खोज होने लगी. यूपीए सरकार ने डब्लूईएफ को जता दिया था कि उन्हें निमंत्रित किया जाना उसे पसंद नहीं होगा. मोदी का यह सोचना सही था कि उन्हें राजनीतिक दबाव के कारण नहीं निमंत्रित किया जाता था. इसीलिए उनकी सरकार पिछले तीन साल से दावोस के प्रति ठडा रुख रखे रही.
दावोस ने अपनी गलती सुधारने की हर संभव कोशिश की. मोदी को उद्घाटन सत्र की पेशकश की गई, जिसकी ख्वाहिश हर विश्व नेता करता है. पिछले साल चीन के जिनपिग को यह मौका मिला था. इस साल प्रतियोगिता काफी तगड़ी थी. डब्लूईएफ के सामने विश्व नेताओं की अभूतपूर्व कतार लगी थी, जिसमें डोनाल्ड ट्रंप, इमानुएल मैक्रॉन, जस्टिन ट्रुडू, थेरेसा मे, बेंजामिन नेतान्याहू, और एंजेला मर्केल शामिल थीं.
मोदी के लिए पूरा हॉल भरा था. उन्होंने ट्रंप के अमेरिका, जिनपिंग के चीन, और जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूं, डाटा के रणनीतिक महत्व पर कुछ उल्लेखनीय बातें की. इसके साथ ही उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा ज्ञान पर आधारित उपदेश भी पर्याप्त मात्रा में दिए. उनका भाषण चर्चा में भी खूब रहा, बेशक उन चर्चाओं में एक पेंच होता था. उनके उद्घाटन भाषण के चार दिन बाद तक भी वहां मौजूद हरेक भारतीय आपसे मुलाकात होने पर यही सवाल पूछता- तो… प्रधानमंत्री के भाषण के बारे में आप क्या सोचते हैं? और आप जवाब दें इससे पहले वह यह बताने लगता कि वह क्या सोचता है. उसके विचार घोर प्रशंसा से भरे होते. यहां पेंच यह है कि कोई भी गैरभारतीय यह सवाल नहीं पूछता था.
इसी तरह, विश्व मीडिया ने इस भाषण का चलताऊ ढंग से ही जिक्र किया, अपने डिस्पैच में उसने मोदी की मौजूदगी का जिक्र भर किया. भारतीय खेमे में कई लोगों ने इस पर गौर किया और इसे “पश्चिमी मीडिया का पूर्वाग्रह” बताकर अपना गुस्सा जाहिर किया. लेकिन हकीकत आज इसके उलट ही है. पश्चिम ही नहीं, विशाल विश्व व्यवसाय समुदाय चीन से ज्यादा खीझा हुआ है. ये सब चाहते हैं कि भारत उसके कामयाब प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरे और उनकी पूंजी का ठिकाना बने. पिछले कुछ वर्षों में भारत के प्रति झुकाव बढ़ा है, खासकर इसलिए कि वैश्विक व्यवसायियों को चीन में ठोकरें खानी पड़ी हैं. इसलिए भारत से अपेक्षा बढ़ी है और दुनिया चाहती है कि भारत कामयाब हो. वह आज इसलिए परेशान भी है कि भारत वादे तो ऊंचे-ऊंचे करता है मगर नतीजे उम्मीद से कम मिलते हैं. मोदी के उत्कर्ष के साथ उसे ज्यादा बड़े सुधारों, आर्थिक तथा रणनीतिक स्थिरता की उम्मीद थी.
दावोस में वर्षों के बाद इतनी आशावादिता और चहलपहल दिखी. चूंकि वैश्विक वृद्धि दर 3.9 प्रतिशत के साथ उछाल पर है, इसलिए जोश अलग पैमाने पर है. सौदे हैं और लाभ के मौके हैं. दुनिया की हालत सुधारने की तमाम बातों के पीछे दावोस माने ‘इसमें मेरे लिए क्या है’ वाली भावना रखने वालों का क्लब बन गया है. यह विनम्र है मगर इसे जताना नहीं चाहता, लेकिन इसके पास ज्ञान तथा उपदेशों के लिए समय नहीं है, भले ही ये कितने ही प्राचीन क्यं न हो या कितने ही ठोस क्यों न हो. यह स्वामी विवेकानंद के लिए तालियां बजाने वाला मंच नहीं है.
दावोस में व्यवसाय केंद्र या सैरगाह के रूप में भारत भरपूर उपलब्ध था- भारत सरकार, सीआइआइ, चंद्रबाबू नायडु का आंध्र प्रदेश, देवेंद्र फडणवीस का महाराष्ट्र, टीसीएस, इनफोसिस, विप्रो, सबके लाउंज, सबकी मौजूदगी. इन सबके अलावा प्रधानमंत्री, कई बड़े केंद्रीय मंत्रियों तथा मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति का हासिल क्या है? काफी सीमित. इसकी वजह यह है कि संदेश र उसे पहुंचाने वाला (यहां मोदी), दोनों कितने भी अच्छे क्यों न हो, असली बात यह है कि वे किस चीज की पैरवी कर रहे हैं. 7 प्रतिशत या इसके आसपास की वृद्धि दर अच्छी तो है लेकिन जब आपकी आबादी चीन के बराबर है मगर आपकी अर्थव्यवस्था उसकी अर्थव्यवस्था के पांचवे हिस्से के बराबर है, तो आपकी सीमाएं उजागर हो जाती हैं. यह क्रूर दुनिया है. यह आपसे कठोर सवाल भी पूछती है. मसलन, यह कि अगर आज आपकी सरकार सचमुच मजबूत है, तो उसने वोडाफोन के मामले में पिछली तारीख से किए गए संशोधन को रद्द क्यों नहीं किया है?
एक दशक पहले जब भारत ने अपना पहला बड़ा शो किया था, तब वृद्धि दर 9 प्रतिशत (पुराने फॉर्मूले के मुताबिक) से ऊपर जा रही थी, टेक कंपनियां छलांग मार रही थीं और आउटसोर्सिंग ने बंगलूर को नये सिलिकन वैली के तौर पर स्थापित कर दिया था. यहां तक कि ‘नियुक्त किए गए’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी, जो भाषण कला में मोदी की पासंग भर भी बराबरी नहीं कर सकते, तब कुछ हलचल पैदा कर सकते थे. लेकिन यह एक दुखद प्रसंग ही है कि वैश्वीकरण का विरोध करने वाले वाम पक्ष ने उन्हें यहां आने की “इजाजत” नहीं दी, उसने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दे दी थी (जैसा कि राहुल बजाज ने यहां मीडिया को बताया).
आज हमारे पास अंतरराष्ट्रीय कद का मजबूत नेता है, जो जानता है कि क्या संदेश देना है और कैसे देना है, लेकिन संदेश के भीतर का जो तत्व है वही बदरंग हो चुका है. 2006 से 2011 और 2018 तक भारत उन्हीं चीजों पर जोर देता रहा है जिन्हें वह अपनी खासियत, ‘सॉफ्ट पावर’ मानता रहा है- खाद्य व्यंजन (तमाम तरह के, नायडु के आध्र के भी), बॉलीवुड, शिल्पकला, अध्यात्म और अब योग भी. लेकिन ये खासियतें रणनीतिक अहमियतों तथा महत्वाकांक्षाओं वाले किसी देश को कितनी दूर तक ले जा सकती हैं, इसकी भी एक सीमा है. शुद्ध ‘सॉफ्ट पावर’ थाइलैंड जैसे छोटे देश के लिए बेशक कारगर होता है. वहां पिछले साल 3.6 करोड़ पर्यटक आए, जबकि भारत में 1.02 करोड़ पर्यटक ही आए. थाइलैंड मेडिकल टूरिज्म का वैश्विक केंद्र बन गया है, जहां बाइपास सर्जरी से लेकर अंग प्रत्यारोपण और कॉस्मेटिक सर्जरी तथा नशामुक्ति तक के लिए दुनियभर से लोग पहुंच रहे हैं. इधर, भारत अपने ही झगड़ों और खुद उभारे गए सामाजिक असंतोष में उलझा है.
दुनिया चाहती है कि भारत ‘हार्ड पावर’ (सैन्य नहीं) की भाषा बोले. भारत अगर सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता चाहता है तो वैश्विक रणनीति के मसले के बारे में इस तरह के मंचों पर ज्यादा जोरदार तरीके से अपनी बात क्यों नहीं रखता? समुद्री आवागमन की आजादी, संप्रभु राष्ट्रों के सामुद्रिक तथा भौगलिक अधिकारों का सम्मान, वैश्विक न्याय की नियमसम्मत व्यवस्था, आदि की मांग क्यों न करे? इन मसलों पर छटे बयान भी भारत और मोदी को वे सुर्खियां दिलाते, जिनके वे हकदार हैं.
यह सप्ताह इसलिए दिलचस्प रहा कि भारत ने सॉफ्ट (दावोस) और ‘हार्ड’ (गणतंत्र दिवस पर 10 आसियान नेताओं की मौजूदगी), दोनों ताकत का प्रदर्शन किया. नियमसम्मत सामुद्रिक व्यवस्था और संप्रभुता के सम्मान को लेकर एक कड़ा संदेश भारत की पूरब-केंद्रित रणनीति के अनुकूल ही होता. इसने दावोस में दिए संदेश को गणतंत्र दिवस के साथ जुड़ी कूटनीति को बहुत सफाई से जोड़ दिया होता. भारत इस मौके पर चूक गया.
बाहर वालों को लग सकता है कि पिछले एक दशक में भारत ने अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर बड़े वादे करके कमजोर प्रदर्शन करने के बाद एक और लीक से हट कर काम कर डाला. उसने अपने पूरे दम से मुक्का नहीं चलाया. अफसोस की बात यह है कि वह दावोस के इम्तहान में अभी भी फेल हो रहा है. वहां इसके सत्र में 10 साल पहले की तरह ही हॉल केवल भारतीयों से भरा होता है. जब तक दुनिया वाले इसमें भाग लेने के लिए आगे नहीं आएंगे, तब तक भारत विश्व मंच पर दमदार मौजूदगी नहीं दर्ज कर पाएगा, भले ही हम अपनी ही पीठ ठोकते रहें.