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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टफंस गए रे ओबामाः तानाशाहों से दोस्ती रखने वाले मोदी के दोस्त 'बराक' उन्हें मुसलमानों पर उपदेश दे रहे हैं

फंस गए रे ओबामाः तानाशाहों से दोस्ती रखने वाले मोदी के दोस्त ‘बराक’ उन्हें मुसलमानों पर उपदेश दे रहे हैं

भारत में मुसलमानों के प्रति बरताव के मामले में मोदी पर अंगुली उठाकर ओबामा ने इस बहस में हस्तक्षेप किया. लेकिन तानाशाहों से हेलमेल रखते रहे अमेरिका का कोई राष्ट्रपति दूसरों को किस मुंह से उपदेश दे सकते हैं?

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इस कॉलम का आप जो शीर्षक देख रहे हैं वह टाइपिंग की कोई गड़बड़ी नहीं है. जी हां, यह सुभाष कपूर की 2010 की शानदार फिल्म का नाम है. आपने ठीक ही अनुमान लगाया होगा कि यहां जिक्र अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा उस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना का है, जब मोदी राष्ट्रपति जो बाइडन से वाशिंगटन डीसी में शिखर वार्ता करने जा रहे थे. जाहिर है, मोदी के फैन्स ने फौरन इस पर अपना गुस्सा उतारा. अब भारत में ओबामा का कमाऊ व्याख्यान-केरियर फिलहाल तो खतरे में पड़ गया ही दिखता है.  

किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष या कार्यपालिका प्रमुख को दूसरे देश के अपने समकक्षों को कम-से-कम सार्वजनिक रूप से इस तरह कभी गैरदोस्ताना तरह से झिड़कते हुए नहीं सुना जाता. अगर वे ऐसा करते भी हैं तो किसी और जरिए से, उसकी सरकार से दूरी बनाए रखते हुए और निजी तौर पर, लेकिन इस तरह भी कि दुनिया समझ जाए कि संदेश किसकी तरफ से दिया जा रहा है. अब जरा बाइडन और ओबामा के बारे में सोचिए.

ध्यान दीजिए कि कौन बोल रहा है, और उसका जवाब उचित हो सकता है. खासकर तब जबकि इस तरह के उपदेश उस देश के नेता दे रहे हों जो सबसे बुरे को प्रश्रय देते रहे हों, या वे जो बिना चुनाव जीते दशकों तक तानाशाह बने बैठे हों, चाहे वे निकारागुआ के प्रथम ‘सोमोज़ा’ (राष्ट्रपति) (1937-47, 1950-56) हों या तीसरे ‘सोमोज़ा’ (1967-72, 1974-79) (दोनों अनास्तासिओ नाम से मशहूर) हों या इजिप्ट के मौजूदा शासक अब्देल फ़तह अल-सीसी या पाकिस्तान के ज़िया-उल-हक़ से लेकर परवेज़ मुशर्रफ तक या ईरान के शाह या इंडोनेशिया के सुहार्तो या फिलिपीन्स के मार्कोस या क्यूबा के बतिस्ता या चिली के पिनोशेट या ज़ायरे मोबूटू और तमाम दूसरे.

अमेरिका का रुख हमेशा केवल व्यावहारिक ही नहीं बल्कि संशयवादी भी रहा है. इसे समझने का सबसे बढ़िया तरीका फ्रैंक्लीन डेलानो रूज़वेल्ट के उस अविस्मरणीय बयान को याद करना है, जो उन्होंने निकारागुआ में तीन पीढ़ियों तक जारी रही तानाशाही के संस्थापक, सबसे सीनियर ‘सोमोज़ा’ के बारे में दिया था. रूज़वेल्ट ने कहा था, “वे कुत्ते की औलाद हो सकते हैं, लेकिन वे हमारे कुत्ते की औलाद हैं.” यह वाक्य मैंने फिर से उस दिलचस्प शोधपत्र ‘मैनेजिंग अवर एसओबी : वाशिंगटन्स रेस्पोंस टु फ्रेंडली डिक्टेटर्स इन ट्रबल’ में देखा, जो हमारे नेशनल सिकुरिटी एडिटर प्रवीण स्वामी को विले ऑनलाइन लाइब्रेरी में मिला.

आप कनाडा के राजनीति विज्ञानी विक्टर बेलिव्यु द्वारा लिखे गए को यहां प्राप्त कर सकते हैं. इन दो लेखों को भी देखें. पहले लेख में उन 25 तानाशाहों का जिक्र है जिनसे ओबामा को निबटना पड़ा था. दूसरे लेख में उन 35 तानाशाहों का जिक्र है जिनसे अमेरिका को कई दशकों तक निबटना पड़ा.

लेकिन, ओबामा अब क्या कह रहे हैं? उपरोक्त शिखर बैठक से पहले, करीब 70 अमेरिकी सिनेटरों और अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों ने बाइडन को संयुक्त रूप से पत्र लिखकर मांग की थी कि वे भारत में अल्पसंख्यकों (मुसलमानों), सिविल सोसाइटी और मीडिया के साथ हो रहे बरताव का मुद्दा मोदी के सामने रखें. संक्षिप्त संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाइडन ने इस बात से इनकार नहीं किया कि उन्होंने ऐसा किया, लेकिन इसके साथ उन्होंने साझा मूल्यों, समान लोकतांत्रिक डीएनए जैसे घिसी-पिटी बातें भी जोड़ दी. बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में भी इसी तरह के नीरस उल्लेख किए गए.

लेकिन इस कॉलम का शीर्षक द्विपक्षीय वार्ता शुरू होने से पहले ही उभरा.  

सीएनएन ने समय का सोच-समझकर चुनाव करके बराक ओबामा का वह इंटरव्यू प्रसारित किया जिसे क्रिस्टीन अमनपौर ने लिया था. क्रिस्टीन ने ओबामा से सवाल पूछा था कि वे और अमेरिका के राष्ट्रपति उन तानाशाह शासकों या “मोदी जैसे अनुदार लोकतांत्रिक नेताओं” से कैसे निबटते रहे हैं, जो अमेरिका के सहयोगी रहे हैं. यह संदर्भ रखते हुए ओबामा से खास तौर से पूछा गया कि वे ऐसे मसलों को मोदी के सामने उठाने के मामले में बाइडन को क्या सुझाव देंगे?

ओबामा ने जवाब देते हुए कबूल किया कि ऐसा नहीं था कि उन्हें अमेरिका के जिन सहयोगियों से निबटना पड़ा वे सब-के-सब “आदर्श” लोकतांत्रिक तरीके से अपनी सरकार चला रहे थे, लेकिन ओबामा ने अपने व्यापक राष्ट्रहित का हवाला दिया. उदाहरण के लिए, उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन, पेरिस समझौता जैसे मसलों का जिक्र किया, जिनके बारे में उन्होंने शी जिनपिंग और मोदी से बात की थी.

बाइडन मोदी से क्या कुछ कहें, इस बारे में सलाह देने के मामले में ओबामा ने पहले तो यह कहा कि बाइडन जब मोदी से मिलें, तब “हिंदुओं की बहुसंख्या वाले भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मसला जिक्र किए जाने के काबिल है”. इसके बाद कुछ हल्के से विस्तार करते हुए उन्होंने कहा, “अगर भारत में स्थानीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं की जाती तो पूरी संभावना है कि किसी-न-किसी मुकाम पर भारत टूटने लगेगा… यह न केवल मुस्लिम भारत बल्कि हिंदू भारत के हितों के भी खिलाफ होगा.”


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यहां मैं अपनी कोई अंतर्दृष्टि रखने का दावा नहीं कर सकता, लेकिन एक-दो बातें जोड़ी जा सकती हैं. अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी और खासकर बाइडन शासन मोदी को तीखा संदेश देना चाहता था, जो किसी शिखर बैठक के माहौल में देना मुमकिन नहीं होता है. इसलिए क्यों न हाल के दशकों के सबसे प्रमुख डेमोक्रेट से यह संदेश दिलवाया जाए? याद रहे कि ओबामा के दो कार्यकालों में बाइडन उनके उप-राष्ट्रपति थे.

यहां पर कई अहम सवाल उभरते हैं. पहला यह कि क्या भारत का लोकतंत्र मुकम्मिल हाल में है? इसका सबसे नरम जवाब यह हो सकता है : काश इससे बेहतर हाल में होता. या यह भी कि वह दौर बताइए जब वह मुकम्मिल हाल में था.

दूसरा सवाल यह कि पिछले आठ दशकों में सबसे बदतर तानाशाहों के साथ हेलमेल रखने का ‘शानदार’  रेकॉर्ड रखने वाला अमेरिका किस मुंह से दूसरों को उनके लोकतंत्र के बारे में उपदेश दे सकता है? इसका क्या नैतिक अधिकार है उसे?

और तीसरा सवाल यह कि इस तरह का उपदेश जिसे दिया जा रहा है वह इसकी परवाह क्यों करेगा?

पहले दो सवालों के जवाब मैं पहले ही दे चुका हूं. तीसरे सवाल पर कुछ चर्चा की जरूरत है. ठेठ किस्म के तानाशाह, और अनुदार तथा निर्वाचित तानशाह के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि पहले वाले को आलोचना से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन दूसरे तरह के तानशाह को इससे बहुत परेशानी महसूस होती है.

हंगरी के विक्टर ओर्बन और तुर्की के रिसेप तय्यब एर्दोगन, दोनों ‘नाटो’ के सदस्य हैं और इस नाते अमेरिका के सहयोगी हैं. ओर्बन निर्वाचित तानशाह हैं, जबकि एर्दोगन अब करीब दो दशकों से करीब अर्द्ध-निर्वाचित हैं. अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी बराबर उनकी आलोचना करते रहे हैं. दोनों को इससे उतनी परेशानी नहीं है जितनी मोदी को हो सकती है, लेकिन वे उतने भी बेपरवाह नहीं हैं जितने, उदाहरण के लिए, ज़िया-उल-हक़ थे.   

हम कई सख्त तानाशाहों के लिए ज़िया का उदाहरण इसलिए देते रहे हैं क्योंकि हम उनसे काफी परिचित रहे हैं. उन्होंने फौजी तानाशाही कायम करने के लिए अपने पूर्ववर्ती का तख़्ता पलटा, उन्हें जेल में डाला और सजाए मौत भी दे दी. तभी, सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और अमेरिका के छद्मयुद्ध में वे उसके अपरिहार्य सहयोगी बन गए. 

उस छद्मयुद्ध में समर्थन देने के एवज में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने जब उन्हें 40 करोड़ डॉलर की पेशकश की थी तब ज़िया ने बड़ी उपेक्षा के साथ जिस तरह उसे “मूंगफली” नाम दिया था वह काबिले गौर है. वे सीधे कार्टर का ही मज़ाक उड़ा रहे थे, जो जॉर्जिया में मूंगफली की खेती करने वाले किसान रहे थे. हम सब जानते हैं कि इसके बाद क्या हुआ था. बुरा मानने की जगह अमेरिका ने अपने बटुए का मुंह और खोल दिया था और अरबों डॉलर के साथ एफ-16 विमानों की भी पेशकश की थी तथा पाकिस्तान की परमाणु हथियार परियोजना की ओर से आंखें मूंद ली थीं.

ज़िया के निधन के करीब एक दशक बाद, अमेरिकी उपहार सी-130 विमानों पर सवार जनरल परवेज़ मुशर्रफ वैसे ही नये तानाशाह के रूप में उभरे, और 9/11 कांड के बाद उन्हें बुश शासन का “अग्रणी साथी” नाम दिया गया. किसी ने मुशर्रफ को उनकी ‘जम्हूरियत’ के बारे में उपदेश दिया हो, यह तो हमने बहुत सुना नहीं.  

यहां पर तीन छोटे मुद्दे उभरते हैं—

• तमाम देश नैतिकता का चाहे जो दिखावा करें, वे वही करते हैं जो उनके अपने हित में होता है. हमने अमेरिका के बारे में कई उदाहरण दिए हैं. गौर कीजिए कि कंपूचिया (कंबोडिया) में जनसंहार, अफगानिस्तान पर सोवियत हमले, और अब म्यांमार में फौजी तानाशाहों पर भारत ने किस तरह “तटस्थ” रुख अपनाया. नैतिकता के मसले व्यापक राष्ट्रीय हितों के आगे हमेशा गौण पड़ जाते हैं.  

• दोस्त देश (वे जिनके रणनीतिक हित समान होते हैं) एक-दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से धिक्कार सकते हैं लेकिन किसी मसले को इस हद तक कभी नहीं खींच सकते कि उनके रिश्ते ही बिगड़ जाएं. ये तथाकथित कड़वी बातें प्रायः अपनी घरेलू जनता को संतुष्ट करने के लिए की जाती हैं. अमेरिकी डेमोक्रेटों का ताजा मामला भी ऐसा ही कुछ लगता है.

• तीसरे, कोई निर्वाचित नेता, खासकर मोदी जितना लोकप्रिय, आलोचनाओं के प्रति उतना उदासीन नहीं रह सकता जितना कोई ठेठ तानाशाह रहता है लेकिन आलोचनाएं उसे अपनी वह राजनीति छोड़ने को मजबूर नहीं करतीं जो उसके लिए कारगर रही है.

इसलिए तथ्य, तर्क, जवाबी तर्क अपनी जगह हैं. किसी भी लोकतांत्रिक देश और समाज को अपने लोकतंत्र की रक्षा और विकास के लिए खुद ही उपक्रम करना पड़ता है, खासकर तब जब कि वह देश भारत जितना विशाल हो. उसके लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाना किसी विदेश ताकत के लिए असंभव है. इसी तरह, कोई भी विदेशी आवाज़, चाहे वह कितनी भी प्रभावशाली क्यों न हो या किसी वर्तमान या पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति की ही क्यों न हो, उसके लोकतंत्र को न तो बेहतर बना सकती है और न उसकी रक्षा कर सकती है. ओबामा की तरह के हस्तक्षेप किसी घरेलू जमात को संतुष्ट करने के अलावा बस एक-दो दिन के लिए ही हलचल पैदा करके रह जाते हैं.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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