scorecardresearch
Monday, 16 December, 2024
होममत-विमतपेगासस स्कैंडल से पता चलता है कि भारत का 'lawful interception' कितना अराजक हो गया है

पेगासस स्कैंडल से पता चलता है कि भारत का ‘lawful interception’ कितना अराजक हो गया है

कई प्रजातंत्र मानते हैं कि गंभीर अपराधों के मामले में कानूनी निगरानी बहुत जरूरी है. लेकिन भारत की कार्यपालिका जैसी अबाधित शक्तियां बहुत कम लोकतंत्रों को ही प्राप्त हैं.

Text Size:

ब्रिटिश की संसद में जब दुनिया की पहली बड़ी निगरानी (जासूसी) का मामला उठा था, तब सन् 1844 की गर्मियों में ‘लंदन टाइम्स’ अपने बेबाक शीर्षक में उसे असंसदीय, कठोर, और गैर-ब्रितानी कहते हुए उसकी भर्त्सना की थी. इसी साल की शुरूआत में इटली के राष्ट्रवादी जिसेपे मेज़ीनी और सांसद थामस डंसकांबे को लगा था कि उनकी चिट्ठीयां कहीं रोकी जा रही हैं और तब उन्होंने जासूसों को पकड़ने की कवायद शुरू कर दी थी. वे सही थेः गृह सचिव ने मेज़ीनी के मेलबैग को अलग करने, उसे इनर रूम में भेजने, खोलने और उसकी कापी करने के संबंध में गोपनीय आदेश दिया गया था. हांलाकि, मेजिनी को दुनिया का सबसे नाकारा और कुख्यात व्यक्ति बताते हुए ‘टाइम्स’ ने लिखा था कि ‘वह कैसे भी व्यक्ति क्यों न हों, तब भी इस बात की कोई वजह नहीं बनती कि उनके पत्रों को कब्जे में लिया जाय और उन्हें खोला जाए.’

पिछले सप्ताह इस बात के ताजा सबूत मिले कि इज्राइल की एनएसओ कंपनी ने पेगासस जांच तकनीकी भारत को बेची है- दी वायर ने खुलासा किया था कि यह तकनीकी राजनीतिक विरोधियों और पत्रकारों की जासूसी करने करने के लिए है. मीडिया में चल रही बहस के केंद्र में, पेगासस की खतरनाक क्षमता और उसके भारी दुरूपयोग की बात कही गई. साथ ही, यह भी कहा गया कि इसके माध्यम से सरकारें, निजी डिजिटल डाटा तक अपनी पहुंच बना सकती हैं.

हो सकता है कि भारतीयों के लिए उत्पीड़न से बड़ा कोई और मुद्दा होः जहां राज्य को यह शक्ति प्राप्त हो कि वह अपने नागरिकों पर जासूसी करा सके, जिसका कोई कानूनी आधार न हो और न ही उसकी कोई सुनवाई हो जैसा की कई दूसरे लोकतांत्रिक देशों में है. कानूनी अवरोध की बात ब्रिटेन ने लगभग डेढ़ दशक पहले पहचान ली थी, जिसका इस्तेमाल असीमित सत्ता करती है. यह लोकतंत्र के लिए एक नया खतरा बनकर उभरा है.

कानूनी अवरोध की स्वेच्छाचारिता

भारतीयों के डिजिटल संचार के माध्यमों- मोबाइल, कंप्यूटरों, स्टोर किए गए डाटा- को बाधित करने का अधिकार, सूचना तकनीकी कानून के तहत केंद्रीय गृह सचिव या राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के गृह सचिवों को है. कुछ खास परिस्थितियों जैसे आंतकी कारगुजारियों को रोकने की दशा में इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस या सरकार का संयुक्त सचिव आपातकालीन आदेश पारित कर सकते हैं. इन आदेशों का परिक्षण करने के लिए एक कमेटी का प्रावधान है लेकिन उसमें किसी न्यायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था नहीं है.

संक्षेप में कहें तो इस कानून के तहत सिर्फ कार्यकारी को यह अधिकार है कि वह तय करे कि इलेक्ट्रॉनिक जांच की जरूरत है या नहीं. अगर परिणाम कहते हैं कि यह जारी रहेगा और इसे कब न्यायिक सत्ता के सुपुर्द करना है तो इसका निर्णय कार्यकारी ही करेगा. कुल मिलाकर अपने कार्यों की समीक्षा का अधिकार कार्यकारी के पास ही रहने वाला है.

भारत की तरह ही तमाम लोकतांत्रिक देश गंभीर आपराधिक मामलों में कानूनी जांच की जरूरत को महत्व देते हैं, उसे समझते हैं. लेकिन कुछ ही देशों में कार्यकारी के पास ही इस तरह के असीमित अधिकार हैं. ब्रिटेन के कानून में सेक्रेटरी आफ स्टेट, जिसका पद भारत के गृह मंत्री के बराबर है, को यह अधिकार है कि वह कानूनी अवरोध संबंधी कार्यवाई के लिए नौ एजेंसियों को काम पर लगाए. लेकिन उन लोगों के यहां व्यापक सुरक्षात्मक इंतजाम हैं, जिसमें स्वतंत्र समीक्षा ट्रिब्यूनल भी है. इस ट्रिब्यूनल में कई जज और वकील शामिल रहते हैं.

अमेरिका में नागरिक के ऊपर जांच बिठाने के पहले, पुलिस को जज से वारंट लेने की जरूरत होती है. साथ ही, उन्हें अपने प्रार्थनापत्र में यह भी लिखना पड़ता है कि जांच क्यों जरूरी है. इसी तरह की व्यवस्था फ्रांस और जर्मनी में भी है, जहां जूडिशियल (न्यायिक) मजिस्ट्रेट से जांच के संबंध में अनुमति लेनी पड़ती है.

गैरकानूनी निगरानी के आकर्षण

कई पीढ़ियों से भारतीय यह बात जानते रहे हैं कि सरकारें ऐसे तरीकों से निगरानी करती रही हैं जो औपनिवेशिक युग की रीतियों और कानूनों से संचालित होती हैं. इससे प्रजातंत्र को जोड़ने वाली मूल्यों को कमतर करती हैं. त्रिपुरा के पूर्व डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, केएस सुब्रामणियम ने बताया था कि किस तरह से जांच ब्यूरो ने गुजरात पुलिस को निर्देश दिया था कि केंद्र-दक्षिणपंथी राजनीतिक दल स्वतंत्र पार्टी के खिलाफ वायरटैप बिछाए. मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता ने इस पर अपनी आपत्ति जताई थी। तब केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा था कि जो व्यक्ति आदतन सरकारी नीतियों का विरोध करता है उसपर निगरानी रखना जरूरी है.

घरेलू निगरानी कार्यवाहियों को लेकर बहुत थोड़े ही दस्तावेज सार्वजनिक किए गए है, लेकिन माना जाता है कि निगरानी कार्यवाहियां सबसे ज्यादा 1970 के दशक में बढ़ गई थीं. उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के खिलाफ़ इस तरह की जासूसी करवाई थी.

आपातकाल, सन् 1975-77 के बाद जांच एजेंसियों के खिलाफ जांच करने के लिए एलपी सिंह कमेटी का गठन किया गया था. हैरानी की बात है कि इसके नतीजों को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया, जो बताता है कि ज्यादतियां की गई थीं लेकिन किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया और न ही किसी तरह के सुधार को लेकर कोई कदम ही उठाए गए.

उसके बाद दशकों तक स्केंडलों को लेकर बहुत ही कम घटनाएं देखने को मिलीं. सन् 2013 में कथित रूप से रक्षा मंत्री एके अंटोनी के कार्यालय पर इलेक्ट्रॉनिक निगरानी किए जाने का आरोप लगा. ठीक इसी तरह से सन् 2018 में इस बात का खुलासा हुआ कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के वरिष्ठ अधिकारियों ने एक-दूसरे के खिलाफ वायर टैपिंग की है. हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर सन् 2013 में गुजरात की एक महिला के ऊपर आधिकारिक रूप से वायरटेप करने का आरोप लगा हालांकि इस बात की पुष्टि कभी नहीं हो सकी. कहा जाता है कि तमाम राज्यों ने अपने राजनैतिक इस्तेमाल के लिए अवरोधक व्यवस्था कर रखी है.

इस बात की कल्पना करने की करने की भी कोई जरूरत नहीं कि क्यों इस तरह की तकनीक, सरकारों को लुभाती है. एजेंसियां, जिन्होंने पेगासस का इस्तेमाल पत्रकारों के खिलाफ़ किया था, उन्हें मालूम था कि ऐसा करने से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कोई मामला सिद्ध होने वाला है और ऐसा हुआ भी. इसकी बजाय इस तरह के अवरोधी उपकरण से सिर्फ किसी मामले में गासिप, वित्तीय संकटों या निजी खुन्नस ही निकाली जा सकती हैः संक्षेम में यह खेल सिर्फ चरित्र हनन करने और ब्लैकमेल करने तक ही सीमित रहने वाला है.

भारत में यह समस्या इसलिए और भी बढ़ जाती है कि दो मुख्य जांच एजेंसियां- इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च और एनेलिसिस विंग, किसी कानून के तहत कार्यवाई से छूट लेती हैं. परिणामस्वरूप अब तक का इतिहास रहा है कि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अभी तक अपने संसाधनों का उपयोग उन कामों के लिए किया है जिनका राष्ट्रीय सुरक्षा से कम ही लेना-देना रहा है, बल्कि उन्होंने राजनीतिक दलों और नौकरशाहों की निगरानी का काम ही ज्यादा किया है. वास्तव में सारे अधिकारी इन कारगुजारियों में इसीलिए संलिप्त रहे हैं ताकि वे अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रख सकें.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के नेता मनीष तिवारी ने कई सालों तक निजी मेंबर बिल लाने की कोशिश की ताकि जांच एजेंसियों को कानूनी दायरे में लाया जा सके. साथ ही, असीमित शक्ति के दुरूपयोग पर अंकुश लगाते हुए उन्हें उत्तरदायी ठहराया जा सके. साथ ही, उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के जिस खास काम के लिए रखा गया है वह काम सुचारू रूप से चल सके. ध्यान देने वाली बात यह है कि उनकी खुद की पार्टी ने इस दिशा में कोई रूचि नहीं दिखाई.


यह भी पढ़ें : पेगासस का इस्तेमाल कर गैरकानूनी जासूसी करना ‘राष्ट्रद्रोह’: कांग्रेस


सत्ता पर निगरानी तय हो

महारानी ऐनी के समय से ही ब्रिटेन का राजवंश 1702 से 1714 तक अपने लोगों के बातचीत (संचार) को अवरोध करने के अधिकार का आनंद लेता रहा है. मैजिनी के स्केंडल से भी उनके इस अधिकार को कम करने की दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाए गए। सन् 1959 में जब अधिवक्ता पैट्रिक मैरिनान और उनके मुवक्किल के बीच हुए फोन कालों को टेप करने की बात आई तब आधिकारिक रूप से जांच आयोग का गठन किया गया. इसी तरह सन् 1984 में एंटिक के कारोबारी जेम्स मैलोन को तब कोर्ट की शरण लेनी पड़ी जब उन्हें पता चला कि पुलिस ने अनजाने में ही उनकी फोन पर हुई बातचीत को टेप किया है.

हांलाकि, इस बात में दशकों लग गए जब ब्रिटेन की सरकारें इस बात को लेकर माथापच्ची करती रहीं, लेकिन इस बात पर फैसला तभी हो सका जब मानवाधिकार से संबंधित यूरोपीयन कोर्ट ने देश की राजसत्ता पर सुधार करने का दबाव डाला.

अमेरिका की नेशनल सेक्यूरिटी एजेंसी (एनएसए) ने 1960 के दशक में नागरिक अधिकारों के नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर, कलाकार जेन फोंडा और यहां तक कि बच्चों पर कविताएं लिखने वाले बेंजामिन स्पाक को भी नहीं छोड़ा और इन सभी को एक गद्दार के तौर पर रेखांकित करने के लिए अपनी जासूसी का निशाना बनाया. कांग्रेस की ऐतिहासिक जांच समिति ने इस बात को गंभीरता से लेते हुए चेताया कि इस तरह की अनियंत्रित जांच सेवा अपनी मजबूत टेकनोलाजी का उपयोग घरेलू संचार के खिलाफ कर सकती है.

प्रतिरोधी तकनीकी को नियंत्रित करने के जो प्रयास चल रहे हैं वह धारा की विपरीत दिशा में हैं और उन्हें असफल ही होना है. राष्ट्र-राज्यों को यह वैधानिक अधिकार है कि वे अपने शत्रुओं की गोपनीय बातों में टांग अड़ाएं. फाइव आईज – अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के द्वारा पूरी दुनिया में 1970 के दशक से ही जो सुनने वाले स्टेशन संचालित किए जा रहे हैं, उससे संचार व्यवस्था पूरी तरह से खींचकर और कोडिंग की स्थिति में चली गई है. सन् 1993 में विसिलब्लोअर, फ्रेड स्टाक ने अपने बयान में कहा था कि ‘एकलेहन’ नामक कोड नेम से जो व्यवस्था चलाई जा रही है, उसने अपने दोस्तों और शत्रुओं दोनों की जासूसी बिना किसी भेदभाव से की है.

हैकिंग टीम, फिन फिशर, लाक्ड और जीरोडियम जैसी फर्में एनएसओ की तरह ही तकनीकि उपलब्ध करवाती हैं, जबकि चीन, अमेरिका और ब्रिटेन की जांच एजेंसियों के पास अपनी खुद की इन-हाउस तकनीक है.

तकनीकी साक्ष्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि भीमा कोरेगांव मामले में कम से कम कुछ व्यक्तियों पर एक तरह से कठोर और तकनीकी ढंग से लचर मालवेयर, ‘नेटवायर’ का उपयोग किया गया था. इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह से जांच एजेंसियां अबाधित और गैरजिम्मेदाराना ढंग से काम करती हैं. चाहे पेगासस हो और भविष्य में आने वाली अन्य तकनीक, यह बात तो स्पष्ट करनी होगी कि हमारे जासूस किसी न किसी कानून के दायरे में लिए जाएं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments