दो सप्ताह पहले सुप्रीम कोर्ट का सामना आधुनिक दौर के सबसे बड़े खतरे से हो गया. यह खतरा है- सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल से की जाने वाली जासूसी. सौभाग्य से नौ जजों ने अगस्त 2017 में ही ‘जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी एवं अन्य बनाम भारत सरकार’ मामले में ऐसा फैसला सुना दिया था, जिसने निजता यानी ‘प्राइवेसी’ को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित कर दिया. इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इसकी सुरक्षा के लिए सख्त कदम उठाने की छूट मिल गई.
हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के कदम बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं, उसे ज़्यादातर नरेंद्र मोदी सरकार को काफी छूट देते ही देखा गया है.पर्यावरण से लेकर स्वास्थ्य, प्रवासी मजदूरों, नागरिकता, पुलिस के अधिकारों, चुनावी बॉन्ड, पीएम केयर फंड, सीबीआइ और संघीय व्यवस्था तक तमाम मामलों में उसका रवैया ढीलाढाला ही दिखा, जो संविधान के तहत नागरिकों को हासिल शानदार अधिकारों को प्रतिबिंबित नहीं करता. इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर खुद मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने 27 अक्टूबर को जो आदेश सुनाया वह ताजगी भरा बदलाव है.
एक अरसे में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ‘सीमित हलफनामा’ दायर करने, ‘सरासर मौखिक आरोप’ लगाने, या ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर फ्री पास’ हासिल करने की केंद्र सरकार की कोशिश को मंजूर करने को राजी नहीं नज़र आया— खासकर भारतीय नागरिकों के, जिनमें से कई लोकतंत्र के चार स्तंभों का प्रतिनिधित्व करते हैं, लाखों उपकरणों की हैकिंग और उनमें जासूसी के सॉफ्टवेयर आरोपित किए जाने के खिलाफ दर्ज मामलों में. विडंबना यह है कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर जो तर्क दे रही थी उसका उपयोग सुप्रीम कोर्ट ने भी आवश्यक कार्रवाई के रूप में हस्तक्षेप करने की मजबूरी बताने के लिए किया.
नतीजतन, कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जस्टिस आर.वी. रवींद्रन की निगरानी में एक स्वतंत्र टेक्निकल कमिटी गठन करने और उनकी सहायता के लिए पुलिस के पूर्व शीर्ष अधिकारी आलोक जोशी और साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ संदीप ओबेराय को नियुक्त करने का निर्देश जारी किया. कमिटी की कार्यशर्तें व्यापक हैं, उसे यह पता लगाना है कि भारतीयों के खिलाफ पेगासस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया या नहीं, सरकारी एजेंसियों को इसका पता था या नहीं या उन्होंने इसकी मंजूरी दी थी या नहीं, और भारत सरकार को सबसे पहले 2019 में ही जब इसकी सूचना दी गई थी तब उसने क्या कार्रवाई की. इसके अलावा, कमिटी से यह भी कहा गया है कि वह लोगों की निजता की सुरक्षा और नागरिकों द्वारा साइबर सुरक्षा के लिए इस्तेमाल किए जा सकने वाले उपायों की कानूनी व्यवस्था के बारे में सिफ़ारिशें करे. उसे यह सिफ़ारिश करने के लिए कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या अंतरिम व्यवस्था कर सकता है. सबसे मुनासिब बात तो यह है कि कोर्ट ने कमिटी से अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में देने के लिए नहीं कहा है. यह कालेधन पर जस्टिस एम.बी. शाह की ‘एसआइटी’ से अलग है, जिसकी रिपोर्टें अभी भी कोर्ट के रजिस्ट्री विभाग में सड़ रही हैं.
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बहुत कम समय
जस्टिस रवींद्रन की कमिटी को अपना काम पूरा करने के लिए केवल आठ सप्ताह दिए गए हैं, जो काफी हैं. और अधिकतर लोग इसकी संभावना पर संदेह व्यक्त कर सकते हैं. लेकिन अधिकतर लोग जस्टिस रवींद्रन नहीं हैं. मुझे सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित ‘क्रिकेट रिफॉर्म्स कमिटी’ में उन्हें काम करते हुए नजदीक से देखने का सौभाग्य मिला है. उनके जैसा बुद्धिमान, स्वतंत्र, सतर्क और परिश्रमी व्यक्ति मिलना मुश्किल है. ‘बीसीसीआइ’ के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है कि उसके मामले में सरकार और इससे बाहर कई गुट होंगे जो उस कमिटी के कामकाज में रोड़े अटकाते होंगे. पेगासस पर गठित कमिटी अगर इस घोटाले के दलदल से सच को उजागर करने में सफल होती है तो यह उसके लिए स्थायी श्रेय की बात होगी. इसके लिए कोर्ट ने उसे सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों, वकीलों, टेक्निकल विशेषज्ञों से सहायता लेने की छूट देने के अलावा किसी भी पक्ष का बयान लेने और उसे रेकॉर्ड करने की अनुमति भी दी है.
शायद भावी वैधानिक व्यवस्था तैयार करने के काम में रवींद्रन कमिटी को समय की काफी कमी महसूस होगी. 19वीं सदी के पुराने कानूनों, राज्यों के कई अलग-अलग नियमों, ठंडे बस्ते में डाल दिए गए ‘पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन’ विधेयक, और जस्टिस श्रीकृष्ण कमिटी की पिछली रिपोर्ट आदि पर भी विचार किए जाने की जरूरत है. साल के अंत तक एक उम्दा ‘डॉसियर’ तैयार करनी एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है. कमिटी को थोड़ा और समय देना उपयुक्त होगा ताकि वह विभिन्न एजेंसियों, नागरिक समूहों से बात कर सके और इस मसले से जिन लोगों के दांव जुड़े हैं उनके नजरिए पर भी विचार किया जा सके.
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सरकार की भूमिका
पेगासस मामले में कोर्ट आगे क्या रुख अपनाएगा इसे समझना भी फौरी महत्व रखता है. सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद चूंकि इस इकबालिया बयान का संज्ञान लिया है कि भारतीय नागरिकों के लिए सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया है, तब मुख्य सवाल यह रहता है कि यह काम सरकार में बैठे लोगों की जानकारी में या उनकी शह पर किया गया या नहीं. आपराधिक कानून उन पर पूरी तरह लागू होगा जिन्होंने वास्तव में जासूसी की, लेकिन सरकार में इसके लिए कुछ लोगों की बलि ली जाएगी.
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को पेश अपने ‘सीमित हलफनामे’ में लगभग पूरी तरह वैष्णव के उस बयान का सहारा लिया है जो उन्होंने संसद में दिया. इस बयान का निष्कर्ष यह है— ‘हमारे देश में समय की कसौटी पर खरी उतर चुकीं प्रक्रियाएं लागू हैं, जो यह व्यवस्था करती हैं कि निगरानी न हो.’ इस बयान में निगरानी रखी जाने का खंडन तो नहीं किया गया है, और यह संकेत किया गया है कि ‘समय की कसौटी पर खरी उतर चुकीं प्रक्रियाओं’ के कारण इसे अनधिकृत नहीं किया जा सकता है. मैं यह समझना चाहता हूं कि इसका क्या मतलब है, क्योंकि केवल पांच वर्षों में आधार के डेटा बेस से कई बार लीक हो चुकी हैं, हिताची पेमेंट सर्विसेज (आइसीआइसीआइ, यस बैंक, ऐक्सिस, आदि) में जासूसी वाला सॉफ्टवेयर ‘मालवेयर’ लगाने से लाखों क्रेडिट कार्ड असुरक्षित हो गए, भारतीय रेलवे के पोर्टल से 1 करोड़ ग्राहकों के निजी डेटा हैक किए गए, और जोमाटो के 1.7 करोड़ ग्राहकों के ई-मेल और पासवर्ड चुराए जा चुके हैं. ‘इंटरनेट फ़्रीडम फाउंडेशन’ बताता है कि इस साल फरवरी से अप्रैल तक के केवल तीन महीनों में, जब देश महामारी से जूझ रहा था, डेटा चोरी के ये पांच मामले हुए— डोमिनोज़ के 18 करोड़ ग्राहकों द्वार दिए गए ऑर्डर, अपस्टॉक्स के 25 लाख उपभोक्ताओं की और मोबीक्विक की 10 करोड़ जानकारियां, फेसबुक के 60 लाख प्रोफाइल और एअर इंडिया के 45 लाख हवाई यात्रियों के ब्योरे. जाहिर है, ‘समय की कसौटी पर खरी उतर चुकीं प्रक्रियाएं’ बुरी तरह नाकाम साबित हुई हैं.
लेकिन सबसे उल्लेखनीय यह है कि सरकार ने इन जासूसियों का खंडन नहीं किया, न ही उसने यह बताया कि भारत की संप्रभुता का उल्लंघन करने वाली इस विदेशी घुसपैठ की जांच के लिए उसने क्या कदम उठाए.
भारत में, मोबाइल फोन में दर्ज सूचनाओं तक अधिकृत पहुंच और उनकी निगरानी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69 और 2009 के नियमों की नियम संख्या 3 के तहत की जा सकती है. यह नियम कहता है कि इस तरह की निगरानी की अनुमति (क) सक्षम अधिकारी द्वारा जारी आदेश से मिल सकती है या (ख) ‘अपरिहार्य परिस्थितियों’ में किसी नामजद सरकारी अधिकारी (संयुक्त सचिव के स्तर से नीचे के नहीं) के आदेश से मिल सकती है. इन दोनों स्थितियों में यह काम संविधान के अनुच्छेद 19(2) द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों—संप्रभुता, दूसरे देशों के साथ दोस्ताना संबंध, और उकसावे की कार्रवाई— के मद्देनजर ही किया जा सकता है. उक्त मानकों के अभाव में, या मनमाने आदेश से, जिसमें व्यक्तिगत कंप्यूटर का स्पष्ट उल्लेख न हो, की गई कार्रवाई अवैध होगी और इसके लिए एक्ट के तहत तमाम तरह के दंड और जेल की सजा भी हो सकती है.
जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट के लिए काम निश्चित है. अगर कमिटी की रिपोर्ट याचिका दायर करने वालों की आशंकाओं की पुष्टि करती है तब सरकार में इसके लिए जिम्मेदार, और कोर्ट से तथ्यों को छिपाने वाले लोगों को सजा देनी होगी और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी होगी. झूठी गवाही और कोर्ट की अवमानना के लिए कार्रवाई की जा सकती है, और उत्पीड़ितों को मुआवजा देने की व्यवस्था भी उनकी जेब से की जा सकती है जिन्होंने उत्पीड़न किया.
पिछले 20 वर्षों में कालाधन वापस लाने, जेल सुधारों, सड़क सुरक्षा, वायु प्रदूषण पर रोक आदि के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जजों की अध्यक्षता में कई कमिटियां गठित कीं. उन सबकी थोड़ी ही सफलता मिली. अब यही उम्मीद की जा सकती है कि पेगासस मामले में रवींद्रन कमिटी शक्तिशाली देवता की तरह असुर का वध करने में सफल रहेगी.
(गोपाल शंकरनारायणन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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