जहां भारत का धीरे-धीरे वैश्वीकरण हो रहा है, भारतीय बहुत पहले ही वैश्विक हो गए थे. औपनिवेशिक काल में ही भारत के लोग विदेशों में पहुंच गए थे, और अब वहां उनकी संख्या 17.5 मिलियन तक पहुंच गई है– यानि दुनिया का सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय. यदि भारतीय मूल के लोगों को भी शामिल करें, तो यह संख्या 31 मिलियन हो जाती है– हांगकांग से कनाडा तक और न्यूजीलैंड से स्वीडन तक. हालांकि, कोरोनावायरस महामारी लंबे समय से दुनिया भर में जारी भारतीयों के इस प्रसार पर अचानक रोक लगा सकती है.
भारतीय प्रवासन पहले आर्थिक कारणों से और फिर पारिवारिक एकीकरण से प्रेरित रहा है. हाल के वर्षों में, भारत के छात्रों ने दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना शुरू किया था. लेकिन कोरोनावायरस महामारी के बाद अब एक-एक कर अनेक देश अपनी सीमाओं को बंद कर रहे हैं, और प्रवासियों की व्यापक आबादी को स्वदेश लौटने के लिए मजबूर कर रहे हैं. दुनिया भर में भारतीयों के प्रवाह की दिशा उलट रही है और इसके गंभीर नतीजे सामने आएंगे. इससे ज़िंदगियां बाधित होंगी, अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी और विदेशों से भेजे जाने वाले धन की मात्रा बहुत घट जाएगी. हम भारतीयों के लिए इतनी खुली लगने वाली दुनिया, शायद हमारे लिए अपने दरवाजे बंद कर रही है.
यह भी पढ़ेंः कोविड का जवाब ऑनलाइन लर्निंग नहीं है, एक बच्चे को पालने में पूरा गांव जुटता है एक स्क्रीन काफ़ी नहीं
भारतीयों का प्रवासन
ब्रिटिश साम्राज्य के देशों में बागानी काम के लिए गिरमिटिया मज़दूरों को भेजने की औपनिवेशिक प्रथा के कारण भारतीयों ने कई देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. हालांकि, विदेशों में भारतीय समुदाय के विस्तार में पिछले 50 वर्षों के दौरान गति आई, जब भारतीय कामगार खाड़ी के देशों में पहुंचने लगे, हमारे डॉक्टर एवं अन्य पेशेवर अमेरिका जाने लगे और भारतीय छात्र पढ़ाई के लिए विदेशों का रुख करने लगे.
प्रवासी भारतीय समुदाय के बारे में व्यापक अध्ययन और लेखन हो चुका है. इस विषय पर केंद्रित अनगिनत पुस्तकें, फिल्में और टीवी सीरियल सामने आ चुके हैं. प्रवासी भारतीयों ने हर क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है: वे विदेशों में प्रधानमंत्री, सीनेटर और सांसद चुने गए हैं; तथा अरबपति उद्यमी, कंपनियों के सीईओ और फिल्म स्टार, क्रिकेट कप्तान आदि बने हैं.
1960 के दशक में जब अमेरिका और ब्रिटेन में अवसर पैदा हुए, विशेष रूप से पहले चिकित्सा पेशेवरों और फिर इंजीनियरों के लिए, तो अनेक भारतीयों ने आगे बढ़कर उन अवसरों का लाभ उठाया और विदेशों में जा बसे. फिर वाई2के कंप्यूटर संकट का डर फैलने और भारतीय आईटी कंपनियों के एच-1बी वीज़ा में महारत हासिल करने के बाद बड़ी संख्या में भारतीय इंजीनियर अमेरिका जा पहुंचे.
साथ ही, भारत में बढ़ती संपन्नता और विदेशी मुद्रा नियमों को उदार बनाए जाने के कारण छात्रों ने भी बड़ी संख्या में अमेरिका का रुख किया. अमेरिका में वर्तमान में भारतीय मूल के 4 मिलियन से अधिक लोग हैं, जिनमें से 500,000 से अधिक संख्या छात्रों की है. भारत से प्रवासन का यही पैटर्न कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में भी दोहराया गया.
खाड़ी देशों में प्रवासन का स्वरूप थोड़ा अलग है क्योंकि इसमें उच्च शिक्षित पेशेवर भारतीय और आम श्रमिक दोनों ही शामिल हैं. कुछ अनुमानों के अनुसार, विभिन्न खाड़ी देशों में कुल 8 मिलियन से अधिक भारतीय रहते हैं. खाड़ी देशों में काम कर रहे 2.5 मिलियन से अधिक भारतीय तो अकेले केरल से हैं. दुर्भाग्य से खाड़ी देशों में भारतीयों के लिए वहां के समाज में खुद को समाविष्ट करना और नागरिकता हासिल करना अधिक कठिन है.
बाधित ज़िंदगी
कोरोनावायरस महामारी ने प्रवासी भारतीयों के जीवन को बड़े पैमाने पर बाधित किया है. सबसे पहले, अनेक भारतीयों की नौकरियां चली गई हैं या उन्हें अपनी नौकरी खोने की चिंता है. अमेरिका, ब्रिटेन, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा में लाखों की संख्या में ऐसे भारतीय हैं जिन्हें बेरोज़गार होने की स्थिति में अपने मेजबान देश को छोड़कर भारत लौटना पड़ेगा. इसी तरह, खाड़ी देशों में पहले ही 300,000 से अधिक भारतीय अपनी नौकरियां गंवाने के बाद स्वदेश लौटने की तैयारी कर रहे हैं.
दूसरे, महामारी से आम यात्राओं में भी व्यवधान पड़ गया है. प्रवासी भारतीय बेरोकटोक स्वदेश आते-जाते रहते हैं. माता-पिता विदेशों में अपने बच्चों के पास जाते हैं और अपने नाती-पोतों के लालन-पालन में हाथ बंटाते हैं. अधिकतर छात्र भी साल में एक या दो बार स्वदेश की यात्रा करते हैं. ऐसी सारी नियमित यात्राएं बंद हो गई हैं और अंतरराष्ट्रीय उड़ानें दोबारा कब शुरू होंगी इस बारे में कोई निश्चितता नहीं है.
जुड़ाव का सवाल
आखिर में, प्रवासी भारतीय इस बात को लेकर निश्चित नहीं हैं कि उनके और उनके बच्चों का जुड़ाव किस जगह से है. जो अब भी भारतीय नागरिक हैं और जिनका स्थाई निवासी का दर्जा नहीं है, उन्हें इस बात पर संदेह है कि नौकरी छूट जाने के बाद वे अपने मेज़बान देश में रह सकेंगे. जो भारतीय अपनी नागरिकता बदलते हुए प्रवासी भारतीय नागरिक बन गए हैं, वे देख चुके हैं कि किसी भी समय उनके भारत आने पर रोक लग सकती है. विदेशों में अधिकांश भारतीय छात्र यही उम्मीद करते हैं कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वहीं रोज़गार पा सकेंगे. लेकिन रोज़गार के घटते अवसरों और विश्वविद्यालयों द्वारा ऑनलाइन शिक्षा अपनाए जाने को देखते हुए, छात्रों को अपने दीर्घावधि के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है.
भारत के लिए ये सौभाग्य की बात है कि विदेशों में इतनी बड़ी संख्या में और सफल भारतीय रह रहे हैं. हम जानकारियों के हस्तांतरण, निवेश और राजनीतिक समर्थन के रूप में उनके योगदानों से लाभांवित होते हैं. वे भारत के सबसे अच्छे राजदूत हैं.
यह भी पढ़ें: कोविड ने साबित किया है कि हमने लाइफ साइंस अनुसंधान पर पर्याप्त खर्च नहीं किया है, अब समय कुछ करने का है
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रवासी भारतीय द्वारा स्वदेश भेजे जाने वाले धन की मात्रा (2019 में करीब 83 बिलियन डॉलर से भी अधिक) आमतौर पर एफ़पीआई (2019 में 16 बिलियन डॉलर) और एफ़डीआई (2019 में 49 बिलियन डॉलर) के योग से भी अधिक होती है. अब विदेशों से भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले इस धन पर खतरा बन गया है, जिसके कारण हमारी अर्थव्यवस्था के सामने अतिरिक्त चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं.
कोरोनावायरस महामारी ने भारतीय समाज के कई पहलुओं को प्रभावित किया है. हम अपने वैश्विक प्रवासन और अपने व्यापक अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपनी दुनिया के एक अपरिवर्तनीय हिस्से के रूप में देखते रहे हैं. हमारा अधिकांश काम– शिक्षा से लेकर व्यवसाय और फिल्मों तक– एक खुली और स्वागत करती दुनिया पर केंद्रित है. अब जबकि उस दुनिया के दरवाज़े बंद होते दिख रहे हैं, शायद हमारे प्रवासी समुदाय को भी अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ सकता है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखक झारखंड से बीजेपी के संसद और पूर्व मंत्री हैं, ये उनके निजी विचार हैं)