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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान नहीं चाहता आतंकवाद खत्म हो, इसलिए वह मुशर्रफ़ के नक्शे कदम पर चला

पाकिस्तान नहीं चाहता आतंकवाद खत्म हो, इसलिए वह मुशर्रफ़ के नक्शे कदम पर चला

संभव है जनरल बाजवा के इरादे सही हों और इमरान ख़ान उदारवादी हों, पर आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के रवैये में पूर्ण बदलाव की संभावना बहुत कम है.

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संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी घोषित आतंकियों और चरमपंथी गुटों की परिसंपत्तियों को ज़ब्त और प्रतिबंधित करने, और जैश-ए-मोहम्मद के कुछ सरगनाओं को गिरफ्तार करने की पाकिस्तान की नवीनतम घोषणा पर बहुतों को संदेह है. क्योंकि पिछले 30 वर्षों के दौरान अनेकों बार इस तरह की घोषणाएं की जा चुकी हैं.

भला इस बार की कार्रवाई अलग क्यों होगी?

तर्क यह दिया जा रहा है कि वर्षों के संघर्ष और आतंकवाद से पाकिस्तानी थक चुके हैं, और इस कारण बदलाव की एक बड़ी कार्रवाई पहले से आसान हो गई है. परंतु 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए आतंकवादी हमले के तत्काल बाद यही तर्क दिया गया था, जब हमले में 132 बच्चों समेत 141 पाकिस्तानियों की मौत हो गई थी.

तब पाकिस्तान की सेना ने पाकिस्तान के भीतर हमला करने वाले आतंकवादियों के खिलाफ़ एक बड़ा अभियान चलाया था, पर देश के बाहर, खास कर अफ़ग़ानिस्तान और भारत में सक्रिय जिहादियों को नहीं छुआ गया था.

इस बार ये कहा जा रहा है कि असैनिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा के विचारों में सामंजस्य के कारण अंतत: आतंकी-जिहादी ढांचे को ध्वस्त करने की रणनीति के बेहतर समन्वय और ईमानदार कार्यान्वयन का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा.

हालांकि, विगत में असैनिक नेताओं और सेना के बीच विवाद अंशत: इस बात को लेकर होते थे कि आतंकवाद विरोधी कदम किस हद तक उठाए जाएं. ये साफ नहीं है कि बाजवा और ख़ान के विचारों में समानता कैसे एक अधिक सख्त आतंकवाद रोधी नीति अपनाने में सहायक होगी.

जनरल बाजवा गंभीर और नेक इरादे वाले हो सकते हैं, और संभव है इमरान ख़ान अपने तालिबान समर्थक बयानों के विपरीत वास्तव में अधिक उदार और पश्चिमी दृष्टिकोण वाले हों. पर ये बात स्पष्ट है कि पाकिस्तान का सामना एक ढांचागत, संस्थागत और गहरी पैठ वाले कारण से है जो कि तीन दशकों से जिहादियों के फलना-फूलने की वज़ह बनी हुई है. यह कारण शायद व्यक्तित्वों पर भारी पड़ता है.


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पाकिस्तान द्वारा जिहादियों के खिलाफ़ की गईं सभी घोषणाएं, लगभग हर मौके पर, अंतरराष्ट्रीय दबाव में की जाती रही हैं. इस बारे में सरकार की कहानी अनेकों बार बदल चुकी है. अक्सर यह ‘पाकिस्तान में कोई आतंकवादी संगठन नहीं है’ से शुरू होकर ‘इन संगठनों को सरकार का समर्थन नहीं है’ और ‘आतंकवाद की इन घटनाओं में उनका हाथ होने के सबूत नहीं हैं’ तक आती है, और फिर अंतत: ‘हमने इस संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया है, इनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया है, और इनकी परिसंपत्तियों को ज़ब्त कर लिया है’ पर आकर समाप्त होती है.

इस बीच, ज़मीनी हक़ीक़त जस की तस रहती है. उदाहरण के लिए आतंकवादी हमले करना युवाओं का काम है, और भले ही जिहादी संगठनों के संस्थापक और अमीर सरगना समय बीतने पर उम्रदराज़ हो गए हों, पर बारंबार प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद आतंकी संगठन आतंकवादियों की युवा पीढ़ियों की भर्ती और ट्रेनिंग का काम करते रहते हैं.

बेशक, आतंकवादी गुटों के सदस्यों को हिरासत में लेते हुए नए आतंकवादियों की भर्ती और ट्रेनिंग की प्रक्रिया बंद करा देने से अब तक जिहादी संगठनों की आतंकी हमले करने की क्षमता खत्म हो गई होती. जब तक ऐसा नहीं होता, आलोचक सही कहते हैं कि ऐसी कार्रवाइयां अधूरे मन से या सिर्फ सकारात्मक मीडिया कवरेज़ के लिए की जाती हैं.

1999 से 2008 तक पाकिस्तान के शीर्ष नेतृत्व में एकात्मकता, मौजूदा ख़ान-बाजवा द्विशासन के सामंजस्य के मुकाबले कहीं अधिक थी. तब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ सेना प्रमुख और पाकिस्तान के राष्ट्रपति दोनों ही थे. उनके सामने 9/11 ने एक बड़ी चुनौती पेश की, जब मुशर्रफ़ ने कहा था कि उन्हें आगाह किया गया है कि अमेरिका पाकिस्तान को पाषाण काल में धकेलने की कूबत रखता है.

उस धमकी की प्रतिक्रिया में मुशर्रफ़ ने एक प्रभावी कार्यविधि (प्लेबुक) तैयार की, जिस पर पाकिस्तान अब भी चल रहा है. इस प्लेबुक में खुद को पीड़ित दिखाना, कार्रवाई करने का वादा करना, कुछ गुटों पर प्रतिबंध लगाना और कुछ गिरफ्तारियों के आदेश देना, पर क्षेत्र में छद्म युद्ध के साधन के रूप में जिहादियों को संरक्षण देने की बुनियादी नीति को नहीं छोड़ना जैसे कदम शामिल हैं.

कोई चाहे जितनी उम्मीद लगा ले, पर पाकिस्तान ने अपने जिहादी प्रतिनिधियों को बर्दाश्त करने और उन्हें समर्थन देने के अंतर्निहित तर्क को नहीं छोड़ा है. पाकिस्तान के सैन्य रणनीतिकारों का मानना है कि जिहादी कम लागत में असंगत युद्ध के लिए पाकिस्तान के काम आते हैं और वे उसकी सामरिक चिंताओं – कश्मीर और अफ़ग़ानिस्तान – को महत्वपूर्ण बनाए रखने में मददगार है, खास कर ऐसे समय जब पाकिस्तान इन विषयों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का पर्याप्त ध्यान आकर्षित करने की स्थिति में नहीं है.

पाकिस्तान की विगत 30 वर्षों के जिहादी खुराफ़ात का खामियाजा अफ़ग़ानिस्तान, कश्मीर, और पाकिस्तान के आम लोगों को भुगतना पड़ा है. दुर्भाग्य से, पाकिस्तान के सामरिक नीतिकारों ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि जिससे लगे कि वे इसे मात्र आनुषंगिक क्षति से ज़्यादा कुछ मानते हैं.

जनरल बाजवा ने पाकिस्तान के आलोचकों को संकेत देने की कोशिश की है कि पाकिस्तान और उसकी सेना में बदलाव आ चुका है, पर बदलाव को स्वीकार किए जाने से पहले ठोस सबूतो की दरकार होगी. अभी तक पुराने ढर्रे के दोहराव बिल्कुल साफ दिखता है. उदाहरण के लिए, जैश-ए-मोहम्मद पर हाल में फिर से प्रतिबंध लगाते समय प्रयुक्त भाषा, लगभग वैसी ही है जो उस पर पहली बार प्रतिबंध के समय थी.

जनवरी 2002 में टेलीविजन पर दिए मुशर्रफ़ के भाषण के पाठ को ही देखिए, जिसमें उन्होंने खुल कर ऐलान किया था कि ‘अतिवाद के खिलाफ़ हमारा अभियान शुरू से ही हमारे राष्ट्रीय हित में रहा है. हम ऐसा किसी के कहने पर या किसी के दबाव में नहीं कर रहे.’

उन्होंने 17 वर्ष पहले, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा समेत कई चरमपंथी गुटों पर प्रतिबंध की घोषणा करते हुए, यह वादा भी किया था कि ‘किसी भी संगठन को कश्मीर के नाम पर आतंकवाद में शामिल होने की इजाज़त नहीं दी जाएगी.’ पर राष्ट्रपति-सह-सेनाध्यक्ष अपने वादे पर खरा उतरने में नाकाम रहे.


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मुझे बदलाव की स्थिति में मुशर्रफ़ की काबिलियत पर शुरू से ही संशय था. जब 25 सितंबर 2002 को प्रकाशित एक लेख में मैंने संदेह व्यक्त किया कि पाकिस्तान का यू-टर्न अधूरा है, तो मेरे कई चिर-आशावादी अमेरिकी मित्रों ने कारणों को गिनाने की होड़ लगा दी कि क्यों मुझे जिहाद खत्म करने की पाकिस्तान सरकार की प्रतिबद्धता पर भरोसा रखना चाहिए.

मैंने लिखा था, ’11 सितंबर के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका का साथ देते हुए जनरल मुशर्रफ़ ने अमेरिका के पाकिस्तान की तरफ झुकने, खास कर भारत के साथ उसके विवाद को लेकर, की उम्मीद की थी. इसी उम्मीद से फील्ड मार्शल अयूब ख़ान ने 1960 के दशक में पेशावर के निकट बदाबर से तत्कालीन सोवियत संघ के खिलाफ़ यू-2 खुफिया विमानों की उड़ानों को संचालित होने दिया था, और इसी उम्मीद ने 1971 में जनरल याह्या ख़ान को बांग्लादेश को लेकर युद्ध में धकेला था.

परंतु अमेरिका पाकिस्तान को ध्यान में रखते हुए अपनी विश्वदृष्टि को नहीं बदल सकता. बुश प्रशासन जनरल मुशर्रफ़ की सहायता के लिए तैयार है, पर एक हद तक ही. जैसे ही अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध में अमेरिका को पाकिस्तान की ज़रूरत कम पड़ती दिखेगी, या उसका फोकस इराक़ जैसे किसी दूसरे क्षेत्र की ओर स्थानांतरित होगा, मुशर्रफ़ की ज़रूरतों पर उसका कम ध्यान देना तय है.’

और बिल्कुल ऐसा ही हुआ. यह स्पष्ट होते ही कि अमेरिका मुशर्रफ़ को वो सब नहीं देगा जो कि वह भारत के संदर्भ में चाहते हैं, पाकिस्तान ने अपने मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करने के लिए जिहादियों को फिर से समर्थन देना शुरू कर दिया.
अब, अमेरिका की पाकिस्तान की ओर झुकने में पहले से भी कम रुचि है और पाकिस्तान के बारे में अंतरराष्ट्रीय राय मुशर्रफ़ के काल की तुलना में कहीं कम अनुकूल है. पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की दृष्टि से देखें तो पुलवामा हमले के बाद के परिदृश्य में उसके अनुकूल एक ही बात है-जम्मू कश्मीर में हिंसा, परेशानी और वहां भारत के मानवाधिकार उल्लंघनों पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान जाना.


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ऐसी परिस्थितियों में मुशर्रफ़ के प्लेबुक को आजमाया ही जाएगा, न कि उसे त्याग दिया जाएगा. अभी पिछले साल ही आंतरिक मामलों के मंत्री शहरयार अफरीदी ने कैमरे के सामने कहा था कि उनके जीते जी कोई भी हाफिज़ सईद और मसूद अज़हर को हाथ नहीं लगा सकता. आगे चलकर उन्होंने सईद के लश्कर और अज़हर के जैश समते 68 प्रतिबंधित संगठनों की सूची जारी की थी.

इस बीच, अभी पिछले सप्ताह तक विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी बारंबार 30 वर्षों से दोहराए जा रहे मंत्र का जाप कर रहे थे कि ‘वे हमारे यहां नहीं हैं,’ ‘सरकार इसमें शामिल नहीं है,’ ‘उनके खिलाफ़ सबूत नहीं है.’ मेरी यही कामना है कि इस बार मैं गलत साबित हो जाऊं, पर अभी तक इस बात का कोई संकेत नहीं है कि जिस पूर्ण बदलाव की हम उम्मीद कर रहे हैं वह आखिरकार हो रहा है.

(लेखक वाशिंगटन डीसी स्थिति हडसन इंस्टीट्यूट में दक्षिण एवं मध्य एशिया के निदेशक हैं. वह 2008-11 के दौरान अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे. ‘रीइमेजनिंग पाकिस्तान’ उनकी नवीनतम पुस्तक है.)

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