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Saturday, 25 October, 2025
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पाकिस्तान बमों से तालिबान को नहीं झुका सकता, उसे डूरंड लाइन को यमन जैसी स्थिति से बचाना होगा

यह टकराव अफगानों और पाकिस्तानियों की कार्रवाई नहीं है. इसकी जो शैली है वह ठेके पर ली गई दिखती है. दूसरे देशों को इसे आवश्यक बताने के लिए टकराव बढ़ाना, जबकि काबुल को पुराने परिप्रेक्ष्य के तहत दबाकर रखना जरूरी लगता है.

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डुरंड रेखा पर 2021 के बाद का सबसे खूनखराबा भरा सप्ताह क़तर और तुर्किये की मध्यस्थता के बाद शनिवार को दोहा में फौरन युद्धविराम की घोषणा के साथ खत्म हुआ. इस सुलह से पहले कई गंभीर घटनाएं घटीं. पाकिस्तान ने काबुल पर बेहिसाब हमला किया, डुरंड रेखा पर दोनों तरफ से जमकर गोलाबारी हुई, तोरखम और चमन के चौराहों को बंद कर दिया गया और बाद में पक्टिका [आर हवाई हमले किए गए जिनमें तीन युवा अफगान क्रिकेट खिलाड़ी (कबीर आग़ा, सिबगतुल्लाह और हारून) समेत कई नागरिक मारे गए. इसके बाद अफगानिस्तान ने पाकिस्तान के साथ तीन देशों की प्रस्तावित क्रिकेट सीरीज़ से हटने का फैसला कर लिया.

पाकिस्तान ने अब तक के इतिहास में पहली बार काबुल पर 9 अक्टूबर को जब हमला किया उसके बाद मारकाट मच गई जिसके निशाने पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के नेता नूर वाली महसूद थे. अफगानिस्तान की संप्रभुता पर हमले के बाद दोनों मुल्कों के रिश्ते गर्त में पहुंच गए.

इतिहास बताता है कि युद्धविराम केवल अस्थायी शांति लाता है, यह कोई स्थायी समाधान नहीं होता. जब तक ठोस उपाय नहीं किए जाते, दोहा वार्ता के बाद हुआ यह युद्धविराम केवल अगली हिंसा को थोड़ा और टाल देगा.

रणनीतिक बदलाव काबुल, कांधार, और पक्टिका पर हमलों के नीचे छिपा है. दशकों से, पाकिस्तान के ‘रणनीतिक गहराई’ के सिद्धांत ने अफगान के कर्ताधर्ताओं को भारत के प्रभाव को बेअसर करने का रास्ता बनाया. लेकिन इससे उसके अपने मुल्क के अंदर कोई फायदा नहीं पहुंचा, महंगाई और उसकी मुद्रा को मिले झटकों ने गरीबी बढ़ा दी, हाल के वर्षों में कम कमाई करने वालों की तकलीफ़ें और बढ़ीं. सियासत असैनिक मंत्रिमंडलों और लंबी फौजी हुकूमत के बीच झूलती रही और अभी भी यही हुकूमत प्रमुख फैसले कर रही है.

इस बीच, बलूच अलगाववादियों के हमलों के साथ-साथ चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर (सीपीईसी) और चीन के लक्ष्य उग्र होते गए हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि ‘गहराई’ ने न तो काबुल का वजन बढ़ाया और न वह पाकिस्तान में खुशहाली ला पाई.

काबुल में अपने चैनल और अपना वजन रखने के बावजूद पाकिस्तान ने टीटीपी के मसले का निबटारा करने की जगह खुद को पीड़ित दिखाने के नाटक पर ज़ोर देने के लिए हवाई हमले कर दिए. राजनीतिक लाभ के लिए हवाई ताकत का सहारा लेना एक बुरा कारोबार है.

तालिबान अब छापामार गिरोह नहीं रह गया है. शासनतंत्र और घरेलू आय पर उसकी पकड़ है, जिसके बूते वह अलगथलग पड़ने पर भी दबाव का सामना कर सकेगा. वित्तीय रूप से मजबूत जिस आंदोलन ने अब तक आंतरिक एकजुटता को अहमियत दी है उसे बमों के हमले दबाव में नहीं डाल सकते. इसके अलावा, तालिबानी फौज ने डुरंड रेखा पर मजबूती से जवाबी हमले किए और कई पाकिस्तानी चौकियों पर कब्जी करके हथियार और वर्दियां जब्त की और उन्हें बाद में कई शहरों में जीत की निशानियों के रूप में प्रदर्शित किया.

कौन चाहता है यह लड़ाई?

यह टक्कर गैरज़रूरी है और यह अफगानों और पाकिस्तानियों की कार्रवाई नहीं है. इसकी जो शैली है वह ठेके पर ली गई दिखती है. दूसरे देशों को इसे आवश्यक बताने के लिए टकराव बढ़ाना, जबकि काबुल को पुराने परिप्रेक्ष्य के तहत दबाकर रखना जरूरी लगता है. पाकिस्तान के ताकतवर सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल आसिम मुनीर ने इस साल अमेरिका की तरफ असामान्य किस्म की पेशकश की और जून में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के साथ व्हाइट हाउस में भोज किया और फिर उनसे दूसरी बार सितंबर में प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ के साथ मुलाक़ात की.

इस प्रदर्शन ने बता दिया कि अफगानिस्तान का दबाव और अमेरिका से दोस्ताना किस तरह समांतर रूप से चल सकता है, जबकि पाकिस्तान ने खुद को एक अपरिहार्य वार्ताकार के रूप में प्रस्तुत किया.

इतिहास कई सबक सिखाता है. आईएसआई के मुखिया जनरल फैज हमीद ने सितंबर 2012 में काबुल का दौर किया था तब यह केवल एक प्रदर्शन नहीं था. तालिबान की मध्यस्थता में पाकिस्तान ने टीटीपी से बात की थी जिसके बाद 9 नवंबर 2021 से एक महीने तक युद्धविराम रहा. यह तब खत्म हुआ जब टीटीपी ने अमन को खुलकर रद्द कर दिया. इस प्रकरण से दो बातें उजागर हुईं: पाकिस्तान अपनी मर्जी से वार्ता करने की क्षमता रखता है, और बिना किसी मजबूत राजनीतिक उपाय किए दबाव बढ़ाने का तरीका सभी पक्षों को वापस हिंसा की ओर धकेलता है. इस तरीके को तेजी से अपनाने पर ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है.

भाषा का इस्तेमाल भी पेंच को और कस देता है. पिछले कुछ सप्ताहों में पाकिस्तान के प्रमुख मौलवियों के सरकार समर्थित संदेशों और बयानों में तालिबान को समर्थकों को ‘फितना’ और ‘खवारिज़’ बताया गया है और कभी-कभी तो दोनों ठप्पों को एक साथ जोड़कर ‘भारत द्वारा प्रायोजित फितना’ कहा गया है. जब धर्मोपदेशकों मे मंच से परेड ग्राउंड में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बोली जाती है तब जंग रोकने को विधर्मिता माना जाता है और जांच वगैरह को घुटने टेकना कहा जाता है. अगर दोहा वाली खिड़की को बनाए रखना है तब नैतिकता के ढांचे को तकनीकी ढांचे (कारगर हॉटलाइन, दर्ज की गई घटनाओं और और उनकी जांच, और पड़ोसियों को मजहबी दुश्मन बताने वाले नरेटिव पर रोक) को रास्ता देना होगा.

बदलता समीकरण

अफगानिस्तान में जब लड़ाई चल रही थी, भारत में कूटनीति बड़ी आसानी से आगे बढ़ रही थी. भारत ने तालिबानी विदेश मंत्री आमिर खान मुतक्की की उसी सप्ताह मेजबानी की जब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर बमबारी शुरू की. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने मुतक्की से मुलाक़ात के दौरान वादा किया कि काबुल में भारतीय मिशन का दर्जा ऊंचा किया जाएगा और तालिबान को मान्यता न देते हुए भी काबुल में पूर्ण दूतावास स्थापित किया जाएगा. संबंधों को चरणबद्ध तरीके से सामान्य बनाने का फैसला तालिबान के लिए जीत के समान है और भारत-अफगानिस्तान रिश्ते में एक अहम कदम है.
3 जुलाई को रूस तालिबानी सरकार को औपचारिक मान्यता देने वाला पहला देश बना और अफगानिस्तान के लिए विदेश संबंध का विस्तार करने और पाकिस्तान के वीटो को कमजोर करने का रास्ता बना. जिस दबाव के कारण अफगानिस्तान के लिए विकल्प सीमित हो गए थे वे अब पाकिस्तान से आगे भी बढ़ रहे हैं और उसमें विविधता आ रही है.

इस परिदृश्य में, ट्रंप की ओर ‘बगराम को वापस हासिल करो’ का ज़ोर लगा दिया. 18 सितंबर को उन्होंने कहा कि अमेरिका अफगानिस्तान के इस मुख्य हवाई अड्डे पर इसलिए अपना नियंत्रण चाहता है कि वह “चीन के करीब” सामरिक महत्व के स्थान पर है. अमेरिका के मित्र देशों और क्षेत्रीय देशों ने इस पर संदेह जाहिर किया और इस बात का जिक्र किया कि कि ऐसे नियंत्रण को फिर से आक्रमण के रूप में देखा जाएगा और इसके लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की और काफी हवाई सुरक्षा की जरूरत होगी. वाशिंगटन में विश्लेषकों ने भी चेतावनी दी है कि इससे अस्थिरता फैलेगी. काबुल ने साफ कर दिया है कि वह बगराम नहीं देने वाला.

अगर कोई दांव चलने की कोशिश की जाएगी तो पाकिस्तान को एक वार्ताकार के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा और वह भी खुद को इसी रूप में पेश करेगा. यह अफगानिस्तान के इस शक को बढ़ाएगा कि सीमा पर दबाव बढ़ाने की मुहिम टीटीपी के खिलाफ आतंकवाद विरोधी कदमों से ज्यादा, बाहरी एजेंडा से संचालित है.

इस नये समीकरण में, इस्लामिक स्टेट खोरासान सूबा (आईएसआईएस-के) अराजकता में फलता-फूलता है. काबुल अब खुलकर आरोप लगा है कि आईएसआईएस-के का नेता सनाउल्ला गफ़्फ़ारी, जिसे शहाब अल-मुहाजिर के नाम से भी जाना जाता है, खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान सूबों में ट्रेनिंग कैंप चलाता है. वे ईरान के केरमान में और मॉस्को के क्रोकस सिटी हॉल में हमलों के लिए भी आइएसआइएस-के को दोषी बताते हैं. इन हमलों की साजिश पाकिस्तानी ‘अड्डों’ पर रची गई. उन्होंने हमलावरों को सौंपने की मांग की है.

लेकिन पाकिस्तान इन आरोपों का खंडन करता है. आपराधिक जांच के सच जो भी हों, यह रणनीतिक मुद्दा बना रहता है कि काबुल-इस्लामाबाद के बीच हरेक टक्कर आईएसआईएस-के के लिए कार्रवाई करने की गुंजाइश सीमा पार के उसी बैंडविथ का इस्तेमाल करके बनाता है जिसे इस टक्कर को रोकने के लिए बनाया गया है. युद्धविराम का तात्कालिक लाभ यह है कि यह आइएसआइएस-के को अराजकता से वंचित करता है.

जहां हम आग लगाते रहते हैं

दक्षिण एशिया आर्थिक रूप से धरती का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. इस क्षेत्र का आंतरिक क्षेत्रीय व्यापार करीब 5 से 6 फीसदी पर आकर स्थिर हो गया है, जबकि आसियान देशों का आंतरिक व्यापार 25 फीसदी पर और यूरोपीय संघ (ईयू) का 60 फीसदी से ऊपर पहुंच गया है. विश्व बैंक काफी पहले अनुमान लगा चुका है कि दक्षिण एशिया में व्यापार करीब 23 अरब पाउंड के आसपास पहुंच गया है, अगर टैरिफ की सीमाएं हटा ली जाएं तो यह 67 अरब पाउंड पर पहुंच सकता है.

हर बार जब तोरखम या चमन से रास्ते बंद हो जाते हैं तब कुछ दिनों के अंदर ही अफगानिस्तान में खाद्य सामग्री और ईंधन महंगे हो जाते हैं, और पाकिस्तानी निर्यातकों, ट्रक वालों और सीमावर्ती बाज़ारों को तुरंत घाटा होने लगता है. दोहा में हुई प्रगति की असली कसौटी सीमा पर होने वाला शोरशराबा नहीं बल्कि यह है कि निगरानी के अंदर के फाटकों से कितने ट्रक गुजरे. अगर कॉरीडोर पर हवाई हमले होते रहे तो यह क्षेत्र के गरीबों को कुलीनों की नौटंकियों की खातिर बोझ उठाना पड़ता रहेगा.

इस अवसर की कीमत साफ है. ग्वाडर से ताशकंद तक सुरक्षित कॉरीडोर मध्य एशिया में उठाने वाली मांग को हिंद महासागर के रास्ते से जोड़ देगा और अफगानिस्तान और पाकिस्तान को अपने इलाकों का राजनीतिकरण करने की जगह निगरानी रखने का साझा प्रोत्साहन देगा. लेकिन रास्ता बंद करने से महंगाई बढ़ेगी, बीमा और परिवहन के खर्चे बढ़ेंगे, और तस्करों को मुनाफा मिलेगा.

अमन की सियासत को मौका दीजिए

पाकिस्तान फौज के बल पर अफगानिस्तान को नहीं झुका पाएगा. उसने दुनिया की सबसे ताकतवर फौजों के खिलाफ दो दशकों तक बगावत की और अब अपनी आमदनी के बूते शासनतंत्र पर नियंत्रण रख रहा है. एकमात्र कारगर रास्ता सियासी और परीक्षणीय प्रक्रिया के रूप में हो सकता है. क़तर-तुर्किये मार्ग यही पेश करता है. यह अलग तरह के पारस्परिक कदमों और तीसरे पक्ष द्वारा समयबद्ध जांच व्यवस्था की मांग करने का निष्पक्ष मंच उपलब्ध कराएगा. यह ऐसी व्यवस्था होगी जो घटनाओं को दर्ज करेगी, शर्तों के पालन की पुष्टि करेगी और दोनों पक्षों में खेल बिगाड़ने वालों का खुलासा करेगी. अगर इसे सही तरीके से लागू किया गया तो यह अविश्वास को कम करके तोरखम और चमन के चौराहों को फिर से खोल देगी और आगे टकराव को आर्थिक रूप से महंगा बनाएगी.

यह अमन को लेकर इमरान खान के दावों की जांच करने का भी समय है. मुल्क के अंदर उनकी तकलीफ़ों के बारे में जो भी सोचें, उन्होंने अफगान तालिबान से सीधी वार्ता करने और संपर्क तथा व्यापार पर आधारित क्षेत्रीय व्यवस्था बनाने की वकालत करते रहे हैं. खैबर पख्तूनख्वा में, जहां हताहतों की तादाद बढ़ती जा रही है और जातीयकरण का खतरा सबसे ज्यादा है, वार्ता तथा व्यापार की बात करना समझदारी है, लेकिन अनुशंसा के योग्य नहीं है. इसका आकलन नारों से नहीं बल्कि टकराव में कमी और व्यापार की ठोस वापसी से ही हो सकता है.

बुनियादी बात बदली नहीं है. यह पाकिस्तानी जनता का युद्ध नहीं है, और इसे अफगानों ने अपने पड़ोसी से लड़ने के लिए नहीं शुरू किया था. यह एक संकुचित खेमे द्वारा शुरू किया गया टकराव है जिसे बाहरी समीकरणों ने बड़ा रूप दे दिया है. अगर यह जारी रहता है तो कराची से काबुल तक कोई भी अप्रभावित नहीं रहेगा. दोहा में वार्ता के बाद पाकिस्तान-तालिबान के बीच युद्धविराम केवल विराम नहीं है, यह नेताओं का इम्तहान लेता है कि वे एक लंबी लड़ाई को लेकर सार्थक संवाद कर सकते हैं या नहीं. युद्धविराम से बंधें, दरवाजे खुले रखें, और क्षेत्रीय व्यापार रुकने के कारण खोए अरबों डॉलर को वापस लाने की शुरुआत करें, या सीमा के धीमी गति से यमन वाले हश्र को कबूल करें. यह ऐसी क्षति होगी जिसमें विजेता कोई नहीं होगा और एक पूरा क्षेत्र गरीबी की ओर बढ़ता जाएगा.

फरीद मामुंदज़ई अफगानिस्तान के भारत में पूर्व राजदूत रह चुके हैं. उनका एक्स हैंडल @FMamundzay है. यह उनके निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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