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शनिवार, 7 जून, 2025
होममत-विमतझूठे जयकारों में उलझा युवा, इतिहास-बोध और विवेक से दूर—यह प्रोपेगेंडा देश हमारा

झूठे जयकारों में उलझा युवा, इतिहास-बोध और विवेक से दूर—यह प्रोपेगेंडा देश हमारा

जब ऊपरी आदेश से बाध्य शिक्षक ही छात्रों को इस या उस नारे पर प्रोजेक्ट और शोध लिखवाते हैं—तो बेचारे छात्रों को कैसे गुमान हो कि उन्हें महज पार्टी प्रोपेगेंडा का शिकार बनाया जा रहा है?

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“ये झुंड के झुंड चिट्टे-चिट्टे गाले वास्तव में हमारे उन किशोर शिक्षार्थी बालकों के विश्वास-भरे चमकते चेहरों की सहसा विजड़ित की गई आंखें हैं… जिन के शिक्षा-स्त्रोत हम ने वशातीत विषों से दूषित कर दिए हैं.”—यह कवि अज्ञेय ने 1954 में ही लिखा था.

उसका असर धीरे-धीरे दिखने लगा. पूरे देश में मध्यवर्ग की प्रतिभा मरती गई. यानी ठीक शिक्षित कहलाते वर्ग की! सामान्य विवेक-बुद्धि क्षीण होती गई. अब शिक्षित वर्ग और नीति-नियंता नेताओं में ऐसे ही लोगों की भरमार है, जिन्होंने कभी कोई ज्ञान-पुस्तक नहीं पढ़ी: न महान साहित्य, न इतिहास, न दर्शन. अच्छे ग्रेजुएट, जिन्होंने स्कूल-कॉलेज शिक्षा बल पर कोई कार्य-कुशलता, स्थान, आदि प्राप्त कर लिया, भी अधिकांश वैसे ही हैं. वे जरूर देश की अर्थव्यवस्था सुचारू चलाने में योगदान देकर जीविका अर्जित कर रहे हैं. अच्छे-भले नागरिक हैं. पर देश-दुनिया, इतिहास और राजनीति प्रसंग में बड़े-बड़े झूठ और मोटा सच भी पहचानने में असमर्थ है. यह दशा अधिकांश वैसे लोगों की भी है जो राजनीतिक घटनाक्रम में रूचि रखते हैं.

बौद्धिक और शिक्षा में गिरावट की कहानी

यह सामूहिक विवेक-दुर्गति अचानक नहीं हुई है. शिक्षा को दलीय स्वार्थ और मतवादों के अधीन करते जाने का यह कुफल है. साइंस, गणित, व्यवसाय जैसे विषय इस से प्रायः बचे रहते हैं, इसलिए तकनीकी हुनर वाले लोग तो औसत योग्यता वाले तैयार होते रहे. लेकिन सामाजिक, मानविकी वाले विषयों के स्नातकों, डॉक्टरेटों तक की स्थिति भयावह है! पोस्ट-डॉक्टरेट कर रहे लोगों की थीसिस में दो पैराग्राफ भी सुसम्बद्ध नहीं मिलता. उसे बिब्लियोग्राफी के प्राथमिक नियमों की भी जानकारी नहीं होती. पर वह डॉक्टरेट हासिल है! यह आम हालत है. जो इसलिए बनी क्यों कि देसी शासकों ने गुणवत्ता के बदले खानापूरी पर्याप्त मानी. आरामपसंदगी और स्वार्थवश हर विषय पर हाथ ढीले रखने की आदत डाल ली. ताकि वोट और कुर्सी उन के ही पास रहे, उन्होंने शिक्षा समेत किसी भी चीज को गिराने से परहेज न रखा.

इसलिए अब यह स्थिति बन चुकी है कि प्रमुख शैक्षिक, बौद्धिक संस्थान भी मुंशियों और दलीय कारकूनों के कब्जे़ में हैं. उन के पीछे भी अदृश्य सूत्रधार हैं. इस तरह, व्यापक गैर-जिम्मेदारी का बोलबाला है. कैसे भी विचित्र या हानिकारक निर्णयों का जिम्मेदार कोई नहीं मिलता. मीडिया और बौद्धिक मंचों पर मनमाने लांछन, विद्वेष प्रदर्शन, नियमित निंदा, लगभग गाली-गलौज को बौद्धिक विमर्श कहा जाता है. साधारण परख से भी दिख जाने वाली झूठी बात भी बड़े-बड़े लोग मीडिया पर शेयर करते रहते हैं. देश का सब से साधनवान राजनीतिक वर्ग यही प्रेरित, प्रोत्साहित, पुरस्कृत कर रहा है. उन के संगठन जगह-जगह भारी खर्च, ताम-झाम और आडंबर के बल पर लोगों को इस दिशा में धकेल रहे हैं. केवल जोश, आक्रोश और कपोल-कल्पना के आधार पर जयकार और फटकार की ट्रेनिंग दे रहे हैं.

भोले लड़के-लड़कियों, ऐसे नवयुवा जिन्हें मुश्किल से इंद्रिय-बोध भर का अपना अनुभव है—उन में दो दिन के सम्मेलन से ‘थिंकर’‌ और समाज के मार्गदर्शक बन जाने का भाव भरा जाता है. वे देश-विदेश की विविध समस्याओं के तुरंत, इंसटैंट विशेषज्ञ हो जाते हैं. दो-चार प्रायोजित आयोजनों में कुछ दावे और लफ्फाजी सुन-सुनकर मान‌ लेते हैं कि समस्या यह है और समाधान यह. फिर उसे अपनी युक्तियों और भोले विश्वास से तोते-सा दुहराते हैं. जैसा अज्ञेय ने पाया था: ‘अपने ही नारों से अपना माथा चकरा लेना’—वही आज चौतरफा दिखता है. वे अपनी सदाशयता से ही मान लेते हैं कि इतिहास, राजनीति, धर्म, पर्यावरण, शिक्षा, आदि विविध विषयों पर सब कुछ समझ चुके. दूसरे या तो भ्रमित, अन्य दलों के एजेंट, या कोरे किताबी हैं.इसी भावना से भरे हमारे असंख्य भोले युवक-युवतियां कोरे प्रोपेगेंडा के वाहक बन कर कभी ‘ऑपरेशन अमुक’, तो कभी ‘विधान धर्मग्रंथ’, तो कभी ‘डेमोक्रेसी की देवी’, और ‘ग्रेट मीटिंग’, जैसे अनर्गल विषयों पर देश‌ भर में सभा सेमिनार करते-कराते अपने को थिंक-टैंक समझते हैं. चाहे वास्तविक, चुनौतीपूर्ण विषयों पर न कभी विचार होता है, न सम्मेलन, न शोध, न उस पर ध्यान जाता है. बस, अहो रूपं अहो ध्वनि:!

जाली विमर्श, खोखली नीतियां, दिशाहीन युवा

इस तरह, नकली गतिविधियों में लगाए गए असंख्य युवा मानते हैं कि हम कमाल आगे जा रहे हैं. अनेक क्षेत्रों में हम ही अगुआ हैं, दुनिया हम ही को देख रही है, और यूरोप, अमेरिका हम से जलते हैं, आदि. ऐसा प्रोपेगेंडा ही यहां प्रमुख स्वर है. जिस में कहीं प्रमाण की जरूरत महसूस नहीं की जाती. टीका लगा या कलावा बांध हर बात में ‘सनातन’ शब्दोच्चार से ही हर एक्टिविस्ट धर्म की पताका सब कहीं फहरता मान रहा है. इस के पीछे राजनीतिक, सांगठनिक बल और भरपूर धन-संसाधन नियमित लगे दिखते हैं.

दोष उन युवाओं का नहीं. जैसा कवि ने कहा था, उन ‘विश्वास-भरे’ किशोर-किशोरियों के साथ हमारे देसी शासकों, बौद्धिकों ने विश्वासघात किया. वे स्वार्थी और अज्ञानी राजनेताओं की सत्ता-लिप्सा के शिकार और साधन बनाए गए. यह दशकों से, धीरे-धीरे, और इतने आडंबरों के साथ हुआ है कि अच्छे-अच्छे लोग भी असलियत से अनजान लगते हैं. राजनीतिक मशीन पूरे देश के मानस को मानो बटन दबाकर इस या उस विषय पर प्रोपेगेंडा-विमर्श चलवा देने, रोक देने, या फौरन विषय बदल देने में लगी रहती है. इस अदृश्य श्रृंखला में शामिल कोई कड़ी भी इस का कुछ नहीं कर सकती.

दशकों से बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और केंद्रीकरण के साथ मतवादिता की सनक ने ऐसी स्थिति बना दी है कि बहुत कम लोगों को यह अजूबा लगता है कि अबोध छात्रों से तरह-तरह के राजनीतिक फैशन, जुमलों, और प्रचारों पर भाषण देने, ‘प्रोजेक्ट’ और ‘शोध-पत्र’ लिखने को कहा जाए. जब ऊपरी आदेश से बाध्य शिक्षक ही छात्रों को इस या उस नारे पर प्रोजेक्ट और शोध लिखवाते हैं—तो बेचारे छात्रों को कैसे गुमान हो कि उन्हें महज पार्टी प्रोपेगेंडा का शिकार बनाया जा रहा है?
जिस दावे पर एक पैराग्राफ भी सुसंगत लिखना कठिन, उस पर पूरी पुस्तक लिखना मनगढ़ंत, अनर्गल बातों का पुलिंदा ही बनता है. सामाजिक चेतना के नाम पर ईर्ष्या-द्वेष और दलबंदी सिखाई जाती है. वे इस या उस समुदाय, नेता, पार्टी या देश की निंदा या जयकार करना ही कर्तव्य-बोध समझते हैं. शेखी बघारना, उपदेश देना, और दूसरों को नीचा बताना ही देश-भक्ति, इतिहास-बोध और देश-बोध मानते हैं.

यह प्रवृत्ति भी नई नहीं. स्वतंत्र भारत में यह क्रमशः होता गया है. कवि ने 1980 में ही दुख व्यक्त किया था: ”तनाव से झुर्रियां पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियां—नहीं, ये मेरे देश की आंखें नहीं हैं…” आज वे होते तो कहते कि यह हमारे ऋषियों की सीख नहीं है. उस का विद्रूप है. रामायण, महाभारत और ज्ञानी-मुनियों का नाम लेकर जाली बातें सिखाना. बुद्धि-विवेक को बेचना और उसे ताक पर रखकर सदैव पार्टीबंदी में मस्त रहना है.यह स्थिति सोवियत युग के रूसी समाज से मिलती-जुलती है. साइंस और तकनीकी क्षेत्र में दुनिया में टिके रहकर भी रूसी लोग सामाजिक, मानविकी ज्ञान में दरिद्र होकर घोर मिथ्या और पार्टीवाद का झंडा ढोते रहे. जब तक उसी मिथ्याडंबर से खोखला होकर उन का शासक वर्ग अंततः देश समेत बैठ नहीं गया. भारत की स्थिति कुछ मायनो में उस से भी बुरी लगती है. यह कश्मीर या बंगाल के उदाहरणों से समझ सकते हैं. अपनी ही निरीह जनता के सामूहिक संहार से—अपवाद नहीं बल्कि बार-बार होते जिहादी संहार और उत्पीड़न से, गांव के गांव, क्षेत्र से प्रदेश तक हो रहे सामूहिक विस्थापनों से – आंखें मंदे वीरता की डींग हांकना, वीरता पर सेमिनार करना, और अपने को खुद तमगे देते रहना! जबकि व्यवहार में अपने सिविल सहकर्मी तक की भूलों, पापों पर भी एक शब्द कहने का जोखिम न लेना—नेताओं, प्रचारकों, विचारकों की ऐसी वीरता सचमुच अद्वितीय है!

कवि आज होते तो कहते: नहीं, यह मेरे देश का ज्ञान नहीं है.
लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

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