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Friday, 22 November, 2024
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पहले ओआरओपी, अब छावनी की सड़कें: भारत में मिलिट्री का हो रहा राजनीतिकरण

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लोकतंत्र में पूर्व सैनिकों के राजनीतिक करियर एक स्वीकार्य विशेषता की तरह लग सकते हैं, लेकिन सेना के राजनीतिकरण के खतरों को कम आंकना बेवकूफी होगी।

छावनी में सड़कों के खुलने पर हालिया विवाद एक बार फिर हमारे नागरिक और सैन्य प्रतिष्ठानों के बीच बढ़ते अंतर को रेखांकित करता है। परिवारों और दिग्गजों समेत सेना का मानना है कि राजनीतिक नेतृत्व ने, मुख्य रूप से नागरिक नौकरशाही द्वारा निर्देशित, एक चेतनाशून्य निर्णय लिया है। हालांकि रक्षा मंत्री ने स्पष्ट किया है कि आदेश जारी करने से पहले सेना प्रमुख से परामर्श किया गया था, फिर भी मामला लगातार गर्म हो रहा है।

इस बीच, इस मामले पर काफी टिप्पणियां हुईं, विशेष रूप से सोशल मीडिया पर। इस मामले के जो भी गुणदोष हों, दांव पर लगे गहरे मुद्दों को समझना महत्वपूर्ण है।

एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दबाव समूह के रूप में सेना का उद्भव एक मूल बिंदु है। यह एक हालिया बदलाव है और जो हमारे नागरिक-सैन्य संबंधों के लिए अच्छा संकेत नहीं है। जबकि सेना अपने संगठनात्मक हितों और प्राथमिकताओं को व्यक्त करने में शायद ही कभी संकोची रही है लेकिन यह प्रबलता से संस्थागत चैनलों के माध्यम से किया गया था। हालाँकि, वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) पर आन्दोलन में इसी पैटर्न को तोड़ने का निर्णय लिया गया था । 2014 के आम चुनावों के पहले प्रभावशाली पूर्व सैनिकों के समूहों ने भाजपा और नरेन्द्र मोदी को समर्थन देने का फैसला किया था। वे स्पष्ट रूप से पिछली सरकारों के लंबे असफल वादों से तंग आ चुके थे। फिर भी, यह एक बहुत महत्वपूर्ण बदलाव था।

सेवानिवृत्त सैनिक और उनके परिवार, दोनों दिशाओं में चल रहे मजबूत संबंधों के साथ, सशस्त्र बलों का प्रभावी रूप से एक हिस्सा हैं। दिग्गजों के समूह के भाजपा के प्रति दृढ़ता से झुकाव के फैसले ने सेना के गैर-राजनीतिक अभिविन्यास को खतरे में डाल दिया था। जब तक एनडीए सरकार ने ओआरओपी प्रस्ताव को समझने में अपना समय लिया तब तक भूतपूर्व सैनिकों ने अपने आन्दोलन की आवाज बुलंद कर दी थी।

अगस्त 2015 में इस आंदोलन के शिखर पर, चार अत्यधिक सम्मानित सेवा प्रमुखों ने भारत के राष्ट्रपति को इंगित करते हुए कहा, “हाल के घटनाक्रमों ने न केवल भारतीय सेना के राजनीतिकरण की प्रक्रिया शुरू की है, बल्कि इसके मनोबल और आत्म-सम्मान पर गंभीर क्षति पहुँचाने का भी काम किया है।”

दुर्भाग्य से राजनीतिकरण की प्रक्रिया को रोकना या रद्द करना मुश्किल साबित हुआ है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि अंततः ओआरओपी ने घोषणा की वह सभी दिग्गज समूहों को संतुष्ट करने में असफल रहा। इसके बजाय, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ओआरओपी आंदोलन सेना के लिए राजनीति में एक दबाव डालने वाले समूह के रूप में कार्य करने के लिए एक टेम्पलेट बन गया – जो कि कारण को एकजुट करने में तुरंत आग्रह करने वाला और समझदार है। प्रमाण हैं कि जिस तरह से छावनी सड़कों के मुद्दे पर सैन्य परिवारों और बुजुर्गों ने सोशल और पारंपरिक मीडिया को अपनाया है।

जबकि व्यापक सैन्य समुदाय द्वारा चुनाव के लिए भाजपा को चुनने का पश्चाताप हो सकता है – कम से कम कुछ मतदाताओं में पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा शुरू की गई “विजय यात्रा” के कारण – आपसी हित समूह की राजनीति की दिशा में व्यापक मोड़ लाना मुश्किल है।

देखा जाए तो, राजनीतिक दलों ने अपने संभावित लाभों के लिए बड़े रक्षा समुदाय को भी एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के रूप में देखा है। ओआरओपी की मांग 2013-14 में भाजपा के लिए आसान थी। याद करिए कि पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार चुने जाने के बाद, मोदी द्वारा संबोधित सबसे पहली रैलियों में से एक, पूर्व सैनिकों की एक विशाल सभा थी। उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह मोदी के साथ मंच पर शामिल हुए थे, जिनकी वर्तमान सरकार से सार्वजनिक रूप से बहस हो गई थी।

हालांकि वी के सिंह ने शुरुआत में राजनीति में अरूचि रखने का दावा किया था, लेकिन बाद में उन्होंने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और बदले में उन्हें मंत्री पद के साथ पुरस्कृत किया गया। सेना प्रमुख के कार्यालय के लिए और भी घातक यह था कि वी के सिंह अभी हाल ही में एक कार्यक्रम में आरएसएस में शामिल हुए हैं जिसमें उन्होंने आरएसएस की वर्दी भी पहनी है।

आप को बता दें कि वह पहले ऐसे सेना प्रमुख नहीं हैं जिन्होंने आरएसएस मंच पर उपस्थित होकर अपने विचारों को स्पष्ट किया हो। 1964 में फील्ड मार्शल के. एम. करियप्पा ने आरएसएस से संबंधित एक प्रकाशन में लिखा था कि “भारतीय मुस्लिमों की वफादारी मुख्य रूप से पाकिस्तानियों के लिए प्रतीत होती है। यह एक अक्षम्य अपराध है।“ हालांकि वी. के. सिंह किसी सेवानिवृत्त प्रमुख से काफी आगे निकल गए हैं। उनका उदाहरण बड़ी महत्वाकांक्षाएं रखने वाले किसी भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारी को प्रसन्न कर देगा।

पूर्व सैनिकों के राजनीतिक करियर लोकतांत्रिक राजनीति की स्वीकार्य विशेषता की तरह प्रतीत हो सकता है। लेकिन जब हम ऐसे नाजुक वक्त में हों तो सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण के खतरों को छूट देना मूर्खता होगी। राजनीतिक दलों का इस लड़ाई से बाहर रहने की उम्मीद करना उतना ही विश्वसनीय है।

कर्नाटक चुनाव अभियान के दौरान नेहरू द्वारा सेना प्रमुख करियप्पा और थिमय्या के अपमान पर प्रधानमंत्री द्वारा की गई टिप्पणी एक अनुस्मारक है कि यह प्रवृत्ति अब रुकने वाली नहीं है। फिर भी हर सरकार के पास यह सुनिश्चित करने के लिए अधिकार होता है कि सेना राजनीतिक हित वाले समूह के रूप में काम न करे – वह भी सिर्फ सैन्य पेशेवरता और नागरिक प्राधिकरण के अधीनता के लिए इसके निहितार्थों के कारण।

इस प्रवृत्ति के स्थायीकरण को रोकने में पहला कदम संस्थागत प्रणालियों और प्रक्रियाओं में सेना की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी करना है। कई समितियों की रिपोर्ट के साथ-साथ अनीत मुखर्जी जैसे विद्वानों द्वारा शैक्षिक शोध से पता चलता है कि रक्षा मंत्रालय के साथ सेवाओं के एकीकरण की कमी ने सैन्य खरीद से लेकर सैन्य तैयारी तक के बहुत सारे मुद्दों पर उपेष्टतम परिणाम प्राप्त किए हैं। एक संस्थागत और अविरत संवाद की अनुपस्थिति भी इसका एक कारण है कि बड़े सैन्य समुदाय को अपनी चिंताओं को पंजीकृत कराने के लिए सार्वजनिक अभियानों के सहारे की जरूरत क्यों महसूस होती है।

दिसंबर 2015 में संयुक्त कमांडरों के सम्मेलन में, प्रधानमंत्री ने कहा था कि “वरिष्ठ रक्षा प्रबंधन में सुधार” उनके लिए “प्राथमिकता का क्षेत्र” है। तब रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी कहा था कि सरकार रक्षा कर्मचारियों के एक प्रमुख की स्थापना की दिशा में काम कर रही है।

हालांकि, सरकार ने तीन सशस्त्र बलों के कमानों के रसद कार्यों और कुछ मदद को एकीकृत करने के मार्गों की खोज के अलावा कुछ भी नहीं किया है। रक्षा मंत्रालय और सेवा मुख्यालयों के बीच सैन्य और नागरिक अधिकारियों की क्रास पोस्टिंग के लिए बेहद समझदार प्रस्तावों का क्षीण होना जारी है। जब तक सरकार ऐसे सुधारों के लिए निर्णायक रूप से आगे नहीं आती तब तक सशस्त्र बलों और नागरिक संस्थानों के मध्य की दरारें और फैल सकती हैं।

श्रीनाथ राघवन सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में एक वरिष्ठ सदस्य हैं।

Read in English : First OROP, now cantonment roads: India sees rise of military as political pressure group

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