पिछले वीकेंड नई दिल्ली में नीति आयोग की बैठक में कईं नाटकीय दृश्य सामने आए. बैठक में शामिल एक प्रमुख विपक्षी नेता, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी माइक बंद होने का विरोध करते हुए बाहर निकल गईं. तमिलनाडु प्रमुख एमके स्टालिन, कर्नाटक प्रमुख सिद्धारमैया जैसे अन्य मुख्यमंत्रियों ने बैठक का पूरी तरह से बहिष्कार किया. आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू जैसे मोदी के अनुकूल मुख्यमंत्रियों को बोलने के लिए पर्याप्त समय दिया गया. बनर्जी, एक मजबूत राजनेता, तीन बार की सीएम, चार बार की केंद्रीय मंत्री और सात बार की सांसद, को सिर्फ पांच मिनट के बाद ही रोक दिया गया.
आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘सहकारी संघवाद’ की भावना को बनाए रखने का दावा पूरी तरह से बेनकाब हो गया है. इसके बजाय, एक दशक की तीखी, चोट पहुंचाने वाली ध्रुवीकृत राजनीति पर आधारित ‘भेदभावपूर्ण संघवाद’ अब कठोर वास्तविकता है. 2014 में जब मोदी सत्ता में आए, तो वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने वाले दूसरे मुख्यमंत्री बने. पहले कर्नाटक के अक्सर भुला दिए जाने वाले ‘विनम्र किसान’ एचडी देवेगौड़ा थे. मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बने मोदी से बड़ी उम्मीदें थीं कि लगभग 13 साल तक गुजरात के सीएम के रूप में काम करने के बाद वे मुख्यमंत्रियों के अधिकारों और विशेषाधिकारों के प्रति सचेत होंगे. दस साल बाद, इसके विपरीत हुआ.
मोदी एक अत्यधिक केंद्रीकृत, सत्तावादी शीर्ष-से-नीचे के प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिनका मुख्यमंत्रियों के प्रति कोई सम्मान नहीं है. वे शायद ही कभी उन्हें विश्वास में लेते हैं और उनसे सलाह नहीं लेते हैं. योजना आयोग को समाप्त करके, एक ऐसा मंच जहां मुख्यमंत्री नियमित रूप से शिकायतें करते थे, केंद्र सरकार के साथ परामर्श और बहस करते थे, मोदी ने क्षेत्रीय नेताओं को आत्म-अभिव्यक्ति के एक महत्वपूर्ण मंच से वंचित कर दिया.
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केंद्र का भेदभाव
नीति आयोग, मोदी द्वारा बनाया गया थिंक टैंक जिसने योजना आयोग की जगह ली है, वित्त मंत्रालय के तहत काम करने वाला एक विशुद्ध सलाहकार निकाय है, जिसके सीईओ की नियुक्ति प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है. मोदी द्वारा बनाए गए इस संगठन ने मुख्यमंत्रियों को और हाशिए पर धकेल दिया है.
भेदभावपूर्ण संघवाद के निम्नलिखित उदाहरणों पर नज़र डालें:
पश्चिम बंगाल को 26 दिसंबर 2021 से मनरेगा के लिए केंद्रीय फंड नहीं मिला है. केंद्र से 1.16 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं और राज्य सरकार को पीएम आवास योजना के तहत स्वीकृत 11 लाख घरों के लिए धन नहीं मिला है. इसके अलावा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत बंगाल से 7,000 करोड़ रुपये सिर्फ इसलिए रोक दिए गए हैं क्योंकि केंद्र इस बात पर ज़ोर देता है कि राशन पर मोदी के चेहरे की मुहर होनी चाहिए. पक्षपात के एक बेतुके और लगभग हास्यास्पद प्रदर्शन में, केंद्र ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए भी धन रोक दिया है, यह आदेश जारी करते हुए कि ऐसे सभी स्वास्थ्य केंद्रों को पहले भगवा रंग में रंगा जाना चाहिए.
आज विपक्ष शासित हर राज्य ने केंद्रीय फंड में भेदभाव की शिकायत की है, जिसमें केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक शामिल हैं. केरल में कर्ज़ लेने की सीमा तय कर दी गई है. 15वें वित्त आयोग के तहत कर्नाटक को 1.87 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. तमिलनाडु ने आपदा राहत कोष में 38,000 करोड़ रुपये की देरी की शिकायत की है. आरबीआई की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यों द्वारा किए जाने वाले व्यय का अर्थव्यवस्था पर केंद्र द्वारा किए जाने वाले व्यय से कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है. फिर भी, विपक्ष शासित राज्यों को धन की कमी का सामना करना पड़ रहा है. सिद्धारमैया ने 7 फरवरी को नई दिल्ली में केंद्र द्वारा धन देने से इनकार करने के “सौतेले व्यवहार” के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. उनकी सरकार ने कर्नाटक को धन जारी करने के लिए केंद्र को निर्देश देने की अपील करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है.
गुजरात में 2017 में आई बाढ़ और हिमाचल प्रदेश में 2023 में आई बाढ़ के मामले में केंद्र सरकार के रवैये में काफी अंतर देखने को मिला. मोदी के गृह राज्य गुजरात में प्रधानमंत्री ने बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण किया और तुरंत 500 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की गई. हिमाचल प्रदेश में, जहां 2023 में भयंकर बाढ़ आई, विपक्षी दल के मुख्यमंत्री कांग्रेस के सुखविंदर सिंह सुखू ने केंद्र के राहत पैकेज में देरी की शिकायत की. हिमाचल प्रदेश ने केंद्र से बार-बार बाढ़ को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित करने की अपील की, लेकिन केंद्र सरकार के अनुरोधों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
जब राज्य विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित होते हैं, तो केवल इसलिए राहत और कल्याण प्रदान करने में अंतर करना घृणित है क्योंकि राजनीति मेल नहीं खाती. जब बच्चे और कमज़ोर लोग अकल्पनीय दुख का सामना करते हैं, तो इस तरह से कार्य करना जघन्य और निंदनीय है.
केंद्रीय बजट 2024 पर नज़र डालिए. क्या भेदभावपूर्ण संघवाद का इससे अधिक स्पष्ट प्रदर्शन हो सकता है? बिहार के लिए एक बुनियादी ढांचा बोनस, आंध्र प्रदेश के लिए एक वित्तीय पैकेज — केवल इसलिए क्योंकि ये दोनों राज्य केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के गठबंधन सहयोगी हैं. यह संवैधानिक रूप से अनैतिक और नैतिक रूप से घृणित है. भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत सरकार के धन पर समान अधिकार है, जो देश भर के करदाताओं से आता है. केवल राजनीतिक कारणों से गठबंधन सहयोगियों को बड़ी रकम आवंटित करना अन्य राज्यों के नागरिकों के साथ घोर अन्याय है.
याद कीजिए कि 2014 से 2018 तक, जब आंध्र प्रदेश विशेष राज्य का दर्जा मांग रहा था, तब मोदी सरकार, जो तब भारी चुनावी जीत के बाद खुश थी, के पास उनकी इच्छाओं को सुनने का समय नहीं था. इसी तरह, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष में थे, तब सरकार ने बिहार की अनदेखी की, जिसके कारण नीतीश ने कईं बार शिकायतें कीं.
लेकिन अब जब नीतीश और नायडू मोदी की गद्दी संभाल रहे हैं, तो उन्हें सार्वजनिक रूप से गले लगाया जा रहा है और प्रतीकात्मक गुलाब की पंखुड़ियां बरसाई जा रही हैं. केंद्रीय बजट का उपयोग राज्यों के बीच किसी प्रकार का बेतुका पदानुक्रम बनाने के लिए करना सस्ता, घृणित और लोकतंत्र विरोधी है, जो यह संकेत देता है कि कौन हकदार है और कौन नहीं.
तथाकथित “डबल इंजन” मॉडल की भाजपा की बात पूरी तरह से असंवैधानिक है. “डबल इंजन” का क्या मतलब है? क्या इसका मतलब यह है कि जिन राज्यों में भाजपा सत्ता में नहीं है, वहां इंजन नहीं हैं? क्या विपक्ष शासित राज्य केवल बिना इंजन वाली रेलगाड़ियां हैं? तो, क्या केवल वहीं दो इंजन हो सकते हैं जहां भाजपा राज्य और केंद्र दोनों पर शासन करती है? यह अवधारणा ही घोर पक्षपातपूर्ण, बेशर्मी से लोकतंत्र विरोधी है और केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में भाजपा के पतित और असभ्य दृष्टिकोण को उजागर करती है.
2023 के कर्नाटक चुनावों के दौरान, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा सार्वजनिक रूप से धमकी देने की हद तक चले गए कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई, तो कर्नाटक को केंद्रीय सहायता वापस ले ली जाएगी. यह न केवल चौंकाने वाला है; शैतानी भी है. आम लोगों के लिए बुरा चाहने की बात करके, अगर वे एक निश्चित तरीके से वोट नहीं देते हैं, तो नड्डा ने इस तथ्य के बारे में अपनी अज्ञानता प्रकट की है कि लोकतंत्र में, नागरिक संप्रभु या शासक होता है और चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सार्वजनिक लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता है.
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ऑपरेशन लोटस
सत्ता की अपनी अशिष्ट खोज के कारण भाजपा हर संवैधानिक सिद्धांत पर हमेशा सबसे निचले स्तर पर प्रहार करती है. कोई भी अन्य पार्टी मानदंडों के प्रति इस भयावह उपेक्षा से शर्मिंदा हो जाती, लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा कभी शर्मिंदा नहीं होती.
विपक्ष शासित राज्यों में राजभवनों के अधिभोगियों को ही लें. मोदी द्वारा नियुक्त राज्यपाल-ज्यादातर 70-वर्षीय आरएसएस के लोग हैं जिन्हें करदाताओं के खर्च पर आलीशान महलों में रहने के लिए भेजा गया है — मोदी साम्राज्य के क्षत्रपों के रूप में कार्य करते हैं. पंजाब सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है क्योंकि मोदी द्वारा नियुक्त पंजाब के पूर्व राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे थे.
केरल में भी यही हुआ, जहां राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने विधेयकों को मंजूरी देने में देरी की. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंदा बोस का मानना है कि वे खुद कानून हैं, उन्होंने अपने ही कर्मचारी द्वारा उन पर यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए जाने के बाद भी जांच के लिए प्रस्तुत होने से इनकार कर दिया और इसके बजाय सीएम बनर्जी पर “मानहानि” का आरोप लगाया. तमिलनाडु में राज्यपाल आरएन रवि ने परंपरा को धता बताते हुए विधानसभा में सरकार का अभिभाषण पढ़ने से इनकार करके एमके स्टालिन के नेतृत्व वाली निर्वाचित सरकार को खुली चुनौती दी है.
भाजपा राज्यों में विपक्षी सरकारों को लोकतांत्रिक साथियों की तरह नहीं बल्कि दुश्मनों की तरह मानती है, जिन्हें खत्म किया जाना चाहिए. इसीलिए भाजपा “विपक्ष-मुक्त भारत” जैसे नारे लगाती है. भाजपा के कुख्यात “ऑपरेशन लोटस” के ज़रिए नौ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों या विपक्षी बहुमत को या तो रोका गया या गिराया गया. इनमें शामिल हैं: अरुणाचल प्रदेश (2015-2016), उत्तराखंड (2016), मणिपुर (2017), गोवा (2017), कर्नाटक (2018), मध्य प्रदेश (2020), पुडुचेरी (2021), महाराष्ट्र (2022) और मेघालय (2023)। इन कदमों ने केवल विश्वास की कमी को बढ़ाया है.
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा मुख्य रूप से विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के साथ-साथ विपक्ष के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई के कारण टकराव की स्थिति पैदा हो गई है. पश्चिम बंगाल ने 2018 में सीबीआई को दी गई ‘सामान्य सहमति’ वापस ले ली थी और बिना सरकार की अनुमति के राज्य में मामले दर्ज करने के एजेंसी के कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. कुछ सप्ताह पहले, एक ऐतिहासिक आदेश में, शीर्ष अदालत ने माना था कि राज्य सरकार का मुकदमा विचारणीय है. विश्वास की कमी खुले टकराव में बदल गई है और अगर इसे रोका नहीं गया, तो यह संवैधानिक पतन का रूप ले सकती है. क्या होगा अगर राज्य सरकारें बदले की भावना से भाजपा नेताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दें?
मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बने मोदी ने अन्य मुख्यमंत्रियों के प्रति घोर अनादर दिखाया है. विपक्ष शासित राज्य सरकारों के साथ केंद्र के संबंध अब पूरी तरह से शत्रुतापूर्ण हो गए हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि नीति आयोग की बैठक में हंगामा हुआ.
पुल बनाने में मोदी सरकार की विफलता शासन पर भारी पड़ रही है. दिल्ली के अरविंद केजरीवाल और झारखंड के हेमंत सोरेन जैसे विपक्षी मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार करके और दिल्ली से दबंगई से शासन करके विपक्ष को इस हद तक धकेल दिया है कि अब वह आसानी से सहयोग नहीं कर सकता. 2024 के चुनावों ने संकेत दिया है कि “सर्वोच्च नेता” का युग समाप्त हो गया है. अब समय आ गया है कि विकेंद्रीकरण किया जाए, मुख्यमंत्रियों के साथ संवाद और चर्चा की प्रक्रिया शुरू की जाए और क्षेत्रीय विविधता का सम्मान किया जाए. कई राज्यों में लाल झंडे पहले ही उठ चुके हैं. एक विरोध की बयार आने वाली है.
(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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