राजनीतिक दल केवल कुछ जाने पहचाने मुस्लिमों के लिए इफ़्तार पार्टियों की मेजबानी करते हैं, जिन्हें मुस्लिम मतदाताओं तक पहुँचने के लिए प्राथमिक रूप से प्रमुख हितधारकों के रूप में चुना जाता है।
इस बार कोई भी इफ़्तार पार्टी आयोजित ना करने का राष्ट्रपति भवन का निर्णय ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ नहीं बना|
राष्ट्रपति के प्रेस सचिव का कथन था: “राष्ट्रपति पद सँभालने के बाद उन्होंने फैसला लिया था कि एक करदाता के पैसों पर एक सार्वजानिक भवन, जैसे-राष्ट्रपति भवन, में कोई भी त्यौहार या धार्मिक समारोह नहीं होगा | यह एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए और धर्मनिरपेक्ष रूप से सभी धार्मिक अवसरों पर लागू होता है |”
इस खबर में कोई आश्चर्य नहीं था | रमज़ान के पाक महीने के दौरान भाजपा हमेशा ऐसी पार्टियों में आलोचनात्मक रही है| कई पार्टी नेताओं ने उन्हें ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ का प्रतीकात्मक रूप बताया है| वास्तव में यही वजह रही है कि नरेन्द्र मोदी सरकार आधिकारिक इफ़्तार पार्टियों की प्रथा का विरोध करती है|
फिर भी, सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण के प्रश्न पर पुनर्विचार के लिए औपनिवेशिक युग के बाद के भारत में राजनीतिक इफ्तार पार्टियों की क्रमागत उन्नति को देखना दिलचस्प होगा|
इफ़्तार पार्टियों की वंशावली
धैर्ययुक्त प्रतिरोध के अपने दर्शन को व्यक्त करने के लिए उपवास की क्षमता को पहचानने वाले महात्मा गाँधी उन मुसलमानों के लिए बहुत सहानुभूति रखते थे जो रमज़ान के महीने में उपवास रखते थे। हालांकि, आज के राजनेताओं के विपरीत, गांधी उपवास के कार्य के पीछे के वास्तविक संदेश में अधिक रुचि रखते थे।
1938 में खुदाई खिदमतगारों से बात करते हुए गाँधी ने कहा था: हमें लगता है कि रमज़ान का त्यौहार उपवास से शुरू होता है और भोजन एवं पेय के साथ समाप्त हो जाता है| हम रमज़ान के पाक महीने के दौरान छोटी-छोटी बातों पर आपा खोने या दुर्व्यवहार में लिप्त होने के बारे में कुछ भी नहीं सोचते| … यदि आप वास्तव में अहिंसा पैदा करना चाहते हैं तो आपको एक प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि चाहे हो जाए आप अपने घर के सदस्यों के बारे में क्रोध या आदेश को जगह नहीं देंगे या उनपर रोब नहीं जमायेंगे| (महात्मा गांधी की संग्रहीत कृतियाँ, खंड 74)
इस प्रकार, गाँधी रोज़ा और इफ़्तार (सामूहिक रूप से उपवास तोड़ना) के बीच भेद करते हुए दिखाई देते हैं| उनके लिए रोज़ा रमज़ान के दौरान शाम को खत्म नहीं होता है; बल्कि एक प्रथा के रूप में यह हमें अहिंसा को जीवन का एक तरीका बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह एक कारण हो सकता है कि क्यों इफ़्तार गाँधी के लिए एक राजनीतिक पहचान नहीं बन सका |
औपनिवेशिक युग के बाद के भारत में नेहरू ने धर्म की एक बहुत ही अलग धारणा प्रस्तुत की। उनके विचार से, धार्मिक रीति-रिवाज और प्रथाएं विशिष्ट भारतीय संस्कृति ‘अनेकता में एकता’ का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह से इफ़्तार को भारत में विशिष्ट इस्लामिक अभ्यास के प्रतीक के रूप में देखा गया था। जब से नेहरू की सांस्कृतिक नीति ने राष्ट्रीय एकीकरण को प्राप्त करने के लिए एक मौलिक सिद्धान्त के रूप में एक दूसरे की आस्थाओं पर पारस्परिक विचार विमर्श की परिकल्पना दी तब से रमजान के माह के दौरान आपसी इफ़्तार पार्टियाँ अल्पसंख्यकों तक पहुँचने के लिए एक स्वीकार्य माध्यम के रूप में उभर कर सामने आईं।
हालांकि, नेहरू ने इफ़्तार पार्टियों को कभी भी एक आधिकारिक मुद्दा नहीं बनाया। वह अपने मुस्लिम दोस्तों को निजी इफ़्तार के लिए देश के प्रधानमंत्री के रूप में नहीं बल्कि एक व्यक्तिगत नेता के रूप में आमंत्रित किया करते थे।
नेहरू के देहांत के बाद राजनीतिक इफ़्तार पार्टियों की प्रकृति में काफी बदलाव आ गया।
इंदिरा गाँधी रणनीतिक रूप से इफ़्तार पार्टियों का इस्तेमाल चुनावी-राजनीतिक उद्देश्यों से मुस्लिमों के अनुकूल अपनी प्रकृति (रवैये) को स्पष्ट करने के लिए किया करती थीं। राष्ट्रीय मुख्यधारा में मुस्लिमों के अत्यधिक संयोजन की आवश्यकता को दिखाने के लिए इन कार्यों को ठोस साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
इस नई इफ़्तार पार्टी संस्कृति का नतीजा काफी अनुमानित था। कई ऐसे मुस्लिम राजनेता जिनके पास कोई राजनीतिक आधार नहीं था, अंततः आधिकारिक मुस्लिम प्रतिनिधियों के रूप में उभरे। इस मुस्लिम अभिजात वर्ग ने राज्य में लाभ प्राप्त करने के लिए इस्लामिक रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों जैसे इफ़्तार, नमाज़, हज और अजान का उपयोग किया। दिल्ली जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी एक ऐसे नेता थे जिनको अपनी फतवा राजनीति को पोषित करने के लिए इंदिरा गाँधी द्वारा कई बार संरक्षण प्रदान किया गया था।
यह ध्यान रखना बहुत ही दिलचस्प है कि भाजपा हमेशा इफ़्तार पार्टियों की आलोचना नहीं करती थी। भाजपा के मुस्लिम नेता मुस्लिमों के लिए पार्टी की चिंताओं (दिलचस्पी) को उजागार करने के लिए इफ़्तार पार्टियों का आयोजन किया करते थे। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेई ने अपने कार्यकाल के दौरान रमज़ान में इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया था।
मुस्लिम तुष्टिकरण के रूप में राजनीतिक इफ़्तार
आपसी भाईचारे के लिए इफ़्तार पार्टी और राजनीतिक दलों के द्वारा आयोजित इफ़्तार पार्टी राजनीतिक इफ़्तार के दो अलग-अलग रूप हैं। जब विभिन्न धर्मों के लोग मुस्लिमों का सम्मान करने के लिए एक साथ आकर रोजेदारों के साथ इफ़्तार करते हैं और कुछ इसी प्रकार का संवाद करते हैं तब इफ़्तार पार्टी एक अद्वितीय सांस्कृतिक अभ्यास के रूप में उभरती है। यह आयोजन (इवेंट्स) धार्मिक समुदायों को एक-दूसरे से कुछ ऐसा सीखने में मदद कर सकते हैं जिसकी परिकल्पना नेहरू ने ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में की थी।
लेकिन, राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित की जा रही इफ़्तार पार्टियां आपसी भाईचारे के पैमाने पर खरी नहीं उतर रही हैं। राजनीतिक दल केवल कुछ अपने जाने पहचाने मुस्लिमों के लिए इफ़्तार पार्टी का आयोजन करते हैं, जिन्हें प्राथमिक रूप से मुस्लिम मतदाताओं तक पहुँचने के लिए प्रमुख हितधारकों के रूप में देखा जाता है। प्रतिस्पर्धी चुनावी राजनीति का प्रयोजन ऐसे आयोजनों की प्रकृति का निर्धारण करता है। इस मामले में, मुसलमानों के नेताओं को मुसलमानों के प्रतिनिधियों या शुभचिंतकों के रूप में स्वीकार्य और वैध बनाया जाता है।
हालांकि, इफ़्तार पार्टियों के नाम पर मुस्लिम अभिजात वर्ग की अपील को भाजपा के ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के पसंदीदा नारे से भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए।
यह सच है कि गैर-बीजेपी राजनीतिक दल एक बहुत ही सरल दृष्टिकोण का पालन करते हैं कि मुस्लिम अभिजात वर्ग के माध्यम से भारतीय मुस्लिम समुदाय से संपर्क किया जा सकता है, बीजेपी ने धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में मुसलमानों के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ व्यवस्थित रूप से प्रचार किया है।
फलस्वरूप भाजपा मुसलमानों से जुड़ी सारी चीजों को अनदेखा कर देती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बाबरी मस्जिद, पर्सनल लॉ, सड़कों पर नमाज की पेशकश और यहाँ तक कि गैर-मुस्लिमों के साथ इफ़्तार भी मुस्लिम तुष्टिकरण के प्रतीक के रूप में एकत्रित हैं।
अतः मुस्लिम अभिजात वर्ग और मुस्लिम जनसाधरण के बीच अंतर को उजागर करना बहुत महत्वपूर्ण है। भारतीय मुस्लिम समुदाय (या समुदायों) की आंतरिक शक्ति संरचना हमेशा अनुकूल नेताओं को बनाने के लिए राजनीतिक दलों (भाजपा समेत) द्वारा निरंतर और प्रोत्साहित होती है। इन नेताओं को या तो ‘मुस्लिम अभियान तक पहुंचने’ या मुस्लिम तुष्टिकरण के दावों को मंजूरी देने के लिए संतुष्ट किया जाता है।
इफ़्तार पार्टियां एक प्रकार का राजनीतिक उपकरण रही हैं; भविष्य में ऐसे आयोजनों की अनुपस्थिति निश्चित रूप से एक नए प्रकार के मुस्लिम अभिजात वर्ग का निर्माण करने जा रही है। आखिरकार, भाजपा के अपने राष्ट्रवादी मुस्लिम हैं, जिन्हें प्रसन्न नहीं किया जा सकता है!
हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज में एक सहयोगी प्रोफेसर हैं।
Read in English : A brief history of political iftar parties in India: From Nehru to NDA