ऑपरेशन सिंदूर के बारे में मेरा विश्लेषण क्या है और इससे मिले सबक के बारे में मेरा आकलन क्या है यह सब कुछ समय बाद ही सामने आ पाएगा क्योंकि क्या पता, इस कहानी में अभी और प्रसंग उभरें और वह क्या हों.
फिलहाल हम तीन उदाहरणों वाले अपने नियम के अनुसार, इस ऑपरेशन से उभरे कुछ प्रमुख बिंदुओं की जांच करें.
पहला बिंदु बेशक यह है कि जब दूसरा पक्ष 14 दिनों से पूरे ‘अलर्ट’ पर हो, पूरी तरह चाक-चौबंद हो, उसके विमान तमाम हथियारों से लैस हों, उसकी मिसाइलें तैनात हों, तब आप उसे ‘सरप्राइज़’ कैसे दे सकते हैं.
दूसरा यह कि एक पीढ़ी के सामने भारत जब सबसे जोखिम वाले पल से गुज़र रहा हो तब दिखावे के लिए किस तरह की पैकेजिंग की जाए और खबरों को किस तरह नियंत्रित किया जाए. बालाकोट से, जबकि इस ऑपरेशन से जुड़े सबूतों को लेकर सवाल खड़े किए गए थे, सबक लेते हुए इस बार फोटो और वीडियो प्रस्तुत करने की सावधानी बरती गई ताकि कोई शक न उभरे.
और तीसरा बिंदु इतना बड़ा जोखिम लेने के साहस से जुड़ा है जिसके तहत टकराव को बढ़ाने और सहिष्णुता/स्वीकार्यता के स्तर को तय करने के खेल शामिल हैं.
सबसे उल्लेखनीय पहलू ‘सरप्राइज़’ वाला है. उरी और पुलवामा के मामलों में मोदी सरकार ने पैमाना तय कर दिया था. पाकिस्तान में और दरअसल भारत में भी हर कोई जानता था कि सवाल यह नहीं था कि हमले किए जाएंगे या नहीं, बल्कि सवाल यह था कि वह कब किए जाएंगे. ऐसे कई लोग थे जो कह रहे थे कि जवाबी कार्रवाई दुश्मन के हमले के तुरंत बाद नहीं तो 24 घंटे के अंदर तो की ही जानी चाहिए. वरना सरकारी कदम की व्यापक स्वीकार्यता वाली ‘ओवर्टन विंडो’ नामक खिड़की बंद होने लगती है. इसलिए, पूरे 14 दिन तक इंतज़ार क्यों करना?
आप यह निश्चित मान कर चल सकते हैं कि सेना ने जवाबी कार्रवाई का खाका तैयार कर लिया होगा. 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद यह तय हो गया था कि अब बड़े आतंकवादी हमले होते रहेंगे. ऐसे एक-न-एक हमले की आशंका हमेशा बनी रही है. सेनाओं को नई योजना बनाने या नए वेपन सिस्टम हासिल करने के लिए 14 दिन नहीं चाहिए. तो फिर, इतना लंबा इंतज़ार क्यों?
अनुमान यह लगाया गया कि यह इंतज़ार इसलिए किया गया ताकि जवाबी कार्रवाई के बारे में अटकलें लगाई जाती रहें. दूसरे पक्ष को भी ‘ओवर्टन विंडो’ नामक खिड़की बंद होती लगी और इसने उस खिड़की को कुछ पलों के लिए उपलब्ध कराया, 30 सेकंड के लिए ‘सरप्राइज़’ देने का मौका. आप यह निश्चित मान कर चल सकते हैं कि पाकिस्तानियों को यह पता था कि भारतीय वायुसेना के विमानों ने कब उड़ान भरी, वह कौन से विमान थे और उनके संभावित लक्ष्य क्या थे. आप यह भी मान कर चल सकते हैं कि पाकिस्तानी वायुसेना के पास भी ऐसे ही सबसे अच्छी तरह से लैस विमान हैं.
सवाल यह है कि उन्हें यह कैसे पता चलेगा कि भारतीय विमान कब हमला करेंगे और कब उनके ऊपर टूट पड़ना है. इसी स्थिति में, जब आप पूरी तरह से दूसरे पक्ष के सामने हैं, आपके इरादे ज़ाहिर हैं तभी ‘सरप्राइज़’ के क्षणों को ढूंढना होता है. लक्ष्य को निशाने पर लेकर शूट करना और वापसी उड़ान शुरू करनी पड़ती है. हकीकत यह है कि हथियारों को पाकिस्तानी वायुसेना की नज़रों के सामने लॉन्च किया गया था.
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मोदी सरकार ने इन 14 दिनों का इस्तेमाल यह जताने के लिए किया कि उसे कोई हड़बड़ी नहीं है, कि वह सोशल मीडिया वाले अपने कई सलाहकारों की यह सलाह मानने को तैयार है कि वह पाकिस्तान के लिए ‘आईएमएफ’ के दरवाज़े बंद करवा के, ‘एफएटीएफ’ को फिर से लागू करके और सिंधु नदी के किनारे प्यास से तड़पाकर उसे घुट-घुटकर मरने के लिए मजबूर करने को तैयार है. अब हमें मालूम हो गया होगा कि पानी के मोर्चे पर ‘एक्शन’ इसी बड़े धोखे का हिस्सा था; कि भारत युद्ध का जोखिम उठाने की जगह पाकिस्तानी किसानों को पानी के बिना भूखों मारने की सुरक्षित और धीमी चाल को तरजीह देगा.
प्रधानमंत्री रोज़ अहम बैठकें कर रहे थे, कभी कैबिनेट कमिटी की बैठक, तो कभी ‘सीसीएस’ की. कभी तीनों सेनाओं के अध्यक्षों, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तथा रक्षा मंत्री के साथ संयुक्त बैठक कर रहे थे, तो कभी इन सबके साथ अलग-अलग बैठक कर रहे थे. सारी बैठकें गोपनीय थीं. एक शाम सरकार ने यह ज़ाहिर होने दिया कि एक बड़ी घोषणा बस की ही जाने वाली है. यह घोषणा जातिगत जनगणना करवाने के फैसले के बारे में निकली. ऐसी धारणा बनाई गई कि सरकार जनता के आक्रोश को शांत हो जाने देना चाहती है. भारत और ब्रिटेन के बीच व्यापार संधि की घोषणा की गई और उसका जोशीला स्वागत किया गया. मोदी ‘एबीपी’ की न्यूज़ समिट में शरीक हुए और ‘विकसित भारत’ वाला अपना रस्मी भाषण दिया जिसमें सिर्फ सिधु नदी के पानी का ज़िक्र किया. अब हम देख सकते हैं कि यह भी ध्यान भटकाने वाली एक चाल थी.
अगले दिन के कार्यक्रम में राजस्थान सेक्टर में बड़ा हवाई युद्धाभ्यास शामिल था. यह भी समय बिताने की चाल जैसी लगी, क्योंकि दो तरह के युद्धाभ्यास पहले ही करवा लिए गए थे. इसके बाद देशव्यापी नागरिक सुरक्षा ड्रिल करवाने की घोषणा की गई. यह भी चीज़ों को लटकाए रखने की कोशिश ही थी. 6 और 7 मई की दरमियानी रात में जब लड़ाकू विमानों ने उड़ान भरी, तब भी पाकिस्तानियों ने उन्हें साथ-साथ ज़रूर टोह लिया होगा. कोई नतीजा न देने वाली ऐसी गतिविधियों की पुनरावृत्ति में ही शायद ‘सरप्राइज़’ के वह चंद क्षण सिमटे थे. अब पाकिस्तान चाहे जो दावे कर रहा हो, उन हथियारों ने अपने निशानों पर वार किया.
दिखावे के लिए और संदेश देने के लिए इस ऑपरेशन का नाम उन भारतीय महिलाओं को संबोधित था जिन्हें पहलगाम में आतंकवादियों के हमले अपने परिजनों को खोना पड़ा; दो महिला सेनाधिकारियों को हमारी सेनाओं के तालमेल और हमारी आबादी की विविधता को रेखांकित करने का काम सौंपा गया. सेना की ‘ब्रीफिंग’ काफी संतुलित तरीके से की गई जिसमें किसी तरह की लफ्फाज़ी नहीं थी. यह भी गौर कीजिए कि भाजपा के दक्षिणपंथी सोशल मीडिया हैंडलों ने हिमांशी नरवाल और उनके धर्मनिरपेक्ष उदारवाद को लेकर अपनी टिप्पणियों को किस तरह ‘सुधारा’. कॉमरेडों को यहां तक सलाह दी गई कि वह विभाजनकारी साज़िशों के फंदे में न उलझें. विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने अपनी ब्रीफिंग में कहा कि आतंकवादी हत्याओं का मकसद पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगे करवाना था.
जहां तक साहस वाले तीसरे पहलू की बात है, यह एक जोखिम भरा कदम था जिसमें मौतों का खतरा भी था. पुलवामा कांड के बाद पाकिस्तानी वायुसेना को पूरा एहसास था कि हमला होगा. इस बार विफल होने का जोखिम भी था और खासकर बमबारी की कामयाबी के बाद अंततः टकराव में बेकाबू बढ़ोतरी का खतरा भी था. अब जो कार्रवाई की गई है वह एक दशक से ज्यादा की अवधि में मोदी की सबसे जोखिम भरी कार्रवाई है, खासकर इसलिए कि दुनिया में कई लड़ाइयां चल रही हैं, ध्यान भटकाने वाली कई गतिविधियां जारी हैं, और रूस युद्ध से हलाकान है. ट्रंप सरकार अनिश्चितताओं को और बढ़ा ही रही है.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अब तक जो हुआ सो हुआ, गेंद अब पाकिस्तान के पाले में है. वह इसे किस तरह खेलना चाहता है, उसका क्या कर सकता है और हम उसका मुकाबला करने के लिए कितने तैयार हैं, इसी सब से इस कहानी का अगला प्रसंग लिखा जाएगा.
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