चेन्नई की एक कंपनी ने जनरल मैनेजर के पद के लिए एक लोकल पेपर में दिए गए विज्ञापन में केवल ब्राह्मण उम्मीदवार लिए जाने की बात की. इसने सोशल मीडिया में बड़ा तूफान मचा दिया. कंपनी ने हालांकि इसे टाइपिंग की भूल कहकर मामले को ठंडा करने की कोशिश की. कंपनी की सफाई है कि कंपनी को सिर्फ शाकाहारी कर्मचारी चाहिए लेकिन विज्ञापन बनाने वाले ने इसे ‘सिर्फ ब्राह्मण’ समझ लिया. ये खबर स्थानीय मीडिया में प्रमुखता से छपी है.
चेन्नई की इस इंटीरियर वर्क कंपनी को प्रोजेक्ट्स, सेल्स और एडमिनिस्ट्रेशन के जनरल मैनेजर चाहिए थे. ये विज्ञापन इसी बारे में था.
इस विज्ञापन और फिर इसकी सफाई ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं:
-क्या ये कंपनी सिर्फ ब्राह्मणों को ही उच्च पदों पर रखती है, क्योंकि ओनली वेजेटेरियन बोलने पर कोई ओनली ब्राह्मण टाइप कर दे, ये बात समझ में नहीं आती.
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-जनरल मैनेजर पद के लिए क्या किसी खास जाति का या शाकाहारी होना जरूरी है?
-अगर कंपनी की सफाई को सही मान लें तो भी क्या जनरल मैनेजर होने के लिए शाकाहारी होना कोई वाजिब शर्त है, वह भी उस चेन्नई या तमिलनाडु में जहां 97.65 फीसदी आबादी मांसाहारी है, यानी कंपनी में नौकरी के दायरे से ये 97.65 फीसदी आबादी बाहर हो जाती है.
-इस बात का भी कोई मतलब नहीं है कि हर ब्राह्मण शाकाहारी होगा. देश में कई ब्राह्मण समुदाय पूरी तरह मांसाहारी हैं, जिनमें कश्मीरी ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण और बंगाली ब्राह्मण प्रमुख हैं.
विद्वानों का एक तबका मानता है कि आधुनिकता आने के साथ ही जाति या धर्म या नस्ल जैसे प्राचीन पहचान का महत्व कम होता चला जाएगा और लोग कम्युनिटी के सदस्य की जगह समाज के सदस्य या नागरिक बन जाएंगे, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? आइए कुछ प्रमाणों पर गौर करें.
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बेंगलुरु में एक टिफिन सेवा ने ब्राह्मणों के लिए अलग से शुद्ध ब्राह्मण लंच बॉक्स सेवा शुरू करने का ऐलान किया था. जाहिर है कि इस कंपनी में केवल ब्राह्मण ही काम करते होंगे. कंपनी मालिकों के मन में बाकी जातियों के प्रति हीनभावना भी इससे जाहिर होती है.
भारत के प्रमुख अंग्रेजी अखबार द हिंदू के चेन्नई दफ्तर की कैंटीन शुद्ध शाकाहारी है और यहां मांसाहारी भोजन लेकर जाने पर स्पष्ट रोक है. अगर आप दलित या मुस्लिम हैं तो दिल्ली-एनसीआर में आपको किराए का मकान मिलने में दिक्कत होगी. सवर्णों के लिए किराए का मकान लेना आसान है. इस बारे में दिल्ली-एनसीआर में हुए रिसर्च के बेहद दिलचस्प नतीजे सामने आए हैं.
आईआईटी-मद्रास में ब्राह्मणों के बीच जातिवाद छुआछूत की हद तक बदस्तूर कायम है. ये लोग न केवल अन्य जातियों, खासतौर पर उन जातियों से खानपान में दूरी बरतते हैं जिन्हें वे नीचा मानते हैं, बल्कि इनके संस्थान ने भी शाकाहारी और मांसाहारी भोजन करने वालों के लिए अलग-अलग जगह नियत करके इनके भेदभावकारी बर्ताव का समर्थन किया है.
कर्नाटक में तो बाकायदा एक हाउसिंस सोसायटी ही केवल ब्राह्मणों के लिए बनाई गई है. इसकी पिछले दिनों काफी चर्चा रही. बेंगलूरु में 2013 में वैदिक विलेज-शंकर आग्रहारम नाम की सोसायटी को 21 एकड़ जमीन आवंटित की गई थी. हालांकि इसका डेवलपर फ्रॉड में गिरफ्तार भी किया गया था.
महाराष्ट्र के ठाणे में तो एक ब्राह्मण हाउसिंग सोसायटी स्थापित है. आंध्र प्रदेश में सरकार ने ब्राह्मण कल्याण निगम बनाया हुआ है. इसमें हर तरह के और हर स्तर के ब्राह्मणों के लिए एक से एक श्रेष्ठ योजनाएं हैं जिनका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा रहा है.
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इन प्रमाणों के आधार पर यह नतीजा निकाला जा सकता है कि आधुनिकता के असर से जाति के खत्म हो जाने की बात भारत में गलत साबित हुई है. यह कितनी अजीब बात है कि दिल्ली जैसे मॉडर्न माने जाने वाले शहर में लगभग 40 परसेंट आबादी किसी न किसी तरह का छुआछूत मानती है.
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में भी जाति के आधार पर भेदभाव होता है. ये सही है कि चेन्नई की कंपनी ने जॉब का जैसा विज्ञापन दिया, वैसा आम तौर पर नहीं होता. विज्ञापनों में जाति की बात नहीं होती. लेकिन ऐसा नहीं है कि कॉरपोरेट सेक्टर में जाति का असर नहीं है.
सुखदेव थोराट और पॉल ऐटवेल ने 2007 में दिल्ली एनसीआर में एक बड़ा रिसर्च इस सिलसिले में किया था. उन्होंने अखबारों में आए जॉब के विज्ञापनों के जवाब में तीन तरह के बायोडाटा भेजे. बायोडाटा में शिक्षा और अनुभव समेत सभी फैक्ट एक जैसे रखे गए. सभी बायोडाटा पुरुष कैंडिडेट के थे. लेकिन पहले बायोडाटा का सरनेम ऐसा रखा गया ताकि कैंडिडेट सवर्ण हिंदू नजर आए. दूसरे का सरनेम दलित और तीसरे का नाम मुसलमान रखा गया.
इस शोध से पता चला कि कंपनियां जब बायोडाटा छांटती हैं तो इस बात के ज्यादा मौके हैं कि सवर्ण हिंदू सरनेम वाले कैंडिडेट के पास इंटरव्यू का कॉल आए और दलित या मुसलमान नाम वाले कैंडिडेट छंट जाएं. इस रिसर्च ने भारत में आधुनिकता और जाति के अंत में रिश्ता स्थापित करने वालों की थ्योरी की धज्जियां उड़ा दीं. जब इंटरव्यू के लिए बुलाने में ही भेदभाव हो रहा है, तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नौकरियां देते समय जाति की और भी ज्यादा भूमिका होती होगी.
नॉर्दन ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी, कनाडा के तीन शोधकर्ताओं डी अजित, हैन डॉनकर और रवि सक्सेना ने भारत की भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड 1000 सबसे बड़ी कंपनियों के बोर्ड का अध्ययन करके बताया कि इनमें से 92.6% पदों पर सिर्फ ऊंची जातियों के लोग हैं. कुल 9052 बोर्ड मेंबर की सामाजिक पृष्ठभूमि जानने की कोशिश की गई. उनमें से 4037 ब्राह्मण और 4167 वैश्य जाति के हैं.
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ये शोध 2010 में किया गया है. उनका निष्कर्ष है कि भारतीय कंपनियों के शिखर पर होने के लिए अनुभव या मेरिट से बड़ा कारण ऊंची जाति में पैदा होना है. शोधकर्ताओं का कहना है कि कॉरपोरेट बोर्ड एक छोटा सा समूह है, जहां खास जातियों के लोग हैं और वे ही आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
अगर कंपनियों के शिखर पर सवर्ण वर्चस्व है तो जाहिर है कि इसका असर नीचे और मिडिल लेवल के रिक्रूटमेंट पर भी पड़ता है. इसलिए जो चेन्नई की कंपनी ने जाति संबंधी विज्ञापन देकर किया, उसे मासूम गलती मानिए. असली खेल वहां हो रहा है, जहां विज्ञापनों में जाति का जिक्र नहीं है.
थोराट और अटवेल रिक्रूटमेंट में भेदभाव के कारणों के बारे में बताते हैं कि जो लोग कंपनियों में टॉप की पोजिशन पर हैं, उन्हें लगता है कि खास तरह के लोग ही उनकी तरह सफल हो सकते हैं. ये सोच भाई-भतीजावाद और अपनी जाति के लोगों को सलेक्ट करने के लिए प्रेरित करती है. इस तरह नीची जाति में पैदा होना आर्थिक विपन्नता का भी कारण बन जाता है.
सामाजिक प्रतिष्ठा पाने वाले समूह आपस में ही संवाद करते हैं और आर्थिक संपन्नता और क्षमता वाले पदों पर अपने जैसे लोगों को रखते हैं. अपने ही समूह के लोगों को नौकरी देकर और उन्हें सामाजिक नेटवर्क के जरिए आगे बढ़ाने का मतलब है कि नीचे की जातियों के लिए कॉरपोरेट सेक्टर के कई दरवाजे कभी नहीं खुलते.
और इसकी वजह ये नहीं है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में शिक्षा या मेरिट का अभाव है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)