अगर ऐसा कोई क्षेत्र है जिसमें हम कोविड-19 जैसी महामारी के बावजूद कई तरह से सफल हो सकते हैं, तो वह क्षेत्र है शिक्षा. भारत समेत पूरी दुनिया में महामारी से लड़ने के लिए सख्त कदम उठाए गए- स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय बंद कर दिए गए, ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई.
भारत में 3.5 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा में नामांकित हैं जिसके कारण सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 26 प्रतिशत है, जबकि ज्यादा आबादी वाले चीन में यह 51.6 प्रतिशत है. नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के मुताबिक 2035 तक 50 प्रतिशत जीईआर हासिल करने का लक्ष्य पूरा करने के लिए हमें ऑनलाइन शिक्षण को प्रमुखता देनी होगी. इसके अलावा, एनईपी में प्रवेश और निकास के कई विकल्पों तथा क्रेडिट बैंक की व्यवस्था तभी संभव हो सकेगी जब उन्हें ऑनलाइन के वातावरण में शामिल होने की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध करवाई जाएगी.
जिन विषयों में व्यावहारिक हुनर की जरूरत नहीं है उन सभी विषयों की पढ़ाई ऑनलाइन की जानी चाहिए. जिन विषयों के लिए क्षमता आधारित हुनर चाहिए उनके लिए ऑनलाइन तथा ऑफलाइन दोनों तरीकों का मेल चाहिए. खुली और दूरस्थ (ओडीएल) शिक्षा के शुरुआती दिनों में 85 प्रतिशत पाठ डाक से भेजी गई सामग्री से पूरा किया जाता था और बाकी पाठ विश्वविद्यालय के दायरे में स्थित केन्द्रों में प्रत्यक्ष लेक्चर से पूरा किया जाता था.
ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था में अगर कुछ लेक्चर किसी विशेष जरूरत के मद्देनजर आमने-सामने दिए जाते हैं तो यह मिश्रित तरीका बन जाता है. इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इगनू) के अलावा दूसरे सभी खुले विश्वविद्यालयों को अपने-अपने राज्य की सीमा के अंदर काम करना पड़ा. धीरे-धीरे ‘आईटी’ क्षेत्र की मजबूती के साथ ऑनलाइन शिक्षण ने डाक वाली व्यवस्था की जगह ले ली. ऑनलाइन परीक्षाएं भी तेजी से स्वीकार की जा रही हैं क्योंकि वे न केवल छात्रों के ज्ञान का मूल्यांकन तेजी से करती हैं बल्कि प्रश्नपत्रों तथा उत्तर वाली कॉपियों, परीक्षा केन्द्रों और निरीक्षकों, कॉपी जांचने वालों की व्यवस्था आदि की मुश्किलों का हल मुहैया कराती हैं.
वैसे तो विभिन्न ‘मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्सेज’ (‘मूक्स’) के लिए मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होती लेकिन डिग्री देने वाले सभी प्रोग्राम के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से मंजूरी चाहिए. एक वैधानिक शर्त यह है कि कोर्स ऑनलाइन और प्रत्यक्ष लेक्चर को मिलाकर बना हो. खुली और दूरस्थ शिक्षा (ओडीएल) के दूसरे खिलाड़ी हैं यूजीसी, राज्यों के खुले विश्वविद्यालय और शिक्षा मंत्रालय.
मेडिकल की तरह इंजीनियरिंग की पढ़ाई में व्यावहारिक अनुभव जरूरी है, इसलिए उन्हें डिग्री के दायरे से बाहर रखा गया है. वैसे, इंजीनियरिंग के छात्रों के लिए आईआईटी द्वारा तैयार किया गया ई-कंटेंट ‘नेशनल प्रोग्राम ऑन टेक्नोलॉजी एनहान्स्ड लर्निंग’ (एनपीटीईएल) बेहद लोकप्रिय है.
ऑनलाइन शिक्षण की डिग्रियां के सुस्त विस्तार का एक बड़ा कारण यह है कि शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी व्यापारीकरण और गैर-जिम्मेदार ऑपरेटरों के डर से सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं. मुंबई और पुणे जैसे बड़े पारंपरिक विश्वविद्यालय में रजिस्टर्ड ओडीएल की संख्या रेगुलर प्रोग्राम के मुकाबले दोगुनी है. यह उत्साहवर्द्धक लग सकता है लेकिन यूजीसी को अपने नियमों को दुरुस्त करने और ओडीएल और ऑनलाइन शिक्षण कार्यक्रमों के बीच कृत्रिम अंतर को खत्म करने की जरूरत है, खासकर इसलिए कि डाक वाला तरीका लगभग खत्म हो चुका है और ज़्यादातर सामग्री ऑनलाइन उपलब्ध कराई जाती है.
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वर्चुअल यूनिवर्सिटी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
जबकि दुनिया वर्चुअल यूनिवर्सिटी (वीयू) की ओर मुड़ चुकी है, ऑनलाइन शिक्षण भविष्य की व्यवस्था बनती जा रही है. इसका अर्थ यह हुआ कि न तो परिसर की जरूरत होगी, न स्टाफ की प्रत्यक्ष जरूरत होगी. हर चीज ऑनलाइन होगी, दूर स्थित प्रयोगशालाओं और स्पर्श का अनुभव कराने वाले साधनों के जरिए प्रयोग भी किए जाएंगे. यह भवनों से बने पारंपरिक विश्वविद्यालयों को समाप्त कर देगा.
‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ (एआई) हरेक छात्र की विशेषताओं, कमजोरियों और रुचियों के हिसाब से शिक्षा को बदलकर एकदम निजी बना देगा. एक कक्षा के सभी छात्रों को एक तरह का मानने की जगह कमजोर छात्रों के लिए उनकी जरूरत के मुताबिक अतिरिक्त सामग्री की व्यवस्था की जाएगी. होलोग्राम तकनीक, जो अब एक वास्तविकता बन गई है, के प्रयोग से प्रख्यात प्रोफेसर दुनियाभर के लिए एक साथ कई भाषाओं में लेक्चर दे सकेंगे.
नरेंद्र मोदी सरकार के भविष्योन्मुखी बजट-2020 में ‘नेशनल डिजिटल एजुकेशनल आर्किटेक्चर’ (एनडीईएआर) की घोषणा की गई थी, जिसके तहत शैक्षणिक पाठ्यक्रमों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों या शिक्षण तथा विकास कार्यक्रमों के प्रशासन, डॉकुमेंटेशन, निगरानी, रिपोर्टिंग, ऑटोमेशन और डिलीवरी की व्यवस्था की जाएगी. इसके चलते एक ‘लर्निंग मैनेजमेंट सिस्टम’ (एलएमएस) बनेगी जिसमें एआई की मदद से ऑनलाइन शिक्षण किया जा सकेगा.
एलएमएस नामक यह व्यवस्था समकालिक और अ-समकालिक मोड में ऑनलाइन सामग्री और पाठ्यक्रम के लिए एक मंच का काम करेगी. एलएमएस में अलॉगरिद्म भी शामिल होगा, जो छात्रों के प्रोफाइल और पाठ सामग्री से हासिल मेटा डेटा के आधार पर उपयुक्त पाठ्यक्रम का सुझाव देगा.
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गरीबों के लिए स्मार्टफोन से ज्यादा प्रासंगिक है टीवी
कोविड-19 महामारी के कारण लॉकडाउन और स्कूलों का बंद होना हम सबके लिए तो कष्टदायक था ही, देश के सबसे वंचित तबकों के बच्चों और अभिभावकों के लिए सबसे ज्यादा कठोर अनुभव रहा.
शिक्षा मंत्रालय नेशनल मिशन ऑन एजुकेशन इन इनफॉर्मेशन ऐंड कम्यूनिकेशन टेकनोलॉजी (एनएमईआइसीटी) की स्कीम के तहत केवल स्मार्टफोन ही नहीं बल्कि टीवी और डीटीएच के जरिए सबको ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभा सकता था. लेकिन दुर्भाग्य से इस स्कीम को 2014 में ही टाल दिया गया था. भारत में 20 करोड़ से ज्यादा टीवी सेट हैं, जो 70 प्रतिशत आबादी को उपलब्ध हैं जबकि स्मार्टफोन केवल 30 प्रतिशत आबादी के पास हैं. यह स्कीम महंगे स्मार्टफोन की जगह उपग्रहों से जुड़े टीवी नेटवर्क पर चलती. छात्रों को केवल क्लास वाले समय पर टीवी खोलने की जरूरत पड़ती, बाकी काम यह स्कीम पूरा कर देती.
निष्कर्ष यह कि हर रात के बाद सुबह होती है. कोविड की महामारी में प्रमुखता पाने से पहले तक ऑनलाइन शिक्षण हाशिये पर पड़ा था. लेकिन इसके बाद भवनों में चलने वाली पारंपरिक शिक्षण व्यवस्था की विदाई की प्रक्रिया शुरू हो गई है. अब सब कुछ इस पर निर्भर होगा कि दुनिया कितनी साहसी और कल्पनाशील हो सकती है और ऑनलाइन शिक्षण को कितना आगे बढ़ाने के लिए तैयार है.
(अशोक ठाकुर, भारत सरकार में शिक्षा सचिव थे. प्रोफेसर एसएस मांथा, एआईसीटीई के पूर्व चेयरमैन हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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