नई दिल्ली: जैसे ही भारत 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी कर रहा है, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने चेतावनी दी है कि यह आखिरी चुनाव हो सकता है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने ‘अब की बार 400 पार’ का नारा दिया है, लेकिन यह पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद का ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ का नारा है जो इस हफ्ते चर्चा का सबसे चर्चित विषय रहा है.
कोविंद के नेतृत्व वाले पैनल की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट आ गई है, जिससे यह चर्चा शुरू हो गई है कि लोकसभा और विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव जल्द ही भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का हिस्सा बन सकते हैं.
पैनल ने दो चरणों वाली चुनावी प्रक्रिया की सिफारिश की है: पहला, लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव, उसके बाद 100 दिनों के भीतर नगरपालिका और पंचायत चुनाव.
इसे सुविधाजनक बनाने के लिए पैनल ने राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को कम करके इसे लोकसभा के साथ सहवर्ती बनाने की सिफारिश की है. पैनल ने गुरुवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस आशय के संवैधानिक संशोधनों को राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की ज़रूरत नहीं होगी.
रिपोर्ट ने विपक्षी खेमों में खतरे की घंटी बजा दी है, जिन्हें डर है कि यह “संघवाद के लिए मौत की घंटी” होगी.
हालांकि, जिस देश में अब तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के 400 चुनाव हो चुके हैं, वहां एक साथ चुनाव कराने पर बहस नई नहीं है. भारत के विधि आयोग ने तीन बार — 1999, 2015 और 2018 (ड्राफ्ट) में — “नागरिकों, राजनीतिक दलों और सरकारी अधिकारियों को अतुल्यकालिक चुनावों के बोझ से मुक्त” करने के लिए एक साथ चुनाव कराने का तर्क दिया था.
2016 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय पैनल ने भी ऐसा ही किया था, जिसने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने से चुनाव कराने में होने वाला भारी खर्च कम हो जाएगा. पैनल ने कहा कि निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने एक साथ चुनाव कराने की लागत 4,500 करोड़ रुपये आंकी है.
कोविंद के नेतृत्व वाले पैनल की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि क्यों ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ दिप्रिंट का इस हफ्ते का न्यूज़मेकर है.
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जब एक साथ चुनाव आदर्श था
भारत के आज़ाद होने के बाद शुरुआती साल में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे.
अक्टूबर 1951 और मई 1952 के बीच हुए पहले आम चुनाव में तीन चरणों वाली प्रक्रिया देखी गई — राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति, केंद्र और राज्यों में निचले सदनों के सदस्यों और उच्च सदनों के सदस्यों का चुनाव. यहां तक कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए दूसरा आम चुनाव भी एक ही समय पर हुआ था.
गौरतलब है कि, हालांकि, दूसरे आम चुनावों पर ईसीआई की रिपोर्ट के अनुसार, 1957 में एक साथ चुनाव कराने के लिए कई राज्यों के विधायी सदनों को समय से पहले भंग कर दिया गया था, जिसका हवाला कोविंद के नेतृत्व वाले पैनल ने अपनी रिपोर्ट में दिया था.
लेकिन 1960 के बाद के दशक में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ने के साथ-साथ चुनावों का चक्र बाधित हो गया. जबकि पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश 1967 और 1980 के बीच तीन मौकों पर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके, ओडिशा विधानसभा ने उस अवधि के दौरान पांच चुनाव देखे और पश्चिम बंगाल विधानसभा ने 1967-1972 के बीच चार चुनाव देखे.
बाद के दशकों में चुनाव कराने की आवृत्ति कम हो गई, लेकिन एक बार जब चक्र बाधित हो गया, तो भारत फिर कभी एक साथ चुनाव कराने से पीछे नहीं हट सका.
जब भी भारत ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ की शुरुआत करेगा, वो ऐसा करने वाला पहला देश नहीं होगा. जर्मनी में बुंडेस्टाग (निचला सदन), लैंडटैग्स (राज्य विधानसभा) और स्थानीय चुनाव एक साथ होते हैं. फिलीपींस भी हर तीन साल में एक साथ चुनाव कराता है. हालांकि, इसकी सरकार राष्ट्रपति प्रणाली वाली है.
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एक साथ चुनाव कराने की चुनौतियां
हालांकि, एक साथ चुनाव सरकारी खजाने के लिए बड़ी बचत साबित हो सकते हैं, लेकिन इसके कार्यान्वयन में चुनौतियां भी होंगी.
संवैधानिक संशोधनों को लाने के लिए संविधान में प्रस्तावित जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को विपक्ष के ‘‘संघवाद के उल्लंघन’’ के डर को दूर करने के लिए सावधानी से तौला जाना चाहिए.
इसमें यह सुझाव शामिल है कि एक बार एक साथ चुनाव कराने के प्रावधानों को लागू करने की नियत तारीख तय हो जाने के बाद, ‘‘नियत तारीख के बाद किसी भी चुनाव में गठित सभी राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल लोक सभा के पूर्ण कार्यकाल की समाप्ति पर समाप्त हो जाएगा, चाहे विधानसभा का गठन किसी भी समय किया गया हो.”
हालांकि, कोविंद पैनल ने कहा है कि इस आशय के संवैधानिक संशोधनों को राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की ज़रूरत नहीं होगी, राज्य विधानसभा के कार्यकाल को कम किया जाएगा.
उनका कार्यकाल समाप्त होने से पहले विपक्ष के विरोध को आमंत्रित किया जा सकता है और अदालतों में भी चुनौती दी जा सकती है.
रिपोर्ट दोहराती है कि सदन/विधानसभा के कार्यकाल में बदलाव से संघवाद को ‘‘किसी भी तरह से नुकसान नहीं’’ होता है.
ऐसा हो सकता है और एक साथ चुनाव कराना आर्थिक रूप से व्यवहार्य भी हो सकता है, लेकिन विपक्ष के पास यह तर्क हो सकता है कि ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ पर जोर देने में नरेंद्र मोदी सरकार खराब प्रदर्शन करने वाली सरकारों को हटाने और उनके स्थान पर बेहतर विकल्प लाने के नागरिकों के अधिकार की अनदेखी कर सकती है.
(संपादन फाल्गुनी शर्मा)
(इस न्यूज़मेकर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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