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बुधवार, 30 अप्रैल, 2025
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बेशक यह युद्ध का युग नहीं, लेकिन पहलगाम हमले का निर्णायक और करारा जवाब देना ज़रूरी

भारत को पूरब और पश्चिम, दो मोर्चों पर उलझने से बचने की कोशिश करनी चाहिए. इससे दुश्मनों को फायदा होगा और विकसित भारत के प्रयासों को झटका लगेगा.

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पहलगाम में भीषण आतंकी हमले के कारण पूरे देश में शोक की लहर फैल गई है. लोगों की भावनाएं उबाल पर हैं. लोग इस हमले को अंजाम देने वालों को सख्त और निर्णायक जवाब देने की मांग कर रहे हैं. जनता की अपेक्षाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता के लिए बहुत अहमियत रखती हैं. पुलवामा हमले के बाद भारत ने सोच-विचार के लिए वक्त लिया और उसके बाद बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के अड्डों पर हमला बोला दिया था. इस बार भी भारत को कोई कार्रवाई करने से पहले उपलब्ध विकल्पों पर सावधानी से विचार कर लेना चाहिए.

आखिर, मोदी ने ही एक बार कहा था कि “यह युद्ध का युग नहीं है”. इसलिए सोचा-समझा, सटीक समाधान ही चुनना चाहिए.

सांप्रदायिक सदभाव आज सबसे ज़रूरी है. पहलगाम हमले से पहले ही नए वक्फ कानून और ध्रुवीकरण करने वाले दूसरे मुद्दों के कारण मुर्शिदाबाद, नागपूर, और दूसरी जगहों पर दंगे भड़क चुके हैं जिनके कारण आंतरिक एकता को लेकर बड़ी चिंता उभर आई है. इसलिए यह और भी ज़रूरी है कि केंद्र सरकार विपक्षी दलों के शासन वाले पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों को भी सतह लेकर चले ताकि पूरा देश एकजुट नज़र आए.

राष्ट्रीय संकट के काल में सियासत को गौण कर देना चाहिए. उत्साहप्रद बात यह है कि भारत की राजनीतिक पार्टियां एकमत नज़र आ रही हैं. गृह मंत्री अमित शाह को राहुल गांधी द्वारा फोन किया जाना और दूसरे विपक्षी नेताओं की ओर से सरकार को समर्थन 2019 के पुलवामा कांड के बाद जो कुछ हुआ उससे इस बार माहौल अलग है. 24 अप्रैल को जब पाकिस्तान ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा बैठक बुलाई थी, उसी दिन भारत में सर्वदलीय बैठक की गई.

भारत के लिए उपलब्ध विकल्प

1. कूटनीतिक मोर्चा

बड़े देशों ने जिस तरह के सख्त संदेश भेजे उनसे साफ है कि दुनियाभर के नेताओं ने इस हमले के खिलाफ गंभीर रुख अपनाया है. अब असली बात यह है कि भारत इस वैश्विक समर्थन का कितने असरदार तरीके से इस्तेमाल करता है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू समेत दुनिया भर के नेता भारत के लिए समर्थन दिखा चुके हैं. वैसे, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चुप्पी साध ली है, जबकि भारत में चीन के राजदूत ने शोक संदेश जारी किया है.

चीन और रूस इस क्षेत्र के प्रमुख खिलाड़ी हैं, जिनका समर्थन ज़रूरी है. भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस का खुला समर्थन नहीं किया था, लेकिन उसकी रणनीतिक तटस्थता को रूस के साथ वर्षों पुराने रिश्ते के लिहाज़ के रूप में देखा गया था. इसलिए राष्ट्रपति पुतिन कम-से-कम कूटनीतिक दृष्टि से भारत का समर्थन करना चाहेंगे. चीन को भी कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया न देने के लिए राज़ी किया जाना चाहिए. हालांकि, उससे यह अपेक्षा यथार्थपरक नहीं होगी कि वह पाकिस्तान के खिलाफ को सख्त कदम उठाएगा. चीन पाकिस्तान को मौन समर्थन दे सकता है, क्योंकि बलूच बागियों ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर (सीपीईसी) पर हमला किया है और पाकिस्तान भारत पर बलूचिस्तान में अस्थिरता पैदा करने का आरोप लगा रहा है, लेकिन भारत को दूसरी बड़ी शक्तियों से मिला अंतर्राष्ट्रीय समर्थन पाकिस्तान को गुपचुप मदद देने की चीन की मंशा को ध्वस्त कर सकता है.

पेंटागन के एक पूर्व अधिकारी तथा ‘अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट’ के वरिष्ठ फेलो माइकल रुबिन ने पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर की तुलना ओसामा बिन लादेन से की है. उन्होंने अमेरिका से मांग की है कि वह पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करे और यहां तक सुझाव दिया है कि भारत पाकिस्तान के खिलाफ वैसी ही कार्रवाई करे जैसी इज़रायल ने हमास के खिलाफ की थी.

2. क्या युद्ध एक विकल्प है? 

भारत सरकार को नाज़ुक वैश्विक माहौल को देखते हुए अपने लिए उपलब्ध विकल्पों पर सावधानी से विचार करना चाहिए. रूस-यूक्रेन युद्ध और हमास-इज़रायल संघर्ष ने साफ कर दिया है कि पूरे पैमाने पर युद्ध लंबा, थकाऊ और बेहद महंगा साबित होता है.

बांग्लादेश-चीन-पाकिस्तान के मजबूत होते समीकरण पर ज़रूर विचार किया जाना चाहिए. पाकिस्तान बांग्लादेश के साथ अपने सैन्य संबंध मजबूत कर रहा है और प्रशिक्षण देने के नाम पर उसने उसके फौजी छावनियों में कदम रख दिया है. ऐसा 1971 के मुक्ति संग्राम के बाद से अब तक नहीं हुआ था. बांग्लादेश के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस की हाल की चीन यात्रा और बंगाल की खाड़ी में पहुंच बनाने की वार्ता नए उभरते क्षेत्रीय समीकरण के संकेत देती है. इस बीच, अमेरिका व्यापार संबंधी विवादों और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को फंड रोकने से लेकर विदेशी छात्रों को निर्वासित करने तक तमाम तरह के घरेलू मसलों में उलझा हुआ है.

भारत को पूरब और पश्चिम, दो मोर्चों पर उलझने से बचने की कोशिश करनी चाहिए. इससे दुश्मनों को ही लाभ मिलेगा और विकास के उसके प्रयासों, खासकर 2047 तक विकसित भारत बनने के मिशन को ही नुकसान पहुंचेगा. इज़रायल की तरह की सैन्य कार्रवाई, जिससे बेकसूर नागरिकों को नुकसान पहुंचता हो, भारत के सभ्यतागत मूल्यों के विपरीत होगी.

3. जल पर जंग

इस विकल्प पर भी सोच-विचार करने की ज़रूरत है. सिधु और दूसरी नदियों के रुख को बदलने और उनके पानी के बड़े जलाशय बनाने के लिए भारी निवेश तथा काफी समय लगेगा. ‘सिंधु जल संधि’ को स्थगित करना प्रतीकात्मक कार्रवाई ही रहेगी, जब तक कि उसे लागू करने के ठोस कदम नहीं उठाए जाते. गौरतलब है कि खासकर गर्मी के मौसम में पाकिस्तान को पानी के भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है.

वीज़ा रद्द करने, वाणिज्य दूतावास के कर्मचारियों की संख्या में कटौती करवाने, सीमाओं को बंद करने जैसे कदमों का पाकिस्तान पर बहुत असर नहीं पड़ेगा, लेकिन पानी के मामले में सहयोग को स्थगित करने का दीर्घकालिक असर पड़ेगा. यह पाकिस्तानी सत्तातंत्र को बचाव की भूमिका अपनाने पर मजबूर करेगा.

लेकिन एक अंतर्राष्ट्रीय संधि का उल्लंघन भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख को चोट पहुंचा सकता है और उसके पड़ोसियों को चिंतित कर सकता है. चीन और पाकिस्तान की गहरी दोस्ती के मद्देनज़र चीन भी भारत के खिलाफ यही चाल चल सकता है. ‘सिंधु जल संधि’ को लेकर कोई एकतरफा कार्रवाई इतनी उचित नज़र आनी चाहिए कि उस पर कोई जवाबी अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई न हो.

4. छोटे युद्ध का विकल्प

चीन के प्राचीन सैन्य रणनीतिज्ञ सुन त्ज़ू ने कहा था कि “युद्ध जीतने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि युद्ध शुरू ही मत करो”. भारत पूर्ण युद्ध की शुरुआत न करके भी निर्णायक जवाब दे सकता है. ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ तो एक कारगर विकल्प है ही, लेकिन पाकिस्तानी फौज 2019 के मुकाबले आज बेहतर रूप से तैयार होगी. जनरल मुनीर ने दो कौम वाले सिद्धांत और कश्मीर मसले को पिछले दिनों उछाला, जो एक समन्वित नरेटिव का संकेत देता है.

यूनाइटेड जिहादी काउंसिल (मुजफ्फराबाद) जैसे जिहादी गुटों और दूसरे फौजी अड्डों को निशाना बनाकर हमला किया जा सकता है. पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) की राजधानी मुजफ्फराबाद आईएसआई का रणनीतिक अड्डा है. यहां ‘ज्वाइंट इंटेलिजेंस नॉर्थ’ (जेआईएन) तैनात है, जो जम्मू-कश्मीर में खुफिया कार्रवाइयों और आतंकवादी गतिविधियों का तालमेल करता है. दूसरा निशाना मुरीदके (लाहौर के पास) में हाफिज़ मुहम्मद सईद के नेतृत्व वाले लश्कर-ए-तैयब्बा का मुख्यालय हो सकता है.

अफगान बॉर्डर से लेकर बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी तक से लड़ते हुए पाकिस्तानी फौज काफी परेशान हो चुकी है. ईंधन और संसाधनों की भारी कमी के कारण अभी 2023 तक उसे कई फौजी कार्रवाइयों को स्थगित करना पड़ा है.

लेकिन ऐसी कोई कार्रवाई शुरू करने से पहले भारत को चीन और बांग्लादेश से संभावित खतरों का आकलन कर लेना चाहिए. चीन का सारा ज़ोर जबकि अपनी अर्थव्यवस्था पर है, वह सैन्य दखल देने से बच सकता है, लेकिन भारत-बांग्लादेश सीमा पर खासकर अवैध प्रवासियों की बड़ी मौजूदगी वाले मुर्शीदाबाद और मालदा जैसे स्थानों में उभरने वाला स्थानीय असंतोष तनाव बढ़ा सकता है.

भारत को कठिन फैसला करना है. आगे के रास्ते का बहुत सावधानी से चुनाव किया जाना चाहिए, लेकिन यह ठोस होना चाहिए. केवल छोटे स्तर के जिहादियों का सफाया पाकिस्तान के लिए कोई बड़ी कीमत नहीं होगी.

आईएसआई और लश्कर को परास्त करना अब मुख्य लक्ष्य होना चाहिए. पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग करना, आईएसआई को एक आतंकवादी संगठन घोषित करवाना और अहम रणनीतिक ठिकानों पर बालाकोट हमले से भी बड़ा और सुनियोजित हमला वक्त की मांग है.

पूरी सफाई और पूरे संकल्प के साथ एक निर्णायक और सख्त संदेश दिया ही जाना चाहिए.

(अशोक कुमार एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं. वे उत्तराखंड के डीजीपी भी रहे हैं और वर्तमान में सोनीपत के राई में हरियाणा खेल विश्वविद्यालय के कुलपति हैं. उनका एक्स हैंडल @AshokKumar_IPS है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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