क्या नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल जैसे प्रवक्ताओं को उनके पद से हटाना भारतीय जनता पार्टी की एक सोची समझी चाल है? या यह उस आग को बुझाने का एकबारगी का प्रयास है जो अरब देशों में पैगंबर मुहम्मद के बारे में उनकी अपमानजनक टिप्पणी के बाद भड़क उठी है?
किसी के भी मन में पहले सवाल के जवाब के रूप में ‘हां’ कहने की लालसा हो सकती है, हालंकि बहुत अधिक संदेह के साथ. इन प्रवक्ताओं को हटाए जाने से पहले संघ परिवार की ओर से कई सारे सुलह-सफाई वाले संदेशों की एक श्रृंखला सामने आई थी. भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पिछले सोमवार को इसकी दिशा तय करते हुए कहा था कि काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह पर चल रहे विवाद अदालतों और भारत के संविधान द्वारा ही तय किए जायेंगे. इसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने ‘हर मस्जिद में एक शिवलिंग खोजने’ की कोशिशों के खिलाफ नसीहत दी. फिर रविवार को भाजपा का वह बयान आया, जिसमें किसी भी ‘धार्मिक व्यक्तित्व’ के अपमान की कड़ी निंदा की गई और यह कहा गया कि पार्टी ‘ऐसी किसी भी विचारधारा के खिलाफ है, जो किसी भी संप्रदाय या धर्म का अपमान अथवा अनादर करती है.’
मगर ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं छोड़ेगी भाजपा
ऊपर-ऊपर से, इन टिप्पणियों और बयानों को हिंदुत्व समर्थक लड़ाकों को चुप बैठने के लिए दिए जा रहे एक संदेश के रूप में माना जा सकता है. लेकिन शायद ऐसा करना किसी ज़ेब्रा से उसके शरीर की धारियों को बदल देने की उम्मीद करने जैसा है. खाड़ी देशों में पैदा हुए प्रतिकूल राजनयिक हालात का सामना करते हुए नूपुर शर्मा और जिंदल जैसे प्यादे निहायत ही बलि दिए जाने योग्य हो सकते हैं, लेकिन हिंदू-मुस्लिम बाइनरी (दोहरे विचार) ने शुरुआत से ही भाजपा की राजनीति को परिभाषित किया है.
पैगंबर मुहम्मद पर सीधा हमला करके नूपुर शर्मा और जिंदल बहुत आगे चले गए थे. तात्कालिक संकट से निपटने के लिए उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है. मगर, इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा के राजनीतिक और वैचारिक चरित्र या स्वभाव में कोई बदलाव आया है. आखिर, इसी पार्टी ने उनके खिलाफ कार्रवाई करने में एक सप्ताह का समय लिया और वह भी इसके एक राजनयिक संकट में बदल जाने से पहले नहीं.
उन्हीं सवालों पर वापस आते हुए यह कहा जा सकता है किसी के पास अभी तक इनका कोई निश्चित जवाब नहीं है. यह आने वाले हफ्तों और महीनों में स्पष्ट हो जाएगा. लेकिन अपनी भूलों में सुधार करना कुछ ऐसी चीज है जो 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा की चुनावी राजनीति के अनुकूल साबित हो सकता है.
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भूलों में सुधार की है सख्त जरूरत
2014 के बाद से लगभग दो दर्जन सहयोगियों को खोने के बाद, भाजपा के पास ज्यादा सहयोगी नहीं बचे हैं और अगर सत्ताधारी पार्टी आक्रामक हिंदुत्व की रणनीति पर ही चलती है तो बाकियों की वफादारी भी दबाव में आ जाएगी. भाजपा जिस ऊंचे घोड़े पर सवार है उससे नीचे उतरना और अपनी स्थिति का फिर से आकलन करना इसके लिए अच्छा साबित होगा – बशर्ते वह 2024 के लोकसभा चुनावों में एक और मोदी लहर की उम्मीद न कर रही हो जो 282 या 303 तो नहीं, पर अपने दम पर इसे 272 सीटें दिलाना सुनिश्चित करती दिखती हो. दस साल की सत्ता विरोधी भावना (एंटी-इंकम्बेंसी) – चाहे राहुल गांधी विपक्ष के चेहरे के रूप में हों या न हों -एक ऐसा कारक है जिसकी वह अनदेखी नहीं कर सकती. भारत के 2024-25 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की कोई संभावना नहीं है और तब तक किसानों की आय भी दोगुनी नहीं होने वाली. तो ऐसा नहीं है कि 2024 में चारों तरफ खुशियां ही खुशियां होगी.
तब भाजपा को जो चीज बेहद याद आ रही होगी वह है इसके सहयोगी. इसकी महत्वाकांक्षी विस्तारवादी परियोजना कई राज्यों में अब धराशायी सी हो रही है. इसकी इस राजनैतिक गिरावट का एक संकेतक पिछले ही हफ्ते ओडिशा से आया है. यहां के ब्रजराजनगर विधानसभा उपचुनावों में यह एक मरणासन्न सी पड़ी कांग्रेस से भी पीछे तीसरे स्थान पर रही है. यह तब था जब ओडिशा में उसका चेहरा माने जाने वाले केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस निर्वाचन क्षेत्र में दो दिनों तक प्रचार किया था. इसी साल मार्च में हुए ग्रामीण इलाकों के चुनावों में भाजपा ने पांच साल पहले की 297 सीटों की संख्या से नीचे आते हुए सिर्फ 42 सीटें जीती थीं. इसी सप्ताहांत में, नवीन पटनायक ने अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करते हुए उन 11 मंत्रियों को हटा दिया जिनके नाम विभिन्न विवादों में फंसे थे. इसमें कानून मंत्री प्रताप जेना, जिन पर भाजपा के दो नेताओं की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया गया है; कनिष्ठ गृह मंत्री दिव्य शंकर मिश्रा, जिन्हें कालाहांडी में एक स्कूल शिक्षक की हत्या को लेकर सवालों का सामना करना पड़ रहा था; और उच्च शिक्षा मंत्री अरुण साहू जिन्होंने कथित तौर पर एक अन्य हत्या के मामले में आरोपियों की रक्षा की थी, के नाम शामिल थे.
ऐसा लगता है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री अब राज्य में भाजपा के उफान को थामने के प्रति इतने आश्वस्त हैं कि उनके बारे में कहा जाता है कि वे विदेश यात्रा की योजना बना रहे हैं, जो पिछले 22 वर्षों में सीएम के रूप में देश से बाहर उनकी सिर्फ दूसरी यात्रा होगी. आखिरी बार वह 2012 में लंदन की यात्रा पर गए थे, जब उन्हीं के सबसे करीबी शख्स प्यारेमोहन महापात्र ने उनके तख्तापलट का असफल प्रयास किया था.
भाजपा ने 2019 में इस राज्य की 21 लोकसभा सीटों में 2014 में मिली एक सीट से आगे बढ़ते हुए आठ सीटों पर जीत हासिल की थी और यह और ऊपर की ओर दिख रही थी. ऐसा लगता है कि अब इस तटीय राज्य में वह अपना रास्ता भटक गयी है.
धीरे-धीरे खिसक रहा बीजेपी का धरातल
भाजपा को 2019 में लोकसभा में बहुमत के लिए आवश्यक आंकड़े से 31 सीटें अधिक मिली थीं और इस आंकड़े में ओडिशा ने 8 सीटों का योगदान दिया था. पश्चिम बंगाल से भाजपा को अठारह सीटें मिलीं, जहां वह हर गुजरते दिन अपनी राह गंवाती दिख रही है. पार्टी दक्षिणी राज्यों में आगे बढ़ने का प्रयास जरूर कर रही है, लेकिन वहां यह बहुत आगे बढ़ नहीं पा रही है. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में, जिसे भाजपा के पदाधिकारी कभी ‘लो-हैंगिंग फ्रूट्स’ (आराम से तोड़े जा सकने वाले फल) कहते थे, पार्टी कड़ी मेहनत तो कर रही है, लेकिन अभी तक वह एक ऐसी स्थिति में नहीं पहुंची है, जहां वह अगले दो वर्षों में किसी अच्छे खासे लाभ की उम्मीद कर सकती हो.
केरल के थ्रिक्काकारा विधानसभा उपचुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच सका. तमिलनाडु में इसकी सहयोगी, अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके), अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है, जबकि कई अन्नाद्रमुक नेताओं ने अभी से इस गठबंधन के बारे में सवाल उठाना शुरू कर दिया है. भाजपा ने 2019 में कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीती थीं, लेकिन वहां आज के दिन पार्टी में ज़बर्दस्त गुटबाजी है और बसवराज बोम्मई प्रशासन बहुत कम आत्मविश्वास पैदा कर पा रहा है.
विंध्य के उत्तर में, भाजपा, जो कभी अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ राज करती थी, अचानक डगमगाती सी दिखाई दे रही है. महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने एक साथ मिलकर 48 में से 41 सीटें जीती थीं. शिवसेना अब विपक्षी खेमें में है और इस बात पर सवालिया निशान है कि चुनाव में अकेले जाने पर भाजपा का प्रदर्शन कैसा होगा. बिहार में राजग ने 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी. आज, भाजपा अपने मुख्य सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) पर भी भरोसा नहीं कर सकती, जो अपने पूर्व सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ गलबगहियां डाल रही है.
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2024 के लिए भाजपा को एक आकस्मिक योजना की जरूरत
इसलिए, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में देखी गई मोदी लहर के बावजूद, भाजपा को 2024 में अपनी चुनावी संभावनाओं पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है. भले ही वह उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड और हरियाणा जैसे राज्यों में अपने जोरदार प्रदर्शन को दोहरा सके, लेकिन उसे अन्य राज्यों में सहयोगियों की जरूरत होगी. इन नौ राज्यों की 228 सीटों में से भाजपा ने अपने दम पर 202 सीटें जीती थी. उत्तर-पूर्वी राज्यों की 25 सीटों में से ज्यादातर सीटों को भी भाजपा के हिस्से में डाला जा सकता है.
2024 में बहुमत के आंकड़े के करीब आने के लिए उसे इन राज्यों में 2019 के अपने प्रदर्शन को दोहराना होगा. इन राज्यों में भाजपा में चल रही तेज गुटबाजी और जहां वह सत्ता में है, वहां इसके ढील-ढाले प्रदर्शन को देखते हुए बहुत से लोग इस बात पर अपना दांव नहीं लगाएंगे. उदाहरण के तौर पर, छत्तीसगढ़ में, भाजपा आलाकमान द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को किनारे लगाने की कोशिशों के बीच दिशाविहीन लग रही है. कर्नाटक में, पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरे बीएस येदियुरप्पा का भी यही हश्र हुआ है. राजस्थान में वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मामले में भी सच कुछ ऐसा ही है. भाजपा ने 2019 में हरियाणा में बम्पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसके बाद से ही वह वहां अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है.
संक्षेप में कहें तो, भाजपा को 2024 के लिए एक आकस्मिक योजना (कंटिंजेंसी प्लान) की आवश्यकता है, वरना कहीं ऐसा न हो कि वह बहुमत से पीछे ही रह जाए. इसके अधिकांश संभावित सहयोगी पहले से ही इसके विस्तारवादी मंसूबों से आशंकित हैं. और जो लोग इसके साथ आने को इच्छुक भी हो सकते हैं, उन पर यह यदि भाजपा नुपुर शर्मा जैसों को खुला छोड़ना जारी रखती है तो वे भी अपने मूल वोट बैंक को बचाने की कोशिश करेंगें और इसीलिए आज के दिन भाजपा के लिए अपनी भूलों में सुधार करना एक अत्यंत व्यावहारिक विकल्प है. हालांकि बहुत से लोग इस विचार के साथ खड़े नहीं होंगें.
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