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मंगलवार, 13 मई, 2025
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अब चीन, पाकिस्तान और भारत का भी भला इसी में है कि वो उस फैंटसी को छोड़ दें जिसे मोदी विस्तारवाद कहते हैं

भारत हो या चीन या पाकिस्तान, सब एक-दूसरे की ज़मीन पर दावे करते रहे हैं लेकिन हकीकत यही है कि वे एक-दूसरे को तबाह किए बिना अपने दावे पूरे नहीं कर सकते.

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शुक्रवार की सुबह अचानक लद्दाख पहुंचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सेना को संबोधित किया और चीनियों का सीधे-सीधे नाम न लेते हुए कहा कि विस्तारवाद का जमाना गया, यह विकास का युग है. वैसे, उन्होंने यह कयास लगाने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि उनका निशाना किधर था. बेशक उनके निशाने पर चीन ही था लेकिन इस वाक्य को उन ज्ञानोपदेशों में शामिल किया जा सकता है, जो पाकिस्तान को भी दिया जा सकता है और खुद अपनेआप को भी.

मुझे मालूम है कि इस तरह खोल कर बात करने के खतरे क्या हैं लेकिन इस विचार पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है.
शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के विस्तारवादी इरादों को सारी दुनिया समझ चुकी है. यह बड़ी शक्तियों के लिए नया सिरदर्द बन गया है और हम जैसे उसके ज़्यादातर जमीनी या समुद्री पड़ोसियों (उसके ग्राहकों/ताबेदारों को छोड़कर) के लिए यह तकलीफदेह बन चुका है.

भारत की तरह चीन भी सभ्यताओं को जन्म देने वाला राष्ट्र है जिसके साथ गौरवशाली अतीत की स्मृतियों का एक सामूहिक एहसास जुड़ा हुआ है. भारत मौर्य या गुप्त काल के स्वर्णयुग वाले ‘अखंड भारत’ की चाहत रख सकता है. चीन क्विंग वंश के युग वाली अपनी सीमाओं को फिर से हासिल करने की आकांक्षा रख सकता है. हम सुविधा के लिए इसे उसका ‘अखंड चीन’ का सपना कह सकते हैं.


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दोनों में अंतर यह है कि लोकतांत्रिक देश भारत में जहां सत्ताधारी बदलते रहते हैं, यह ‘अखंडता’ केवल एक राजनीतिक दल के संस्थापकों की विचारधारा का हिस्सा है. चीन में यह हमेशा के लिए सत्ता में बैठी एकमात्र पार्टी का सपना है. यह सब हकीकत से कितना कटा हुआ और खतरनाक है! खासकर इसलिए कि यह दुनिया के पहले डिप्टी सुपर पावर का मामला है जिसकी कमान एक निरंकुश सत्ता के हाथों में है.

लद्दाख तो उसके लिए एक छोटा-सा मसला है, बड़ा मसला तो 83,000 वर्ग किलोमीटर वाला अरुणाचल प्रदेश है. क्या वह यह सोच रहा है कि इनमें से किसी को वह जबरन अपने कब्जे में ले सकता है? 21वीं सदी में इस तरह की बातें सोचने का मतलब यही हो सकता है कि आपको अपने दिमाग का इलाज कराने की जरूरत है. जबरन कब्जा कभी हो नहीं सकेगा.

लेकिन राष्ट्रवाद के आकर्षण से बचना बहुत मुश्किल होता है, खासकर तब जब इसे उस विचारधारा से उकसावा मिल रहा हो जिसे राजनीतिशास्त्री ‘पुनःसंयोजनवाद’ कहते हैं, जिसका मूल आधार यह होता है कि इतिहास के किसी विशेष काल में आपके राष्ट्र के जो भी हिस्से थे उन्हें वापस हासिल किया जाए. यह उन देशों के लिए भी सच है जहां तानाशाही हो या लोकतंत्र हो या दोनों का मेल हो.

प्रधानमंत्री मोदी ने विस्तारवाद से बचने की सलाह क्या दी, चीनी इस तरह चिहुंके कि चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत सच साबित होती दिखी. लेकिन यह सलाह पाकिस्तान के लिए भी उतनी ही माकूल हो सकती है. वह मुल्क सात दशकों के अपने पूरे वजूद में अपने इसी यकीन पर जीता रहा है कि वह जम्मू-कश्मीर को पूरा हासिल कर लेगा. इसकी कोशिश में वह अपने मूल मुल्क के एक बड़े हिस्से को गंवा चुका है. फिर भी क्या वह बाज आया है?

बल्कि वह तो इस सपने को साकार करने में और ज्यादा जी-जान लगाकर भिड़ गया है. इस चक्कर में उसने अपना वह सब गंवा दिया जिसे पूंजी, वित्त, और बौद्धिकता कहा जाता है; वह फौजी हुकूमत वाला, एक ज़िद पर अड़ा, दरिद्र देश बन गया जिसे 30 साल में 13 बार आईएमएफ ने उबारा और आज-न-कल एक बार फिर उसे इसकी जरूरत पड़ने वाली है.

मेरे पुराने दोस्त, इंकलाबी शायर हबीब जावेद ने, जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, इसे बड़ी खूबसूरती से— और सख्ती से—1990 में जब भारत-पाकिस्तान एक बार फिर जंग के लिए आमादा दिख रहे थे तब मई दिवस पर लिखी एक नज़्म में इस तरह जाहिर किया था— ‘नशीली आंखों, सुनहरी ज़ुल्फों के देश को खो कर/ मैं हैरां हूं वो जिक्र वादी-ए-कश्मीर करते हैं’.

इस पर यही कहा जा सकता है कि नामुमकिन एजेंडे की बुनियाद पर खड़े, विचारधारा में जकड़े राष्ट्र-राज्य के लिए ऐसे वामपंथी शायर अति-आदर्शवाद की दुनिया में ही जीते हैं. विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया में लगभग एक ही समय दो देश ऐसे उभरे, जो विचारधारा में जकड़े थे. ये देश थे इज़रायल और पाकिस्तान. एक यहूदियों के सपनों का देश था, तो दूसरा इस उपमहादेश के मुसलमानों के लिए ‘कुदरती घर’ या ‘इस्लाम का किला’ था. इज़रायल तो दुरुस्त हाल में है लेकिन इसकी तुलना पाकिस्तान से कीजिए!


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दोनों ने लगभग एक ही समय लोकतांत्रिक देशों के रूप में शुरुआत की, दोनों बहुत पहले ही अमेरिका और पश्चिम के साथी और चहेते बन गए, दोनों ही उनसे लड़ रहे थे जिनका आधार सोवियत खेमे में था. आज, देखिए कि दोनों राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मोर्चों पर कहां खड़े हैं.

इज़रायल केवल अपना भौगोलिक लक्ष्य, ‘वेस्ट बैंक’ हासिल नहीं कर पाया है लेकिन यह वैसा मामला नहीं है जैसा कश्मीर पाकिस्तान के लिए है. ‘वेस्ट बैंक’ हासिल करने के सवाल पर लोकतांत्रिक इज़रायल बंटा हुआ है और यह मसला उसके राष्ट्रवाद का केंद्रीय आधार नहीं है. पाकिस्तान की स्थिति अलग है.

आज वह हर तरह से चीन के डैनों के नीचे दुबक चुका है और जल्दी ही आर्थिक रूप से उसका उपनिवेश बनने के रास्ते पर है. आज भी वह भारत के खिलाफ आतंकवाद का सहारा ले रहा है. अपने मूल आकार से वह काफी सिकुड़ चुका है, और उसके पास आज उस कश्मीर से भी छोटा कश्मीर बचा रह गया है जो उसके पास 1948 में था.

1985 में प्रति व्यक्ति औसत आय का उसका आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से 18 फीसदी ज्यादा था. आज उसका यह आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से 30 फीसदी कम है और यह अंतर बढ़ता जा रहा है. बांग्लादेश ने उसे हरेक सामाजिक संकेतकों के मामले में पीछे छोड़ दिया है और जल्दी ही वह प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में भी उसे पीछे छोड़ देने वाला है. यह फर्क क्यों आया? भुखमरी से पीड़ित लाखों की आबादी वाले देश का यह कायापलट कैसे हुआ? इसकी वजह यह है कि पश्चिम पाकिस्तान से आज़ाद होते ही उसका पूर्वी भाग कश्मीर को लेकर पागलपन से भी मुक्त हो गया.

अब हम अपने भारत देश पर आते हैं. हम दार्शनिक, वैचारिक और संवैधानिक रूप से न केवल अपनी उन सीमाओं की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो हकीकत में मौजूद हैं बल्कि उन हिस्सों को भी हासिल करने को प्रतिबद्ध हैं जो हमारे नक्शों में हमारे बताए गए हैं.

आज़ादी के बाद 70 साल में क्या हम उस हिस्से का एक वर्ग इंच भी हासिल कर पाए हैं. यह तब है जब हम चार बड़े युद्ध और कई छोटी लड़ाइयां लड़ चुके हैं. 1965 और 1971 में हमने जिन इलाकों को जीता उन्हें वापस करना पड़ा क्योंकि भविष्य में भी यही करना पड़ता. यहां तक कि चीन ने 1962 में हमारे जिस क्षेत्र पर कब्जा किया था उसमें से पश्चिम में (लद्दाख) के कुछ हिस्सों को छोड़कर बाकी सारे भाग को खाली करके वह पीछे हट गया था. भारतीय संसद चीनी या पाकिस्तानी कब्जे वाले उन हिस्सों का हरेक इंच वापस हासिल करने के दो प्रस्ताव पारित कर चुकी है, जो नक्शों में हमारे दिखाए गए हैं. हम इसके लिए जोरदार आह्वान और दावे कर चुके हैं.

हम तीनों पड़ोसी देश एक-दूसरे की जमीन पर इस तरह दावे करते रहे हैं मानो वे हमारे हों. चीन जो दावे करता रहा है उसके मुताबिक क्या वह सैन्य बल से अरुणाचल प्रदेश या ‘सिर्फ तवांग जिले’ पर भी, कब्जा कर सकता है? क्या पाकिस्तान कभी श्रीनगर के राजभवन पर अपना झंडा फहराता देख सकेगा? क्या भारत अक्साई चीन, मुजफ्फराबाद, गिलगिट-बाल्तिस्तान वापस ले पाएगा?

इनमें से कुछ भी असंभव नहीं है लेकिन परमाणु शक्ति से लैस ये बड़े और ताकतवर देश इतने बड़े आकार में अपनी ज़मीन तभी गंवाएंगे जब वे पूरी तरह से तबाह होंगे. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि परमाणु शक्ति से लैस ये बड़े और ताकतवर देश इस तरह तबाह हो सकते हैं? वह भी दूसरे को तबाह किए बिना?


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यही वजह है कि ये देश जो सपने देखते हैं वे खयाली पुलाव ही हैं. इस बारे में मैं इससे ज्यादा कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सकता, खासकर तब जबकि मैं पूर्व नौसेना अध्यक्ष और बहु-सम्मानित एडमिरल अरुण प्रकाश (वीरचक्र, 1971) के ज्ञान का सहारा ले सकता हूं. हाल में उन्होंने ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ में यह लिखकर सावधान किया कि ‘एक राष्ट्र के रूप में हमारे अंदर यह समझने का विवेक होना चाहिए कि आज 21वीं सदी में न तो किसी के भूभाग को युद्ध से जीता जा सकता है और न दोबारा हासिल किया जा सकता है.’ उन्होंने लिखा है कि संसद अब सरकार से यह मांग करे कि सरकार ‘पूरी गंभीरता से चारों ओर अपनी राष्ट्रीय सीमाओं पर शांति, स्थिरता और सुरक्षा बहाल करे ताकि भारत राष्ट्र निर्माण और सामाजिक-आर्थिक विकास के महत्वपूर्ण कामों को निर्बाध रूप से आगे बढ़ा सके.’

‘पुनःसंयोजनवाद’ 19वीं सदी की इटली में उभरा था. इसका मकसद पड़ोसी यूरोपीय देशों के सभी इतालवीभाषी क्षेत्रों को वापस इटली में शामिल काराना था. इसके बाद लगभग पूरी 20वीं सदी का विश्व इतिहास यही बताता है कि जिस किसी ने इस विचार को अपनाया उसे इससे नुकसान के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ. वक़्त आ गया है कि हिमालय के साये में बसे तीनों पड़ोसी देश इस पर गहराई से सोच-विचार करें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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