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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतयोगी नहीं, मायावती, अखिलेश, राहुल की विफलता, 2017 के बाद से यूपी की बड़ी राजनीतिक कहानी है

योगी नहीं, मायावती, अखिलेश, राहुल की विफलता, 2017 के बाद से यूपी की बड़ी राजनीतिक कहानी है

जबकि एक साल बाद ही यूपी विधानसभा का चुनाव होने वाला है, सभी विपक्षी दल—सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद भी— जहां के तहां खड़े नज़र आ रहे हैं. वे एक कदम भी आगे बढ़े हों ऐसा नहीं दिखता.

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उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले (2017) चुनाव के ठीक चार साल बाद प्रदेश की बड़ी सियासी कहानी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नहीं हैं बल्कि विपक्ष है, जो अपना घर ठीक न कर पाने और एक न्यूनतम स्तर तक भी अपनी ताकत न बना पाने में अक्षम साबित हुआ है.

यूपी चुनाव के लिए पिछला मतदान ठीक एक साल पहले 11 फरवरी 2017 को ही शुरू हुआ था. और 11 मार्च को आए नतीजों ने साफ कर दिया था कि विपक्षी दलों का सफाया हो गया है, विधानसभा की 403 में से 312 सीटें जीत कर भाजपा भाजपा ने जबरदस्त जीत दर्ज की है.

इसके चार साल बाद, जबकि अब एक साल बाद यूपी विधानसभा का अगला चुनाव होने वाला है, सभी विपक्षी दल— अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी (सपा), मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की कॉंग्रेस, और अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) भी— जहां के तहां खड़े नज़र आ रहे हैं. वे एक कदम भी आगे बढ़े हों ऐसा नहीं दिखता. उन्हें झटके से उबरने के लिए चार साल मिले थे मगर वे दिशाहीन, लस्त-पस्त दिखते हैं, उनमें कोई कल्पनाशीलता नहीं दिखती है.

शासन के अपने ढीलेढाले रेकॉर्ड के साथ योगी आदित्यनाथ ने अपने विरोधियों को इतने मौके दिए कि वे उन्हें और उनकी सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकें और उनका इस्तेमाल अपनी ताकत बनाने के लिए करें. लेकिन विपक्ष ने इन सभी मौकों को गंवाने का ही चुनाव किया और राजनीति के बियावान में गहरे धंसता गया. जबकि हकीकत यह है कि मायावती और अखिलेश यादव सरीखे नेता गहरी पकड़ रखने वाले क्षेत्रीय दलों के नेता हैं, जिनके कार्यकर्ताओं की संख्या अच्छी-ख़ासी है और ये नेता कई बार राज्य की बागडोर संभाल चुके हैं.


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योगी का दौर

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ का चयन अप्रत्याशित ही था. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि 2017 में प्रदेश में भाजपा की जीत पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया गया जनादेश था, और मुख्यमंत्री कौन होगा यह तय करने का जिम्मा आरएसएस और भाजपा आलाकमान को सौंप दिया गया था. इतने भारी जनादेश के साथ योगी को एक कोरी स्लेट मिली थी जिस पर वे अपनी सरकार का शानदार रेकॉर्ड लिख सकते थे, जिसका दावा मोदी की भाजपा करती रही है.

लेकिन यूपी के मुख्यमंत्री शासन-प्रशासन के मामले में जितने नौसिखुआ तब थे, उतने ही लगता है आज भी हैं. उन्होंने राज्य में असहिष्णुता, मनमानी, और कमजोर कानून-व्यवस्था का माहौल फैला दिया. वास्तव में, मुख्यमंत्री के रूप में योगी के शुरू के कुछ साल खास तौर पर से सवालिया थे, जिनमें उनकी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी जिसका वे ढिंढोरा पीट सकें.

भाजपा के खाते के मुताबिक योगी की सबसे बड़ी उपलब्धि शायद धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून लाना थी, जिस कानून से दक्षिणपंथी तत्वों को कथित ‘लव जिहाद’ पर लगाम लगाने में मदद मिलती है. गोवध विरोधी कानून भी यूपी के सीएम की ‘उपलब्धि’ का एक उदाहरण है. ‘दप्रिंट’ के राजनीतिक संपादक डी.के. सिंह ने ठीक ही कहा है कि ये ‘उपलब्धियां’ योगी को दूसरे भाजपाई मुख्यमंत्रियों के लिए एक ‘रोल मॉडल’ बनाती हैं.

अपने भगवा वस्त्र और उग्र विभाजनकारी भाषा के साथ योगी संभवतः भाजपा के ‘सपनों के सीएम’ हैं. लेकिन इसमें एक ही कमी है, विकास का तत्व गायब है.

बड़े अर्थ में देखें तो योगी के पास दिखाने को अपनी शायद ही कोई उपलब्धि है. उनके नाम न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर की कोई बड़ी परियोजना है, न ही दिखाने लायक कोई ऐसी चीज अब तक सामने आई है जिसका उन्हें श्रेय दिया जा सके; जबकि उनकी पूर्ववर्ती मायावती और अखिलेश यादव ने एक्सप्रेसवे और विशाल पार्क बनवाए. अयोध्या में गगनचुंबी राम मंदिर तो भाजपा की दें मानी जाएगी लेकिन इसके लिए नंबर मोदी और अमित शाह के खाते में जुड़ेंगे, न कि योगी के.

कानून लागू करवाने, खासकर महिलाओं की सुरक्षा के मामले में यूपी की भाजपा सरकार का रेकॉर्ड पर भी नज़र है. एक राजनेता के रूप में भी योगी का रेकॉर्ड रंग-बदरंग रहा है. वे अपनी पार्टी के लिए दूसरे राज्यों में भले ही वे स्टार प्रचारक के रूप में उभरे हों, लेकिन वे लोगों से शायद ही ऐसा संवाद कायम कर पाते हैं जो यूपी के बाहर चुनावी फायदा दिला सके. कुल मिलाकर योगी बहुत कड़े प्रतिद्वंद्वी नहीं रहे हैं, फिर भी यूपी में विपक्ष हर मोड़ पर पराजित, बिना तैयारी के, और उखड़ी हुई नज़र आती है.


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विपक्ष से बड़ी निराशा

2017 के बाद से यूपी में बड़ी राजनीतिक कहानी योगी की सफलता या विफलता नहीं है, न ही उनके शासन को लेकर बहस है. वह कहानी तो नाम के लिए भी संघर्ष करने या अपनी चुनावी किस्मत को सुधारने में मायावती, अखिलेश यादव, और गांधी कुनबे की पूर्ण अयोग्यता है.

एक वर्तमान मुख्यमंत्री, एक पूर्व मुख्यमंत्री, कॉंग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष, और एक प्रमुख जाट नेता, सब मोदी की लोकप्रियता, शाह के चुनावी प्रबंधन के आगे बुरी तरह विफल दिखे हैं. उसके बाद से ये सब और बियावान में चले गए हैं. वे गठजोड़ बनाते और तोड़ते रहे हैं (कांग्रेस-सपा, सपा-बसपा); हाथरस सामूहिक बलात्कार कांड और हत्या जैसे राजनीतिक रूप से आसान मुद्दों पर तो बोलते रहे है लेकिन बाबरी मस्जिद पर अदालती फैसले जैसे कठिन मुद्दों पर चुप रहे हैं. यूपी में विपक्षी नेताओं ने मनमर्जी अपनी मौजूदगी जता कर और गायब होकर अपनी दिशाहीनता और संकल्प की कमजोरी ही जाहिर की है और ऐसा लगता है कि उन्होंने दौड़ में आगे होने की कोशिश भी छोड़ दी है.

अखिलेश यादव खामोश और परिदृश्य से गायब रहे हैं, मायावती की पकड़ ढीली रही है और वे परेशानहाल ही नज़र आती रही हैं. राहुल और उनकी बहन प्रियंका हमेशा की तरह प्रभावहीन नजर आई हैं, हालांकि प्रियंका को पूर्वी यूपी का कॉंग्रेस प्रभारी बनाए जाने और राजनीति में उनके औपचारिक प्रवेश को ‘गेम चेंजर’ माना जा रहा था. अजित सिंह भी इस बीच निष्क्रिय दिखे, यहाँ तक कि किसान आंदोलन में भी उनकी भूमिका इक्का-दुक्का बयान जारी करने टीके ही सीमित रही.

अहम उपचुनावों में योगी को हुए नुकसान से विपक्ष के लिए उम्मीद की किरण फूटी थी मगर यह कोई ठोस और स्थायी दखल न बनी और आती-जाती बात बनकर रह गई.

2017 के बाद से योगी आदित्यनाथ भले ही सबसे नुमाया और सुर्खियां बटोरने वाले राजनीतिक आख्यान बने हों मगर असली कहानी तो विपक्ष के और उसकी अक्षमताओं की है. 2022 का यूपी चुनाव जितना प्रदेश के मुख्यमंत्री पर फैसला सुनाएगा उतना ही मायावती-अखिलेश-राहुल-प्रियंका पर भी फैसला देगा. यूपी के राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए एक साल का समय है, कि वे कड़ी मेहनत करके खुद को फिर से साबित कर सकें.

यहां व्यक्त विचार निजी हैं

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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