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Friday, 19 April, 2024
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मोदी-शाह के लिए बंगाल से ज्यादा अहम है इस साल असम का विधानसभा चुनाव

मोदी के राजनीतिक मॉडल के लिए असम कसौटी के समान है. भाजपा ने अपने प्रभाव क्षेत्र से बाहर के इस राज्य में 2016 में जीत का परचम लहराया था लेकिन क्या वह उस सफलता को दोहरा सकती है?

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लगता है 2021 में चर्चा के केंद्र में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव ही रहेगा लेकिन हाल के वर्षों की सबसे बड़ी राजनीतिक कहानी असम चुनाव के ज़रिए सामने आएगी— जहां भारतीय जनता पार्टी की बड़ी जीत से ज़ाहिर होगा कि कैसे उसने उन इलाकों पर भी आधिपत्य करना सीख लिया है जो उसके स्वाभाविक इलाके नहीं रहे हैं— न राजनीतिक रूप से और न ही सांस्कृतिक रूप से.

पश्चिम बंगाल का परिणाम एक दूरगामी प्रभाव वाली राजनीतिक घटना हो सकती है— चाहे जो भी परिणाम हो लेकिन असम में कहीं अधिक दिलचस्प और महत्वपूर्ण चुनावी प्रयोग हो रहा है.

2016 के विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा ने असम में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था और अपने दम पर 126 सीटों में से 60 पर जीत हासिल की जबकि अपने सहयोगी असम गण परिषद (एजीपी) और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) की साझेदारी में कुल 86 सीटों पर विजय हासिल की. भाजपा ने एक और नए क्षेत्र में जीत का परचम लहराया था.

पार्टी के लिए 2016 में असम की सत्ता पर कब्जा जमाना जहां एक उपलब्धि थी, वहीं उसके बाद से पार्टी ने राज्य में राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर अपनी पकड़ को लगातार मज़बूत किया है.

राजनीतिक रूप से भाजपा ने सुनिश्चित किया है कि बाकी प्रमुख राजनीतिक किरदारों, विशेष रूप से कांग्रेस और यहां तक कि सहयोगी एजीपी को भी हाशिए पर डाल दिया जाए. पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में राज्य में 14 में से नौ सीटें जीतीं और वहां मुख्य राजनीतिक ताकत रही कांग्रेस को तीन सीटों पर समेट दिया. सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से उसने लंबे समय से चली आ रहे ‘जातीय-गैरजातीय’ के विभाजन को— जिसे भाजपा भुना नहीं सकती— को हिंदू-मुस्लिम और ‘भारतीय-गैरभारतीय’ वाली अस्पष्ट बहस में तब्दील कर दिया.

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अगर भाजपा असम में एक बार फिर जीत दर्ज करती है, तो इसका मतलब ये होगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को पारित कराने की हड़बड़ी से उन्हें उस राज्य में भी नुकसान नहीं होगा, जहां कि ये उन पर उलटा पड़ना चाहिए था. इसका मतलब ये भी होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी ने न केवल नए इलाकों को फतह करने की कला में, बल्कि उन पर मुकम्मल तरीके से शासन करने, अपनी छाप छोड़ने और पूर्ण शक्ति हासिल करने में भी महारत हासिल कर ली है. इससे भी बड़ी बात ये है कि असम में भाजपा अपनी हिंदू-मुस्लिम राजनीति के कारण नहीं, बल्कि उसके बावजूद अच्छा प्रदर्शन कर रही है.

लेकिन अगर भाजपा असम में हार जाती है, तो उससे पार्टी की राजनीति की और लगातार जोखिम उठाते रहने की उसकी रणनीति की सीमाएं उजागर होगी. इसलिए, मोदी-शाह के राजनीतिक मॉडल की सफलता के निर्धारण के लिए असम एक पैमाना साबित होने वाला है.


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भाजपा ने असम पर कैसे नियंत्रण किया

असम कभी भी भाजपा का स्वाभाविक या पारंपरिक प्रभाव क्षेत्र नहीं रहा है. पार्टी और उसके वैचारिक अभिभावक- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपनी संदेश फैलाने और स्थापित राजनीतिक दलों के नेताओं को आकर्षित करने की ज़मीनी स्तर से शुरू एक श्रमसाध्य रणनीति पूरे राज्य में अपना प्रभाव फैलाने में पार्टी के काम आई.

इसी तरह ब्रांड मोदी को भुनाने का प्रयास भी पार्टी के लिए चमत्कारिक परिणामों वाला साबित हुआ— खासकर इसलिए भी एक शानदार उपलब्धि कि ‘बाहरी’ गुजरात के मुख्यमंत्री का राज्य से कोई संबंध नहीं था.

दशकों तक ‘हाशिए’ पर पड़े रहने, अन्य राज्यों में उपलब्ध सुविधाओं से वंचित रहने, ध्यान नहीं दिए जाने और उग्रवाद झेल चुकने वाला असम राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनना चाहता था. और मोदी एंड कंपनी ने असम के लोगों की इस आकांक्षा को समझते हुए राज्य को भारत के किसी सुदूरवर्ती हिस्से की तरह नहीं बल्कि अपनी राष्ट्रीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण पहलू के तौर पर अन्य राज्यों के समान महत्व दिया. 2014 की लोकसभा की जीत के बाद से ही मोदी ने ये सुनिश्चित किया कि उनकी प्रमुख योजनाएं— उज्ज्वला से लेकर ग्रामीण आवास तक— उत्तर प्रदेश या राजस्थान जैसे अन्य राज्यों की तरह ही असम के लोगों तक भी पहुंचे.

एक तरह से, राज्य में व्यापक राजनीतिक जमापूंजी लगाकर और इसे सिर्फ क्षेत्रीय क्षत्रपों के भरोसे नहीं छोड़कर, मोदी असम को राजनीतिक ‘मुख्यधारा’ में ले आए. उनकी लोकप्रियता राज्य में निरंतर बढ़ती गई, इतनी अधिक कि 2019 की अपनी चुनावी यात्रा के दौरान मुझे वहां चर्चा के केंद्र में मोदी ही दिखे थे.

इसके साथ ही, भाजपा-आरएसएस ने सावधानीपूर्वक एक कथानक बुना, जिसने ‘स्थानीय असमिया बनाम बाहरी’ के सवाल से लोगों का ध्यान हटा दिया. यह बहस मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के हित में कभी नहीं थी क्योंकि पार्टी आलाकमान का स्थानीय असमियों के हितों से कोई सरोकार नहीं था. लेकिन, हिंदू-मुस्लिम या भारतीय-बाहरी के मुद्दे हमेशा पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हुए हैं और यहां भी उसने जातीयता के सवाल को पार्श्व में डालकर विपक्ष को बैकफुट पर ला दिया.

अपने शुरुआती वर्षों में राज्य की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति से परिचित होने के कारण, मैंने कभी नहीं सोचा था कि भाजपा की आक्रामक हिंदू-मुस्लिम राजनीति असम में सफल होगी— खासकर धर्मों से परे गैरअसमियों और बंगालीभाषी लोगों के प्रति लोगों की भारी नापसंदगी को देखते हुए.

इसके अलावा भाजपा ने महत्वपूर्ण नेताओं को अपने पाले में कर लिया— पार्टी के मुख्य चेहरे के रूप में अखिल असम छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और ‘जातीय नायक ‘ सर्बानंद सोनोवाल और घाघ राजनीतिक खिलाड़ी हिमंत बिस्वा सरमा.


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भाजपा की 2021 की जीत क्यों अहम मानी जाएगी

असम में 2016 की अपनी जीत और 2019 में शानदार प्रदर्शन के साथ, भाजपा ने दिखा दिया कि वह अपने लिए मुश्किल माने जाने वाले इलाकों में भी जीत हासिल करने का नुस्खा तैयार कर सकती है— फिर त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भी मोदी-शाह की अगुवाई में पार्टी की नई क्षमता कारगर साबित हुई.

असम में इस साल के विधानसभा चुनावों में भारी जीत से एक और बात साबित होगी— मोदी-शाह की उन राज्यों में सत्ता पर काबिज रहने की क्षमता जो पारंपरिक रूप से अन्य दलों के गढ़ रहे हैं और वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की उनकी काबिलियत. यही वो पहलू है जिससे भाजपा के विरोधियों को सर्वाधिक चिंतित होना चाहिए, जिनमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हैं जिन्हें कि भाजपा से कड़ी चुनौती मिल रही है.

सीएए पारित होने के बाद के दौर का असम चुनाव भाजपा के राजनीतिक कौशल पर एक बड़े जनमत संग्रह के समान है. दशकों तक असम में पूरी बहस ‘असमिया बनाम गैरअसमिया’ पर केंद्रित रही है और एक ऐसे कानून को पारित करा कर, जो बाहर से आए हिंदुओं को नागरिकता देता है, भले ही वे असमिया लोगों के लिए ‘बिदेक्शी’ हों, भाजपा ने स्थिति को पूरी तरह बदल दिया है. अद्यतन नागरिक राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को खारिज करते हुए वह बिल्कुल सांप्रदायिक सीएए लेकर आई— फिर भी पार्टी राज्य में मज़बूत बनी हुई है.

जीत से यह भी साबित होगा कि सीएए-विरोधी प्रदर्शनों के बावजूद, आबादी का एक बड़ा हिस्सा भाजपा और उसकी नीतियों का समर्थन करता है कि राजनीतिक मुद्दे के रूप में जातीयता का महत्व कम होने के साथ ही जातीयता और राष्ट्रवाद साथ-साथ चल सकते हैं.

यदि भाजपा असम में हारती है तो इसका मतलब ये होगा कि मोदी और शाह को रीसेट बटन दबाने और यह समझने की ज़रूरत है कि आमतौर पर सफल रही उनकी ‘सबके लिए एक फार्मूला’ की रणनीति शायद हमेशा कारगर साबित नहीं हो.

असम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पूर्वोत्तर में सत्ता का प्रवेश द्वार है. असम जीतने के बाद, भाजपा पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों में अपने बल पर या पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन के तहत सहयोगी दलों की मदद से सरकारें बनाने में कामयाब रही. पार्टी का ये आत्मविश्वास कि वह हिंदी पट्टी के बाहर सत्ता हासिल कर सकती है और उसे कायम भी रख सकती है, दो प्रमुख राज्यों— कर्नाटक और असम से आता है.

2021 का चुनाव असम के अन्य प्रमुख राजनीतिक किरदारों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है. पार्टी के दिग्गज नेता और तीन बार के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के निधन के बाद नेतृत्व विहीन कांग्रेस मुकाबले में आने की भी उम्मीद कर सके, इसके लिए उसे बहुत अधिक मशक्कत करनी होगी. उधर, कभी नई राजनीतिक आंधी के रूप में सत्तासीन रही एजीपी भाजपा का एक कमज़ोर पिछलग्गू भर रह गई है. जबकि हाल ही में बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद के चुनावों में किंगमेकर के रूप में उभरी भाजपा ने साथ देने से इनकार कर राज्य में अपने सहयोगी बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट को परेशानी में डाल दिया है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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