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शनिवार, 26 अप्रैल, 2025
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भारत का RCEP से अलग होना मोदी की सबसे बड़ी भूल हो सकती है, ‘आत्मनिर्भर’ बने रहना हार मानने जैसा होगा

लक्ष्य यह होना चाहिए कि निकट भविष्य में जो क्षेत्र ग्लोबल आर्थिक वृद्धि में अधिक योगदान देने वाला है उस क्षेत्र से बाहर हो जाने से बचा जाए, इसलिए ‘आरसीईपी’ से अलग रहने का मोदी सरकार का फैसला आगे चलकर भारी भूल साबित हो सकता है.

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आइए, हम यह मान कर चलें कि भारत अपने मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को इतना मजबूत बनाने को वचनबद्ध है कि वह इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 25 प्रतिशत का योगदान करे. मनमोहन सिंह की सरकार ने 2012 में निश्चित किया था कि यह लक्ष्य एक दशक यानी 2022 तक हासिल किया जाएगा. नरेंद्र मोदी की सरकार ने जब अपना ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम शुरू किया था तब उसने भी यह लक्ष्य हासिल करने का निश्चय दोहराया था. लेकिन इस लक्ष्य की दिशा में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है बल्कि वास्तव में मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान 2012 के बाद से घटता ही गया है. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि नये ‘आत्मनिर्भरता’ कार्यक्रम के तहत यह लक्ष्य हासिल करने की सीमा वर्ष 2030 तक के लिए बढ़ा दी जाएगी यानी समय वही एक दशक का होगा. इन आंकड़ों का क्या मतलब हो सकता है?

आशावादी नज़रिए से हम यह भी सोच लें कि 2021-22 तक जीडीपी कोविड से पहले यानी 2019-20 वाले 204 ट्रिलियन के स्तर को फिर छू लेगा और इसके बाद आठ साल तक सालाना आर्थिक वृद्धि की दर 6 प्रतिशत बनी रहेगी. यानी इस दर से 2029-30 तक, रुपये के स्थिर मूल्य पर जीडीपी 325 ट्रिलियन के बराबर हो जाएगा. मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को अगर 204 ट्रिलियन के 14 प्रतिशत से 2029-30 तक 325 ट्रिलियन के 25 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचना है, तो इसे 28 ट्रिलियन से तीन गुना बढ़कर 81 ट्रिलियन के बराबर हो जाना होगा और वृद्धि कर रहे जीडीपी में अपना हिस्सा 44 प्रतिशत के बराबर करना होगा. तब 2022-30 के बीच मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को 14 प्रतिशत की सालाना दर से वृद्धि करनी होगी.

भारत के मैनुफैक्चरिंग सेक्टर के लिए ये आंकड़े पहुंच से दूर ही रहे हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि आयातों के विकल्प को बढ़ावा देने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है. मान लें कि मैनुफैक्चरिंग में अनुमानित वृद्धि का कुछ हिस्सा, मसलन व्यापारिक माल के आयातों (सालाना 45 अरब डॉलर या 3.4 ट्रिलियन मूल्य के) का 10 प्रतिशत, आयात विकल्पों के कारण आता है और इस तरह के आयातों में भावी वृद्धि को रोक भी लिया जाता है, तब भी कुल मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में इस तरह के आयात विकल्प का योगदान छोटा ही रहेगा. खासकर इसलिए भी कि इस तरह के घरेलू उत्पादन में आयातित तत्व का खासा योगदान बना रहेगा, इसलिए घरेलू मूल्य वृद्धि केवल आंशिक ही होगी.


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अगर यह मान लिया जाए कि मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में तीव्र वृद्धि के साथ जीडीपी में कुल वृद्धि 6 प्रतिशत रहती है, तो सेवा क्षेत्र में तेज सुस्ती आएगी. चूंकि मैनुफैक्चरिंग के लिए व्यापार, परिवहन, वित्तीय सेवाओं आदि सहायक सेवाओं की जरूरत पड़ेगी, तब ऐसे में यह कल्पना यथार्थपरक नहीं होगी कि इसमें सेवा सेक्टर में वृद्धि के कई गुना के बराबर वृद्धि होगी. इसकी जगह हम यह भी मान कर चलें कि 2029-30 तक कुल वृद्धि 6 नहीं बल्कि 8 प्रतिशत होगी और तेजी से बढ़ती जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का हिस्सा 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा, तो मैनुफैक्चरिंग में वृद्धि के आंकड़े अवास्तविक बने रहेंगे.

इससे मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को उस तरह बढ़ावा देकर तीव्र वृद्धि हासिल करने की सीमाएं उजागर होती हैं, जिसका ज़ोर घरेलू बाज़ार पर हो, खासकर उन क्षेत्रों (मसलन सोलर पैनल और टेलिकॉम किट्स आदि में निवेश) पर हो जिसमें पूंजी की ज्यादा जरूरत पड़ती है और रोजगार में ज्यादा वृद्धि नहीं होती. जाहिर है, शासक पक्ष कबूल करे या न करे, ‘आत्मनिर्भरता’ अधिक नेहरूवादी विचार है, जबकि वास्तविक फर्क तभी आएगा जब अधिक श्रम आधारित सेक्टरों और निर्यात बाज़ारों पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा और निर्यात को लेकर नेहरू के दौर के निराशावाद को खारिज किया जाएगा.
क्या भारत के आकार की अर्थव्यवस्था निर्यातों के लिए पर्याप्त बाज़ार हासिल कर सकती है? व्यापारिक खेमों में बंटे संसार में इसका केवल एक ही उपाय है, यह कि कुछ खेमों से जुड़ जाइए. यही वजह है कि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग (आरसीईपी) से अलग रहने का मोदी सरकार का फैसला आगे चलकर भारी भूल साबित हो सकता है.

कहा जा रहा है कि आरसीईपी भारत का और ज्यादा वि-उद्योगीकरण कर सकता था जबकि कुछ मुक्त व्यापार समझौतों ने पहले ही यह कर रखा है. लेकिन इस मान्यता का कई लोग खंडन भी कर रहे हैं. और समस्या केवल चीन ही नहीं है, एशिया-प्रशांत के लगभग हर देश के साथ भारत का व्यापार संतुलन घाटे में है. समस्या ज्यादा व्यापक किस्म की है, यह भारत की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता की है जिसे मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि दरवाजे खोलने से लागत के मुकाबले लाभ ज्यादा मिले, उद्योगीकरण घटे नहीं बल्कि बढ़े. और लक्ष्य यह होना चाहिए कि निकट भविष्य में जो क्षेत्र ग्लोबल आर्थिक वृद्धि में अधिक योगदान देने वाला है उस क्षेत्र से बाहर हो जाने से बचा जाए.

आरसीईपी के लिए दो दशक का समय तय किया गया है इसलिए भारत के पास तैयारी करने का समय होगा. इसके बावजूद भारत अगर ‘आत्मनिर्भर’ बना रहना चाहता है तो यह अपनी हार मानने के समान होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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2 टिप्पणी

  1. आपकी घोषित गलत विचारधारा है और पूर्वाग्रह से ग्रसित है आपका यह लेख लिखने का मतलब यह है कि अब भारत को कभी भी आत्मनिर्भर होना देखा नहीं चाहते इसलिए आप इसको कंजूस और असफल उद्यान घोषित करने में लगे हुए हैं जो कि अभी शुरुआती दौर में है आप उसका पहले से रिजल्ट गलत होने का आज पछतावा कर रहे हैं जो कि आपकी चाइना के बिना भारत आगे नहीं बढ़ने के बारे में गलत विचार है

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