सीबीआई बनाम सीबीआई का हाल का हंगामा – जिसका अंत आलोक वर्मा को इस शीर्ष जांच एजेंसी के निदेशक पर से हटाए जाने से हुआ – एक रोमांचक राजनीतिक कथानक की तरह सामने आया जो कि शायद लुडलम और ले कारे के लोकप्रिय उपन्यासों को पीछे छोड़ दे.
आश्चर्य नहीं होगा यदि वर्मा से प्रकाशक एक बेबाक और सब कुछ खोलकर रख देने वाली आत्मकथा (या जीवनी) लिखने का आग्रह करें. ज़ाहिर है, उसे ‘एन एक्सिडेंटल सीबीआई डायरेक्टर’ नहीं कहा जाएगा, क्योंकि ना तो उनकी पहली बार नियुक्ति, या उन्हें छुट्टी पर भेजे जाने और दोबारा सीबीआई प्रमुख के पद पर वापसी और इसके तुरंत बाद उन्हें निकाले जाने में से कुछ भी संयोगवश हुआ. हर फैसला एक विकसित हो रहे कथानक का हिस्सा था, पर इस स्क्रिप्ट के लेखकों को भी नहीं मालूम कि आगे क्या होगा.
क्योंकि प्रधानमंत्री से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, सीबीआई निदेशक (जो भी पद पर हो) से लेकर रॉ तक, और केंद्रीय सतर्कता आयोग से लेकर मीडिया तक, सभी बाकियों से अधिक नैतिक दिखने की कोशिश कर रहे हैं.
सच्चाई तो ये है कि सत्ता के इस नंगे खेल में कोई भी निष्पक्ष नहीं है.
वास्तव में, जैसा कि बाइबिल कहती है, ‘झूठे नबियों से सावधान रहो, जो भेड़ की खाल ओढ़कर आपके पास आते हैं, पर अंदर से खूंखार भेड़िये होते हैं.’ त्रासदी ये है कि हमने देखा कि इस दफे किसी ने भेड़ की खाल ओढ़ने की भी ज़हमत नहीं उठाई.
खुफिया ब्यूरो और राष्ट्रीय जांच एजेंसी की विश्वनीयता तो लंबे समय से सवालों के घेरे में है. सीबीआई में मारामारी मचने के बाद, अब इस शीर्ष जांच एजेंसी की गुप्तचरी को लेकर अधिकतर लोगों के मन में बना भ्रम भी टूट गया है.
जब भी कोई हत्या होती है या कोई बड़ा वित्तीय घोटाला होता है, कोई बड़ी डकैती होती है या बलात्कार की घटना सामने आती है, लोग सीबीआई से जांच कराने की मांग करने लगते हैं. लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि इस संस्था पर हमारा विश्वास कितना खोखला है.
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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक स्वतंत्र और स्वायत्त सीबीआई की मांग करने वालों में सबसे आगे हुआ करती थी.
2011 में, अधिकांश राजनीतिक टीकाकार और मीडिया अन्ना हज़ारे के कथित भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन को लेकर मंत्रमुग्ध थे. और, हर तरफ ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के नारे के साथ ‘पिंजरे के तोते’ को आज़ाद करने की मांग उठ रही थी.
अन्ना आंदोलन से पैदा उन्माद में स्वयंभू बुद्धिजीवियों समेत बहुत से लोगों को लगने लगा था कि ‘भ्रष्टाचारमुक्त भारत’ और ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ परस्पर पर्यायवाची हैं!
पिछले चार वर्षों में, सत्तारूढ़ एनडीए में किसी ने भी एक स्वतंत्र सीबीआई के विषय को नहीं छेड़ा है, ना ही किसी ने ‘जन लोकपाल’ की चर्चा की है, जिसका उद्देश्य था देश से भ्रष्टाचार की बीमारी को मिटाना.
अन्ना और उनके ‘क्रांतिकारी’ अनुयायी चुप्पी मार गए हैं और तोता पहले ही मर चुका है.
सीबीआई में आंतरिक संघर्ष इतना अज़ीब है कि इस संस्थान को पुनर्निर्मित करना लगभग असंभव प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि न्यायपालिका भी, जिससे संतुलन की पुनर्स्थापना की अपेक्षा थी, वास्तविक ताक़तों के समक्ष झुक गई है.
नरेंद्र मोदी की अगुआई वाले गुप्त गुट को ना सिर्फ स्वतंत्र सीबीआई नहीं चाहिए, बल्कि यह किसी भी संस्थान को स्वायत्त नहीं देखना चाहता.
मोदी शीर्ष जांच एजेंसी को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के अंग के रूप में देखना पसंद करेंगे, सीधे उनको रिपोर्ट करने वाला एक विभाग. उनकी शैली और तरीके को देखकर लगता है कि वह न्यायपालिका, चुनाव आयोग, रिज़र्व बैंक आदि को भी पीएमओ में ही रखना पसंद करेंगे.
वह शायद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय और पूर्व योजना आयोग (नीति आयोग) को अटल योजना का नाम देना चाहें!
उन्हें लगने लगा है कि वह चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ही तरह आजीवन प्रधानमंत्री के रूप में चुने गए हैं. भाजपा के महाधिवेशन में दिए उनके भाषण को सुनें – किसी भी संयत व्यक्ति को या तो शर्मिंदगी होगी या गुस्सा आएगा.
वह नोटबंदी की ‘भारी सफलता’ पर, नौकरियों के बारे में एक भी शब्द नहीं बोलते, ना ही अमेरिका और रूस के समर्थन से भारत के सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने की बात करते हैं. ना ही खुलकर वह लिंचिंग या बढ़ते संप्रदायवाद की बात करते हैं, ना ही कॉरपोरेट वर्ग और दक्षिणपंथियों से किए गए आर्थिक सुधारों के वायदे पर बोलते हैं. यहां तक कि वह शिक्षा और संस्कृति की भी चर्चा नहीं करते.
इसके बावजूद, यह कहा जाता है कि उन्हें मध्यवर्ग, पढ़े-लिखे शहरी लोगों, आप्रवासी भारतीय समुदाय, हिंदुत्व समूहों और राजनयिक वर्ग का भारी समर्थन प्राप्त है. लगता है उन्हें पूर्ण भरोसा है कि एक बार वह सोनिया और राहुल को जेल भेज दें और भारत को नेहरू के भूत से निज़ात दिला दें, तो सार्वभौमिक मुक्ति मिल जाएगी, सार्वभौमिक बुनियादी आय से भी पहले!
आलोक वर्मा प्रकरण यूं ही गायब नहीं होने वाला है. ना ही उर्जित पटेल के इस्तीफ़े और आरबीआई के पतन के मुद्दे. यहां तक कि राफेल विवाद भी बना रहेगा, भले ही अदालत कुछ भी फैसला करे.
आर्थिक रूप से कमज़ोर ऊंची जातियों को कथित रूप से 10 प्रतिशत आरक्षण एक और दिवास्वप्न बन गया है. पर्याप्त विदेशी निवेश नहीं हैं और ‘स्वदेशी’ पूंजी घट रही है.
बेरोज़गार नागरिकों की बड़ी आबादी सड़कों पर घूम रही है, और असामाजिक तत्वों से सामाजिक अराजकता का ख़तरा बन गया है.
मोदी के 2014 के वायदों की चमक जा चुकी है, पर उसकी आवाज़ अब भी गूंज रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव में पता चलेगा कि आवाज़ ने चमक को किस हद तक ढंका है.
(कुमार केतकर पूर्व संपादक और राज्यसभा में कांग्रेस के सांसद हैं.)
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