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Friday, 22 November, 2024
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उत्तरी आयरलैंड का नफरत से अमन तक का सफर, बोरिस के विदाई भाषण में भारत के लिए सबक

उत्तरी आयरलैंड में अमन-चैन की विभाजक रेखा ने दशकों तक कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट को एक-दूसरे से अलग किए रखा, अब वे साथ लाए गए, साबित हुआ कि नफरत कभी भी स्थायी नहीं होती

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दमकल (आग बुझाने) वाले क्षत-विक्षत मानव अवशेष को सड़क से उठाकर प्लास्टिक बैग में भर रहे थे. टेलिविजन पर वे तस्वीरें खुद में एक पूरी पीढ़ी के बुरे अनुभवों की गवाह थीं. पचास साल पहले, बेलफास्ट में करीब 90 मिनट में 22 बम फटे. नौ लोग मारे गए और 130 जख्मी हो गए. आतंकवादी हमले के जरिए प्रोविजनल आयरिश रिप्बलिकन आर्मी (आईआरए) ने ब्रिटेन को उत्तरी आयरलैंड से दूर भगाने के लिए अभियान का ऐलान कर दिया. कवि सीमस हीनी ने लिखा, देश ‘अपने लोगों के खून से सराबोर’ हो गया.

इस हफ्ते ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के नाते अपने आखिरी भाषण में बोरिस जॉनसन उस कत्लेआम की याद दिलाई, जो खूनी शुक्रवार के नाम से चर्चित है. हालांकि जॉनसन की इससे भी खास विरासत शायद वह मैनिफेस्टो हो सकता है, जिसे आगे बढ़ाने के लिए वे छोड़ गए हैं.

उत्तरी आयरलैंड में अलगाववाद के दौर में 3,500 हत्याओं के दोषियों में कुछ की ही अब तक पहचान हो पाई है. इनमें करीब 1,800 आम लोग, एक हजार से अधिक सैनिक और पुलिसवाले और तकरीबन 400 आईआरए कैडर थे. इन गर्मियों में शुरू में ब्रिटेन मेंं एक विधेयक का प्रस्ताव पेश किया गया, ताकि दोषियों को अपने अपराधों के बारे में सच कहने के बदले माफी दे दी जाए.

भारत में इस असाधारण विधेयक पर कम ध्यान दिया गया है, जो अलगाववाद से बाहर निकले राज्यों के मामले में अप्रत्याशित-सा है, न इसकी नींव रखने वाली शांति प्रक्रिया की कोई खास चर्चा हुई. हालांकि स्थानीय-धार्मिक हिंसा की दर्दनाक यादों से जूझ रहे देश के लिए दोनों ही महत्वपूर्ण सबक हैं.


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मुसीबतों का आगाज

उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट को अलग रखने के लिए आठ मीटर ऊंची, ईंटों से बनी और उसके ऊपर स्टील के कांटेदार वायर की बाड़बंदी बर्लिन की दीवार से बड़ी है. बेलफास्ट में फाल्स रोड पर कैथोलिक एन्कलेव में शानदार स्मारक लंबे युद्ध में शहीदों की याद में बनाया गया है. बेलफास्ट में ही शंकील रोड पर प्रोटेस्टेंट स्मारक भी वही संदेश देते हैं, मगर चेहरे और नारे अलग हैं.

पर्यटक एस्सॉल्ट रायफल लिए काले बेलक्लावा (सिर और गर्दन को कवर करने वाला मास्क) में खड़े लोगों की मूर्तियों के बगल से गुजर जाते हैं.

उत्तरी आयरलैंड में तकरीबन 100 अमन दीवारों में पांचवे हिस्से से कुछ कम अब तक ढहा दी गई हैं. अगले साल तक ये पूरी तरह हटा दी जाएंगी. 2012 के एक सर्वे में पता चला कि यहां रहने वाले समुदायों में आधे लोगों को डर है कि दीवारें हट गईं तो हिंसा भड़क सकती हैं. अतीत अभी भी इसका ही डर था.

उत्तरी आयरलैंड में जंग की जड़ें दूसरे सांप्रदायिक इलाकों की तरह ही सदियों पुरानी हैं. क्रूर ब्रिटेन औपनिवेशिक राज के दौरान धार्मिक पहचान और जमीन को लेकर संघर्ष का लंबा दौर रहा है.

उग्र स्वतंत्रता युद्ध के अंत में 1921 में आयरिश राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता हासिल की लेकिन आयरलैंड के धुर उत्तर के चार प्रांतों, उलस्टर के प्रोटेस्टेंट अपने इलाके को ब्रिटेन के साथ जोड़े रखना चाहते थे. 1920-1922 के बीच दंगों और हत्याकांडों में 550 लोग मारे गए थे जिनमें प्रमुख तौर पर कैथोलिक थे.

उत्तरी आयरलैंड के कैथोलिक लोगों ने 1960 के दशक के मध्य से रोजगार और आवास नीतियों में भेदभाव, राजनैतिक अधिकारों से वंचित करने और बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखने के विशेष अधिकारों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन शुरू किया. प्रोटेस्टेंट उग्रवादी गुट उलस्टर वालेंटियर फोर्स ने जवाब में प्रदर्शनकारियों और कैथोलिक समुदाय पर हमले किए.

अगस्त 1969 में ये तनाव व्यापक हिंसा में भड़क उठे. एक तरफ कैथोलिक थे तो दूसरी तरफ पुलिस के संरक्षण में प्रोटेस्टेंट. आयरलैंड सरकार के गोपनीय दस्तावेजों के खुलने से पता चाला कि सेना को भी सीमा के आर-पार मानवीय मदद के लिए तैयार रहने का आदेश दिया गया था. आखिरकार ब्रिटेनी फौज उतरी और सांप्रदायिक झड़पें खत्म हुईं और पहली अमन की दीवार खड़ी हुई.

शुरू में कैथोलिक लोगों ने फौज के दखल का स्वागत किया लेकिन प्रोटेस्टेंट गुटों से झड़पें जारी रहीं तो रिश्ते खट्टे हो गए थे. विशेषज्ञ एड मोलानी ने लिखा, अदन और मलय में अलगाववादी विरोधी मुहीम से जुड़े रहे ब्रिटिश कमांडरों ने कैथोलिक लोगों से ऐसे बर्ताव किया, जैसे ‘कोई अरब बाजार’ हो.

नतीजे उम्मीद के मुताबिक थे. जुलाई 1971 में फौज ने दो निहत्थे लोगों को मार गिराया. आम लोगों की और हत्याएं हुईं. फिर, अगस्त 1971 से ब्रिटिश फौज ने हजारों जवानों के साथ कैथोलिक मोहल्लों में संदिग्धों को पकड़ने का अभियान शुरू किया. लोगों ने सेना को घुसने से रोकने के लिए फुटपाथ को तोड़कर पत्थरों का जमावड़ा किया, दूध की वैन को अगवा करके बोतलों को पेट्रोल बम बना डाला.

इतिहासकार नियाल ओ डोचारटैघ ने लिखा, लेफ्टिनेंट जनरल हैरी टुजो ने दिसंबर 1971 में एक बैठक में चेताया कि उन इलाकों में घुसने का मतलब है कि ‘कुछ निहत्थे लोगों पर गोली चलाना पड़ सकता है.’ हालांकि टुजो की राय इसके खिलाफ थी, मगर घटनाएं ग्रीक त्रासदी जैसा मंजर ले आईं. इसका एहसास तो उन्हें पहले ही था लेकिन उससे बचा नहीं जा सका.


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खूनी इतवार और उसके बाद

कैथोलिक पादरी एडवार्ड डैली ने शांति के झंडे की तरह खून से सना रुमाल लहराया: वह छवि भी, खूनी शुक्रवार की तरह, उत्तरी आयरलैंड की याद्दाश्त में गढ़ गई है. 31 जनवरी 1972 को फर्स्ट पैराशूट रेजिमेंट के सैनिकों ने नागरिक अधिकारों के लिए निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी तो 13 लोग मारे गए. उसी महीने की शुरूआत में, एक सरकारी जांच में पाया था कि उनके कमांडिंग अफसर, मेजर जनरल रॉबर्ट फोर्ड ने टुजो को लिखा था कि भीड़ में ‘रिंग लीडरों’ पर गोली चलाई जानी चाहिए.

डैली जिस 17 साल के लड़के को बचाने की कोशश कर रहे थे, वो मर गया. बाद में पादरी ने याद किया, ‘डेरी में काफी युवा हैं, जो ज्यादा शांति के पैरोकार हो सकते थे, वो उग्रवादी बन गए हैं.’ इन हत्यारों को सजा देने की कोशिशें ब्रिटेन में बेमानी हो गईं लेकिन उत्तरी आयरलैंड में अलग कार्रवाई अभी चल रही है.

प्रोविजनल आईआरए के लिए खूनी इतवार की हत्याएं बदलाव का पल साबित हुईं. छह महीने पहले तक यह गुट मोटे तौर पर बेअसर था. 1970 की गर्मियों में जब थॉमस कार्लिन, जो कोयेल और टॉमी मैककूल के साथ उसके दो बच्चे क्रेगान में बम बनाते हुए धमाके में मारे गए तो लंदनडेरी प्रोविजनल आईआरए लगभग पूरी तरह साफ हो गई थी.

खूनी इतवार के बाद संगठन के समर्थन और फंडिंग में ईजाफा हुआ. लिहाजा, अधिक घातक अभियान शुरू हुए. बेलफास्ट में बम धमाके हुए, फौरन बाद क्लाउडी में नौ और लोग मारे गए.

इन आतंकी हमलों से लोगों में खौफ घर कर गया और प्रोविजनल आईआरए को झटके की तरह देखा गया लेकिन उसकी पकड़ धीरे-धीरे बढ़ी. 1979 में भारत के पूर्व वायसरॉय लुई माउंटबेटन की हत्या हो गई. आईआरए 1984 में ब्रिघटन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की हत्या की कोशिश में लगभग सफल हो गया था और उसके बाद 1991 में उनके उत्तराधिकारी जॉन मेजर पर देसी बम से हमला किया था.

ब्रिटिश मिलिट्री के ठिकानों पर घातक हमले जारी रहे. नैरो वाटर्स में योजनाबद्ध झड़प में पैराकमांडो के 18 ब्रिटिश सैनिक मारे गए. यह अलगववादी हमले में देश की मिलिट्री को एक वारदात में सबसे जयादा क्षति थी. इसके अलावा, खूनी शुक्रवार के दस साल बाद मध्य लंदन में 1982 में बम धमाके में 11 सैनिक मारे गए.

उधर, ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियों और सेना ने तगड़ा अभियान चलाया. दुनिया भर में दूसरे अलगाव विरोधी मुहिम की तरह ही ब्रिटेनी बलों ने गोपनीय तकनीक अपनाई. ऐसे सबूत उजागर हुए हैं कि आईआरए के अंदर खुफिया गुप्तचरों को हत्याओं में शामिल होने की इजाजत थी और ब्रिटिश सेना ने आईआरए को बदनाम करने के लिए आतंकवादी हमलों को उजागर किया था.

हालांकि युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकल रहा था. 1990 के दशक की शुरुआत में 30 हजार सैनिक और पुलिस अधिकारी छोटे-से उत्तरी आयरलैंड में तैनात थे, ठीक उतने ही जितने दो दशक पहले थे.

अमन-चैन की लंबी राह

हालांकि यह कहानी बयान करने के लिए तस्वीरें मौजूद नहीं हैं लेकिन गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे से पता चलता है कि हत्याओं के दोनों देशों के बीच बातचीत जारी थी. खूनी शुक्रवार के चार हफ्ते पहले आईआरए के शीर्ष नेता गुपचुप ढंग से ब्रिटेनी सरकार से बातचीत के लिए गए थे. हालांकि, बातचीत से कुछ हल नहीं निकला लेकिन नए संपर्कों से 1975 में संघर्ष-विराम हुआ. अपने कट्टर सार्वजनिक रवैए के बावजूद थैचर ने फिर 1989 में उच्चस्तरीय संपर्कों के लिए मंजूरी दी.

आईआरए और ब्रिटेन के तत्कालीन खुफिया प्रमुख माइकल ओटली ने 1991 में गुपचुप वार्ता की थी जिसके बाद 1994 में संघर्ष विराम हुआ.

डोचारटैघ ने लिखा है बीच-बीच में हिंसा होती रही लेकिन इन गोपनीय वार्ताओं से दोनों पक्षों को यह समझने में मदद मिली कि ‘दूसरा पक्ष बाधाओं के साथ आगे बढ़ रहा है और धीरे-धीरे कदम बढ़ाने और रियायत देने को तैयार हो रहा है ताकि दूसरा पक्ष भी कदम आगे बढ़ाए.’

बड़ी घटनाएं भी इस प्रक्रिया को आगे ले गईं. अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों से जूझ रहे लिबिया के नेता माउमर गद्दाफी ने 1992 की गर्मियों में आईआरए को हथियारों की सपलाई रोक दी. माइकल कॉक्स की दलील है कि शीतयुद्ध के खात्मे से अमेरिका को अपना असर आईआरए और ब्रिटेन दोनों पर डालने का मौका मिला कि दोनों उन संभावनाओं को तलाशें, जिन्हें मंजूर करने को वे तैयार नहीं हैं.

शायद सबसे बढ़कर, आयरलैंड के यूरोपीय संघ में प्रवेश से राष्ट्रवाद की वह ताकत घट गई, जिससे आईआरए को समर्थन मिलता था. यूरोप ने नरम सीमा और साझा संप्रभुता के आसपास समाधान को स्वीकार करना संभव बनाया. आखिरकार 1998 में अमेरिका ने दोनों पक्षों के गुड फ्राइडे पर दस्तखत करने में मदद की. रायशुमारी से तय हुए समझौते से कैथोलिक और प्रोस्टेंट दोनों गुटों का हथियार सौंपन और शांति की राह खुली.

पिछले साल प्रोटेस्टेंट बिरादरी में यह डर फैला कि ब्रेक्सिट की शर्तों से ब्रिटेन से नाता टूट जाएगा तो बेलफास्ट में हिंसक सांप्रदायिक झड़पें हुईं. अपने समुदाय में पूर्व उग्रवादी गुटों की ताकत बनी हुई है, जो अक्सर सामाजिक व्यवस्था बनाने के नाम पर हिंसा करते हैं, जैसे दूसरे शहरों में आपराधिक गिरोह करते हैं.

अंतिम समाधान होने में तो शायद कई पीढ़ियां लगें लेकिन शांति प्रक्रिया ने दिखाया है कि नफरत कभी ठोस या स्थायी नहीं होती.

लेखक दिप्रिंट के नेशल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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