पिछले कुछ हफ्तों में उनकी सरकार को प्रेस द्वारा मिली खराब कवरेज के बावजूद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कम आंकना हमेशा एक गलती है. वे अभी भी भारत में सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं और सबसे चतुर लोगों में से एक हैं. वे आमतौर पर अपने विरोधियों से कम से कम तीन कदम आगे रहते हैं (ठीक है, शायद पिछले कुछ महीनों में नहीं) और उनके हर फैसले से राजनेता और टिप्पणीकार हैरान रह जाते हैं क्योंकि कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि उनका अगला कदम क्या होगा.
एक बात पर गौर करना थोड़ा आसान है, खासकर पिछले आम चुनाव के बाद, वो यह कि प्रधानमंत्री के समर्थक उनके प्रदर्शन पर कैसी प्रतिक्रिया दे रहे हैं और सरकार की अन्य शाखाओं — उदाहरण के लिए न्यायपालिका के साथ उनके रिश्ते हम सभी के लिए खुले तौर पर देखने लायक हैं.
इससे यह स्पष्ट होता है कि नरेंद्र मोदी के सभी समर्थकों में से मध्यम वर्ग सबसे ज़्यादा निराश है. यह सच है कि मध्यम वर्ग के काफी लोगों ने भाजपा को उसके हिंदुत्व के एजेंडे के कारण वोट दिया, लेकिन यह कहना गलत है कि हर मोदी समर्थक गुप्त (या यहां तक कि खुले तौर पर) सांप्रदायिक है. शिक्षित मध्यम वर्ग के कई लोगों ने भाजपा का समर्थन किया क्योंकि उन्हें यकीन था कि यह विकास को बढ़ावा देगा और उन लोगों को पुरस्कृत करेगा जिन्होंने भारत को वैश्विक महाशक्ति बनाने की कोशिश की है, जिसके बारे में मोदी अक्सर बात करते हैं.
यह भी पढ़ें: मोदी सरकार के प्लान-ए और बी काम नहीं कर रहे, चिंता के यह तीन मुख्य क्षेत्र हैं
मतदाताओं के लिए घटते रिटर्न
नरेंद्र मोदी से मध्यम वर्ग का मोहभंग पिछले आम चुनाव अभियान के दौरान शुरू हुआ. कभी-कभी मोदी ने कुछ ऐसा कहा जो उन्हें पसंद आया, लेकिन सभी बड़े भाषण, जो कैंपेन की दिशा निर्धारित करते थे और जिन्हें सरकार के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा सबसे अधिक कवर किया गया था, वे हमलावर भाषण थे.
प्रधानमंत्री के कैंपेन का मुख्य विषय नकारात्मक था. भाजपा ने बार-बार कहा कि कांग्रेस अब महत्वहीन पार्टी बन गई है, लेकिन लगता है कि यह संदेश प्रधानमंत्री तक नहीं पहुंचा. उनके कई भाषण कांग्रेस पर सीधे हमले थे, जिसमें उनके घोषणापत्र के वादों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया.
इन हमलों में सांप्रदायिकता का भी समावेश था. कांग्रेस न केवल हिंदू महिलाओं के गले से मंगलसूत्र छीनने जा रही थी और गरीब किसानों की भैंसें जब्त करने जा रही थी, बल्कि ये सब मुसलमानों को देने जा रही थी.
अतीत में ऐसे समय भी आए थे जब इस संदेश का असर हो सकता था, लेकिन यह चुनाव उनमें से एक नहीं था. शिक्षित मध्यम वर्ग, जो अच्छे दिनों की उम्मीद कर रहा था, भैंस छीनने की चर्चा और सांप्रदायिकता के खुलेआम फैलाए गए प्रोपेगेंडा से निराश हो गया.
आप शायद यह तर्क दे सकते हैं कि चुनाव जीतने के लिए राजनेताओं को भावनात्मक बातें कहने की ज़रूरत होती है, लेकिन जब वे सत्ता में आते हैं, तो वे ऐसी नीतियों को लागू करते हैं जो उनके मूल वोटर को खुश करती हैं.
ठीक है, हो सकता है, लेकिन उस मामले में, मोदी भाजपा-समर्थक मध्यम वर्ग को अपना मूल वोटर नहीं मानते.
बजट, जो इस वर्ग को आश्वस्त करने और प्रोत्साहित करने का एक अवसर होना चाहिए था, ने उन्हें लगभग कुछ भी नहीं दिया. इसके बजाय, कर प्रस्तावों ने मध्यम वर्ग की चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया और जब दंडात्मक कर प्रस्ताव को वापस लेने की बात आई, तो जनता के विरोध के बाद, यह इतना आधा-अधूरा और इतना खराब था कि इसने मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए कुछ भी नहीं किया.
तब से, सरकार ने ऐसा व्यवहार करना जारी रखा है जैसे कि मध्यम वर्ग इसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता; केवल उसके अमीर दोस्त ही मायने रखते हैं. पूरे सोशल मीडिया पर, इस खुलासे को लेकर व्यापक गुस्सा है कि करदाताओं का एक छोटा सा हिस्सा (हमारी आबादी का लगभग 2 प्रतिशत) पूरे कॉर्पोरेट क्षेत्र की तुलना में अधिक आयकर का भुगतान करता है.
मध्यम वर्ग की मदद करके भाजपा के लिए कांग्रेस के इस आरोप का मुकाबला करना काफी आसान होता कि सरकार कुलीन वर्गों की जेब में है, लेकिन किसी कारण से, इसने जानबूझकर इस धारणा को बढ़ावा देने का विकल्प चुना है कि यह एक ऐसी सरकार है जो ईमानदार करदाताओं के लिए ‘कर आतंकवाद’ (एक ऐसा शब्द जिसका इस्तेमाल कुछ भाजपा समर्थक भी करते हैं) को बना के रखती है जबकि अपने अमीर साथियों को हजारों करोड़ रुपये कमाने देती है.
जब आप मध्यम वर्ग को नकारात्मकता और सांप्रदायिक घृणा के अलावा कुछ नहीं देते हैं, तो उसके बाद जो मोहभंग होता है, वह आपके बाकी कामकाज को और भी आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करता है. लोग पूछते हैं, रेलगाड़ियां पटरी से क्यों उतरती रहती हैं? नई सड़कें और पुल क्यों टूट रहे हैं? महंगी नई मूर्तियां क्यों गिर रही हैं? हमारे पड़ोस में हमारे इतने कम दोस्त क्यों हैं?
वे यह भी देखते हैं कि आप राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कैसे करते हैं. यह कोई नई घटना नहीं है: सरकार ने कई वर्षों से विरोधियों को धमकाने और गिरफ्तार करने के लिए धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) जैसे कानूनों का इस्तेमाल किया है, लेकिन अब, लोग पहले से कहीं अधिक ध्यान दे रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट इसका अपवाद नहीं है. पिछले कुछ दिनों में अदालत में उन लोगों को ज़मानत देने से इनकार करने के बारे में टिप्पणियां, जिनके खिलाफ प्राथमिक सबूत पूर्व अभियुक्तों — जिन्हें अब उनकी गवाही के बदले में माफ कर दिया गया है — के बयान हैं, विपक्ष के उत्पीड़न के भाजपा के मूल पर चोट करती है. जिन न्यायाधीशों ने बिना किसी आलोचना के सरकारी लाइन को स्वीकार कर लिया है, उन्हें अब अधिक जांच का सामना करना पड़ रहा है.
एक बार जब सरकार लोगों को बिना किसी मुकदमे की परवाह किए लंबे समय तक जेल में रखने की शक्ति खो देती है, तो यह विपक्ष को मनमाने ढंग से गिरफ्तार किए जाने और जेल जाने की धमकियों के डर से मुक्त कर देती है.
शुरुआती दिनों में जब सब कुछ ठीक चल रहा था, मध्यम वर्ग इस आधार पर राजनेताओं को गिरफ्तार होने देने से संतुष्ट था क्योंकि उसका मानना था कि सभी राजनेता वैसे भी खराब हैं.
लेकिन अब, यह स्पष्ट सवाल पूछ रहा है. क्या भाजपा में कोई खराब नहीं है? यह कैसा शासन है, जब आपने जिन लोगों को कभी बेईमान बताया था, उनके पाप धुल गए हैं और भाजपा में शामिल होते ही सभी मामले वापस ले लिए गए हैं?
मोदी क्या करने जा रहे हैं?
असंतोष बढ़ने के साथ ही, महत्वपूर्ण सवाल बना हुआ है: प्रधानमंत्री क्या सोच रहे हैं? वे एक चतुर और अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए उनके पास दीर्घकालिक रणनीति होनी चाहिए, लेकिन कोई भी यह नहीं समझ पा रहा है कि वो क्या है.
फिलहाल, एक मात्र रणनीति यही दिखाई दे रही है कि हमला करो, हमला करो और हमला करो. भाजपा आईटी सेल अब प्रधानमंत्री के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं कर पा रहा, लेकिन इसके पोस्ट का लहजा एक समान रूप से आरोप लगाने वाला और नकारात्मक है. पार्टी के कीबोर्ड योद्धा अभी भी अर्ध-शिक्षित और गाली-गलौज करने वाले बने हुए हैं. जब विरोध प्रदर्शन होते हैं (उदाहरण के लिए कोलकाता में चौंकाने वाले आरजी-कर बलात्कार के खिलाफ), तो रणनीति पुलिस को उकसाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करना है.
क्या यह सब वाकई ज़रूरी है? क्या यह मदद करता भी है? क्यों न इस देश के ईमानदार वेतनभोगी लोगों की बात सुनी जाए, जिनमें से कई ने मोदी को इसलिए वोट दिया क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी उन पर और उनके मूल्यों पर विश्वास करते हैं? उनकी चिंताओं को गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता? उन्हें असहनीय कर बोझ से कुछ राहत क्यों नहीं दी जाती? अगर आप कुलीन वर्ग के प्रति इतने उदार हो सकते हैं, तो कम से कम मध्यम वर्ग को कुछ टुकड़ों का हकदार होना चाहिए.
जैसा कि मैंने कहा, कोई नहीं जानता कि नरेंद्र मोदी क्या सोच रहे हैं. संभवत:, यह सब उनके दिमाग में आया होगा. उन्हें भी यह अहसास हो गया होगा कि हालात बदल रहे हैं.
सवाल यह है कि वे इसके लिए क्या करने की योजना बना रहे हैं?
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
यह भी पढे़ं: 10 साल बाद, मोदी ने भारतीय राजनीतिक आम सहमति को स्वीकार लिया है : मध्यम वर्ग को नज़रअंदाज़ करना