पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में जहरीली शराब पीने (पढ़िये: पिलाने) से पांच जानें चली गई थीं और 17 अन्य मौत का ग्रास बनने से बाल-बाल बचे थे. फिर मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में जहरीली शराब का कहर बरपा तो 24 लोगों की जानें लेकर ही माना. वहां अभी भी 18 अन्य गम्भीर हालत में अस्पतालों में भर्ती हैं, जिनकी प्राण रक्षा नहीं हो पाई तो मृतकों की संख्या और बढ़ जायेगी. और अब राजस्थान के भरतपुर जिले के रूपवास में इस शराब ने सात लोगों की जानें ले ली हैं, जबकि 6 अन्य अस्पतालों में जिन्दगी की जंग लड़ रहे हैं.
इन कांडों से पहले वैध या अवैध शराब के कारोबारी न सिर्फ इन दो बल्कि देश के दूसरे राज्यों में भी, ऐसी कितनी घटनाओं में कितनी जिन्दगियों से खेल चुके हैं, उनका जिक्र करने लगें तो जगह कम पड़ जायेगी. इसलिए इन्हीं दोनों को केन्द्र में रखकर बात आगे बढ़ाते हैं.
ऊपर से एक जैसी नजर आने वाली इन तीनों घटनाओं में एक बड़ा फर्क है. मुरैना में जानें गंवाने वाले तो जिले के एक गांव में बनाई जा रही अवैध शराब के ही शिकार हुए, बुलन्दशहर में शिकार होने वालों के मामले में ‘शराब के बदले वोट’ कहें या ‘वोट के बदले शराब’ ने भी बड़ी भूमिका निभाई. खबरों के अनुसार आसन्न पंचायत चुनाव में अपनी जीत पक्की करने के लिए एक संभावित प्रत्याशी ने वोटरों को जो शराब बांटी, वह जहरीली सिद्ध हुई और पांच लोगों की जान पर बन आई. राजस्थान के भरतपुर के रूपवास क्षेत्र में शराब कांड के बाद जिस तरह लोगों का गुस्सा भड़का हुआ है, वही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उसमें शराब के धंधेबाजों के अलावा किनके किनके हाथ काले हैं.
अलबत्ता, जैसे भी बने, अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर ‘दुनिया मुट्ठी में करने’ की एक तबके की हवस तीनों घटनाओं में एक जैसी निर्वस्त्र हुई है और सांप के निकल जाने पर लकीर पीटने की तर्ज पर सरकारों द्वारा की जा रही धर-पकड़, तबादले और निलम्बन वगैरह की कार्रवाइयां भी दोनों घटनाओं में एक जैसी हैं.
इनके संदर्भ में पूर्ण शराबबंदी की हिमायत करने वाली राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इस टिप्पणी को याद करने का तो अब शायद ही किसी के निकट कोई मतलब हो कि शराब औषधि के रूप में भी त्याज्य है और इस कारण किसी भी जनकल्याणकारी सरकार के लिए उसके पूर्ण निषेध का कोई विकल्प नहीं हो सकता. क्योंकि अब तो सरकारें इस तर्क के साथ भी आगे बढ़ने लगी हैं कि शराबबन्दी हो जाती है, तो अवैध शराब और जानें लेने लग जाती है. इसका कारण यह है कि शराबबन्दी के प्रति अगम्भीर सरकारें उसके कारोबार पर लगाम नहीं लगा पातीं, लेकिन सरकारें इसे इस रूप में नहीं देखतीं, न ही मानती हैं कि आजादी के बाद की सरकारें इस राह पर चली होतीं और जो एक्साइज ड्यूटी शराब को हतोत्साहित करने के लिए शुरू की गयी थी, उससे होने वाली भारी राजस्व आय पर अपनी निर्भरता लगातार बढ़ाती न जातीं, तो आज हम बापू को अभीष्ट पूर्ण मद्यनिषेध का लक्ष्य सम्पूर्णता में भले ही न पा सके होते, उस दिशा में इतनी यात्रा तो कर ही चुके होते कि शराब के कारोबारी यों मौतें बांटकर हमें मुंह न चिढ़ा सकें.
क्या आश्चर्य कि शराबबंदी के मामले में कभी सामाजिक-सांस्कृतिक तो कभी आर्थिक व राजनीतिक मजबूरियों की आड़ लेकर सरकारों द्वारा लगातार बरते जा रहे दुचित्तेपन की हद यह है कि बिहार में लागू शराबबन्दी भी दुचित्तेपन से नहीं बच पाई है. दूसरे प्रदेशों में जो जिलाधिकारी मद्यनिषेध अभियान चलाते हैं, वही हर नये वित्त वर्ष में शराब के सरकारी ठेकों की बढ़ी दर पर नीलामी के लिए कुछ भी उठा नहीं रखते. न कोई इन सरकारों को अब तक यह समझा पाया है और न वे खुद समझ पाती हैं कि इस नीलामी की दरें शराब के उपभोग के अंधाधुंध बढ़े बिना ज्यादा नहीं बढ़ सकती और इनके लिए शराब का उपभोग बढ़ाना ही है तो मद्यनिषेध अभियान के ढोंग का हासिल क्या है?
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सरकारी ठेकों के समानांतर शराब का जो अवैध कारोबार कल्पनातीत पैमाने पर चलता रहता है, उसके उत्पादों के सबसे बड़े कहें या ज्यादातर ग्राहक वे ‘गरीब’ होते हैं जो सरकारी ठेकों की ‘महंगी’ शराब नहीं खरीद सकते. शायद इसीलिए इस अवैध कारोबार का हाल देश में गरीबों की होकर रह गई दूसरी चीजों जितना ही बुरा है. वहां मौतें बांटने वाले धंधेबाज किसी भी हद से क्यों न गुजरते रहें, आबकारी विभाग और पुलिस को तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक उनकी जेबें भरी जाती रहें और शांति व्यवस्था के लिए कोई बड़ी समस्या न खड़ी हो.
यही कारण है कि कई बार प्रदेशों की राजधानियों तक में, जहां प्रदेश सरकारें बसती हैं, उनकी नाक के नीचे डंके की चोट पर कायम अवैध शराब का साम्राज्य अपने गुल खिलाता रहता है. प्रायः हर ऐसे गुल के खिलने के वक्त सोती पकड़ी जाने वाली सरकारें इनके खिलने के बाद हड़बड़ाकर नींद से जागती हैं तो दिखावे की तेजी दिखाकर पीड़ितों के लिए मुआवजे व मजिस्ट्रेटी जांच के ऐलान के साथ धंधेबाजों की गिरफ्तारियां करातीं और ‘जिम्मेदार’ ठहराये गये अधिकारियों व कर्मचारियों पर कार्रवाइयों के कागजी कोड़े बरसाने लग जाती हैं.
लेकिन होता यह है कि जल्दी ही सरकारें फिर झपकी लेने लग जाती हैं और उनका अमला मौका ताड़कर सारी कागजी कार्रवाई को चुपके से खत्म कर देता है. फिर अगली त्रासदी होने से पहले किसी को यह भी देखने की फुरसत नहीं होती कि व्यवस्था पर भारी पड़ रहे शराब-कारोबारी उन 18 वर्ष से कम उम्र वालों यानी अवयस्कों को भी शराब बेच व पिला रहे हैं, जिन्हें तम्बाकू के उत्पाद बेचने तक की कानूनी मनाही है. यह प्रशासनिक काहिली सरकारें बदलने के बाद भी खत्म नहीं होती. इसीलिए आम तौर पर किसी को मालूम नहीं हो पाता कि किसी वैध-अवैध शराब कांड में हुई मौतों के किसी मामले में किस स्तर पर क्या जांच हुई, कौन-कौन दोषी पाये गये और उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई.
हालात के दूसरे पहलू पर जायें तो इस मामले में सरकारें या राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, उनका स्वरूप निर्धारित करने में निर्णायक भूमिका निभाने वाली राजनीतिक पार्टियां भी इतनी स्वार्थांध हैं कि जब भी कोई चुनाव होता है, उसके दौरान शराब बांटने की घटनाओं को रोकना चुनाव आयोग के लिए बड़ी समस्या हो जाती है. आम लोगों में ऐसी घटनाओं के खिलाफ गुस्सा उभरता है तो उसको भी राजनीतिक रंग देकर भटका दिया जाता है.
देश में उदारीकरण व्यापने के बाद तो लगता है कि ऐसी त्रासदियों का एक खास वर्ग चरित्र भी है. विदेशी निवेश के लिए लालायित सरकारें निवेशकों की ‘मांग’ पर देशभर में अमीरों के लिए बेहतर शराब की खरीद-बिक्री और पीने-पिलाने के एक से बढ़कर एक सुभीतों के सुव्यवस्थित इंतजाम करके प्रफुल्लित हो रही हैं, जबकि गरीबों को ‘अवैध’ व ‘कच्ची’ के हवाले करके उनके हाल पर छोड़ दिया गया है.
काश, ये सरकारें समझतीं कि पूर्ण शराबबंदी के विरोध में उनके द्वारा जिन सामाजिक सांस्कृतिक कारणों का प्रायः हवाला दिया जाता रहता है, शराब को जहरीली करने में उनकी कतई कोई भूमिका नहीं है. होती तो सबसे पहले वे आदिवासी मारे जाते, जिनके यहां तमाम उत्सवों का वह अनिवार्य हिस्सा है. दरअसल, वह किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने की बढ़ती जा रही भूमंडलीकरण पोषित प्रवृत्ति है, जो न दवा को दवा रहने दे रही है, न दारू को दारू. यहां तक कि दूध को भी दूध नहीं.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)