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Friday, 17 January, 2025
होममत-विमतमिडिल क्लास के करदाताओं की अब कोई बात नहीं कर रहा है. रुपया गिर रहा है, बाजार डूब रहे हैं.

मिडिल क्लास के करदाताओं की अब कोई बात नहीं कर रहा है. रुपया गिर रहा है, बाजार डूब रहे हैं.

कई लोग जो एक दशक पहले रुपये में गिरावट को लेकर इतने चिंतित थे, वे बोलने को तैयार नहीं हैं. जब मनमोहन सिंह प्रभारी थे तो वे शेर थे. अब वे चूहे हैं.

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क्या आपने भारतीय रुपये की समस्याओं को देखा है, जो पिछले कुछ दिनों में ऐतिहासिक निचले स्तर तक गिर गया है? जिनकी याददाश्त अच्छी है, उन्हें याद होगा कि पिछली बार जब ऐसा हुआ था, तो काफी हंगामा हुआ था.

2014 की एक रैली में, एक प्रमुख विपक्षी नेता ने कहा था: “हमारे देश का रुपया गिर रहा है. रुपये की कीमत लगातार गिर रही है. अटलजी की सरकार के दौरान रुपया 40-45 प्रति डॉलर था. और इस सरकार के तहत यह गिरता ही गया: 62, 65, 70…”

यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि यह विपक्षी नेता और कोई नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी थे, जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

रुपये की गिरावट मोदी जी के लिए एक विशेष जुनून बन गई थी. इससे एक साल पहले उन्होंने कहा था: “रुपया अस्पताल में है और आईसीयू में भर्ती है. सरकार ने हमसे कहा था कि दो महीने में रुपया मजबूत हो जाएगा. लेकिन क्या हुआ? वे ऐसा करने में असमर्थ हैं. उन्होंने देश पर से नियंत्रण खो दिया है.”

उन्होंने यह भी कहा था: “जब रुपया गिर रहा है, तो सरकार ने इसके बारे में कुछ नहीं किया. एक बार जब रुपया गिरता है, तो विश्व शक्तियां इसका लाभ उठाती हैं.”

लेकिन भविष्य के प्रधानमंत्री को ही क्यों निशाना बनाया जाए? गुस्सा और नाराज़गी पूरे समाज में फैली थी. यहां तक कि फिल्मी सितारे भी इसमें कूद पड़े थे.

“डॉलर एस्केलेटर पर. रुपया वेंटिलेटर पर. देश आईसीयू में. हम कोमा में हैं,” ट्वीट किया था जानी-मानी अर्थशास्त्री शिल्पा शेट्टी ने. जूही चावला ने जोड़ा, “रुपये को बचाने का एकमात्र तरीका है कि वह डॉलर को राखी बांध ले.”

यहां तक कि महान अमिताभ बच्चन ने भी एक हल्का मजाक किया: “अंग्रेजी शब्दकोश में नया शब्द जोड़ा गया: ‘RUPEED’ (रु-पी-ड), क्रिया: नीचे गिरना…”

मैं यहां केवल कुछ उदाहरण दे रहा हूं उन बहादुर और बेबाक बयानों के, जो हमारे सितारों ने तब दिए थे, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. क्योंकि पिछले एक दशक में, जब से भाजपा सत्ता में आई है, उन्होंने न तो ऐसा कुछ कहा है और न ही वैसी मजाकिया बातें करने की कोशिश की है.

मनमोहन के समय शेर, मोदी के समय चूहे?

जैसा कि भारत में लगभग हर चीज के साथ होता है, इस कहानी के कई पहलू हैं. एक स्तर पर, प्रधानमंत्री बनने वाले नेता सही थे. रुपये का पतन तेज़ और परेशान करने वाला था. और फिल्मी सितारों को निराश होने और हास्य की असफल कोशिश करने का पूरा अधिकार था.

मनमोहन सिंह सरकार ने कई तर्क दिए: वैश्विक आर्थिक मंदी हो रही थी, सिर्फ डॉलर-रुपया अनुपात को देखना गलत था, आदि. लेकिन इसका कोई फर्क नहीं पड़ा. किसी ने ध्यान नहीं दिया. हम जानते थे कि सरकार चाहे जो कहे, सच्चाई यह थी कि हमारी जेब में रखा रुपया अब कुछ महीने पहले की तुलना में कम मूल्य का हो गया था.

उस समय रुपया 64 प्रति डॉलर था. हमें यह समझाया गया कि जब सरकार बदलेगी, तो रुपया फिर से बढ़ेगा—शायद उस मूल्य तक भी, जो वाजपेयी सरकार के दौरान था, जिसका नरेंद्र मोदी ने बड़े गर्व से जिक्र किया था.

भाजपा समर्थकों ने इसे खूब प्रचारित किया. यहां तक कि श्री श्री रविशंकर ने भी यह कहकर सुर्खियां बटोरीं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद रुपया फिर से मजबूत हो जाएगा.

लेकिन, जैसा कि हम सभी जानते हैं, ऐसा नहीं हुआ.

वर्तमान में, जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, रुपया 86 प्रति डॉलर को पार कर चुका है. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह और नीचे नहीं गिरेगा; कुछ विशेषज्ञ 90 प्रति डॉलर तक के स्तर की बात कर रहे हैं.

मेरा यह दावा नहीं है कि इसके लिए पूरी तरह से सरकार जिम्मेदार है. और शायद रुपये के गिरने के कुछ फायदे भी हो सकते हैं, जैसे हमारे निर्यात में बढ़त मिलना. निश्चित रूप से, किसी भी भारतीय नेता या उद्योगपति ने, जिनके पास विदेशों में पैसा जमा है, रुपये के हिसाब से भारी लाभ कमाया होगा. एनआरआई ने अपनी कुल संपत्ति के मूल्य को रुपये में बढ़ते देखा है.

लेकिन दो बातें मुझे सोचने पर मजबूर करती हैं. पहली: क्या यह बहुत ज्यादा उम्मीद है कि राजनेताओं में थोड़ी स्थिरता हो? जब मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के अंत में बिल्कुल यही हुआ, तो इसे राष्ट्रीय आपदा के रूप में देखा गया. खुद नरेंद्र मोदी ने हमें बताया था कि कैसे विदेशी शक्तियां अब हम पर हावी हो सकती हैं.

जब रुपया और भी निचले स्तर पर गिर चुका है—इतिहास में सबसे निचले स्तर पर—और अब मनमोहन सिंह के कार्यकाल के मुकाबले काफी कम मूल्य का है, तो क्या हम सरकार से किसी तरह की सफाई या थोड़ा आश्वासन मांगने के हकदार नहीं हैं? या कम से कम यह स्वीकारोक्ति कि 2013 में बार-बार किए गए वादे पूरे नहीं हुए?

और दूसरी बात: अब सार्वजनिक आक्रोश कहां है? जो फिल्मी सितारे 2013 में इतने साहसी और मुखर थे, वे आज पूरी तरह से चुप क्यों हैं? वे तमाम मशहूर लोग, जो एक दशक पहले रुपये के गिरने से इतने चिंतित थे, आज इस भारी गिरावट पर कुछ भी बोलने को तैयार क्यों नहीं हैं?

साजिश के सिद्धांत के दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि सितारे और हस्तियां अब सरकार के खिलाफ कुछ भी कहने से डरते हैं. जो 2013 में शेर थे, वे अब चूहे बन गए हैं.

शायद इस तर्क में कुछ सच्चाई है. लेकिन चलिए, हस्तियों से आगे बढ़ते हैं. क्या हमने मीडिया में वैसा आक्रोश देखा है, जैसा 2013 में रुपये के पतन के दौरान देखा गया था?

आजकल, रुपये के गिरने की खबर शायद ही कभी अखबारों के पहले पन्ने पर आती है. कोई भी आत्म-संतुष्ट एंकर हर शाम इस पर चिल्लाते-चिल्लाते नहीं दिखते.

यह दोहरा मापदंड क्यों? खैर, आपके अनुमान लगने की क्षमता मेरी तरह ही अच्छी है.

लेकिन यह मामला इससे भी गहरा और बड़ा है.

0 प्रभाव के साथ 2 प्रतिशत

कई वर्षों तक मध्यम वर्ग के लोगों के लिए बचत का सुरक्षित स्थान माने जाने वाला शेयर बाजार अब खतरनाक और अनिश्चित जगह बन गया है. यह अभी तक उन स्तरों पर वापस नहीं आ सका है, जहां यह कुछ महीने पहले था.

क्या इसका कारण पिछले बजट में घोषित कर नीति है, जिसके बारे में पहले से ही अनुमान लगाया गया था कि इसका ऐसा ही प्रभाव होगा? या फिर यह है कि विदेशी निवेशकों को अब भारतीय बाजार कम आकर्षक लगने लगा है और वे अपना पैसा वापस खींच रहे हैं? इससे न केवल मुद्रा विनिमय दर प्रभावित होती है बल्कि सेंसेक्स पर भी असर पड़ता है.

इन सवालों का जवाब अर्थशास्त्री बेहतर तरीके से दे सकते हैं. लेकिन सवाल यह है कि जब यह सरकार वही कर रही है, जिसके लिए उसने मनमोहन सिंह सरकार की आलोचना की थी, तो यह कैसे सही माना जा सकता है?

और अंत में, जैसा कि मैंने पहले भी कई बार कहा है: कोई भी मध्यम वर्ग की परवाह नहीं करता. मध्यम वर्ग ही वे लोग हैं, जो रुपये के गिरने और शेयर बाजार के लुढ़कने को लेकर चिंतित हैं. यहां तक कि मीडिया, जो खुद इसी वर्ग से आता है, इसके बारे में कुछ नहीं कहता.  और राजनेता, चाहे किसी भी पार्टी के हों, मध्यम वर्ग की चिंताओं पर बात नहीं करते क्योंकि वे “अमीर समर्थक” कहलाना नहीं चाहते. (विडंबना यह है कि जब यही राजनेता सुपर-रिच का समर्थन करते हैं, तो वे इसे “प्रो-ग्रोथ” और “अमीर समर्थक” नहीं कहते.)

मध्यम वर्ग की उपेक्षा का एक और साफ़ उदाहरण आयकर की संरचना है. भारत की केवल 2 प्रतिशत जनसंख्या आयकर का भुगतान करती है. इनमें से अधिकांश मध्यम वर्ग से आते हैं, खासकर वे वेतनभोगी कर्मचारी, जिनके पास अपने असली आय को छिपाने का साधन नहीं होता. कॉरपोरेट टैक्स, जो लाभ कमाने वाली कंपनियों से लिया जाता है, व्यक्तिगत आयकर की तुलना में सरकार को बहुत कम राजस्व देता है. यह किस दुनिया में उचित माना जा सकता है?

लेकिन वह 2 प्रतिशत आंकड़ा अपने आप बहुत कुछ कहता है. चुनावों में यह वर्ग इतना बड़ा फर्क पैदा नहीं कर सकता. वे राजनेताओं के लिए मायने नहीं रखते. और सुपर-रिच की तरह, वे न तो रिश्वत दे सकते हैं और न ही चुनाव अभियानों में योगदान कर सकते हैं.

तो अगर रुपये की कीमत घट जाती है या बाजार गिर जाता है, या मध्यम वर्ग की आय का एक बड़ा हिस्सा करदाता के हाथ में चला जाता है, तो क्या फर्क पड़ता है?

कभी ऐसा समय था जब मीडिया मध्यम वर्ग के करदाताओं के लिए आवाज उठाता था. लेकिन आज यह भी बहुत बड़ी मांग लगती है.

वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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