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Thursday, 14 November, 2024
होममत-विमतना मदरसे, ना पाकिस्तानी आतंकी कैंप, भारत में नफरती भाषण ईशनिंदा को लेकर हत्याएं करने के लिए उकसा रहे

ना मदरसे, ना पाकिस्तानी आतंकी कैंप, भारत में नफरती भाषण ईशनिंदा को लेकर हत्याएं करने के लिए उकसा रहे

भारत में ईशनिंदा विरोधी अभियान मौलवी नहीं चला रहे. और उदयपुर और अमरावती में हत्या की घटनाओं के आरोपियों ने न तो कोई मजहबी शिक्षा हासिल की थी और न ही उनका दक्षिणपंथी संगठनों से कोई संबंध रहा है.

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सेट पर हर तरफ परी लोक जैसी रोशनी फैली है, जब वह तालाब की तरफ घूमती है तो वहां तैरती बत्तखें और रबर प्लांट के हरे-भरे पौधे संगीत की धुन पर थिरकते नजर आते हैं. अगर ऑडियो बंद कर दिया जाए तो एकबारगी आपको संभवत: यही भ्रम होगा कि खास तरह की चमक-दमक वाली अचकन-शेरवानी सूट पहने गायक किसी की शादी में परफॉर्म कर रहे हैं. लेकिन गीत के बोल प्यार भरे कतई नहीं है. पॉप-म्यूजिशियन आफताब अली कादरी दरअसल जो गाना गा रहे हैं, उसके बोल कुछ इस तरह हैं कि ‘पैगंबर का अपमान करने वाले लोगों की एक ही सजा है कि उनके सिर को धड़ से अलग कर दिया जाए.’

पाकिस्तानी राजनेता सलमान तासीर—जिन्होंने ईशनिंदा की आरोपी एक महिला का बचाव करके कट्टरपंथियों को आग-बबूला कर दिया था—की हत्या का जश्न मनाते हुए यूट्यूब पर जारी किया गया यह गीत आज करीब दस साल बाद अपने बोलों के जरिये भारत में नए सिरे से जड़ें जमा रहा है. एक गीत है जो आस्तिकों को ‘काफिरों को रोकने के लिए खुद को कुर्बान तक कर देने’ के लिए उकसाता है. वहीं, एक अन्य ‘आंखों में तलवार जैसी चमक’ के लिए युवा भारतीयों की सराहना करता है.

अधिकांश भारतीय मुस्लिम नेता पिछले माह ईशनिंदा को लेकर हुई हत्याओं—जो भाजपा नेता नूपुर शर्मा की पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ की गई टिप्पणी के बाद हुईं—की एकदम खुलकर आलोचना करने से बचते रहे हैं, इसके अलावा यह बात भी काफी चिंताजनक है कि उन्होंने कट्टरपंथी तत्वों को सक्रिय कर दिया है. नूपुर शर्मा की हत्या के लिए खुले तौर पर आह्वान किए गए, और तमाम भड़काऊ वीडियो ऑनलाइन वायरल हो गए.

हालांकि, भारत में ईशनिंदा विरोधी अभियान का नेतृत्व राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए मजहबी उन्माद भड़काने वाले मौलवियों द्वारा नहीं किया जा रहा है, जिनके पीछे मदरसा-शिक्षित कट्टरपंथियों की सेना है. ईशनिंदा के नाम पर हत्याएं करने वाले कुछ आरोपियों ने न किसी तरह की मजहबी शिक्षा ली है और न ही उनका दक्षिणपंथी संगठनों से कोई संबंध है. भारत के ईशनिंदा को लेकर हत्याएं करने वालों की यह फौज न तो पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षित है और नही उन्हें वहां के आतंकी शिविरों में प्रशिक्षित किया गया है. बल्कि वे तेजी से बिगड़ते सांप्रदायिक संबंधों का नतीजा हैं.

मजहब और सम्मान की लड़ाई

दिप्रिंट की तरफ से हासिल जांच-संबंधित दस्तावेजों और परिजनों के साथ बातचीत के जरिये उदयपुर की घटना के आरोपियों के जीवन के बारे में जो थोड़ी-बहुत जानकारी मिली है, वो उन्हें उनके सामाजिक परिवेश से थोड़ा अलग करती है. लोहार जाति से ताल्लुक रखने वाले अब्दुल जब्बार के बेटे मुहम्मद रियाज का जन्म 1981 में राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के छोटे से शहर असिंद में हुआ और वह वहीं पला-बढ़ा. दस भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे रियाज ने छोटी उम्र में ही अपने पिता के वेल्डिंग के काम में मदद करनी शुरू कर दी थी. उसने कभी कोई औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की, न दीनी तालीम और न ही नियमित स्कूली शिक्षा.

2003 की शुरुआत में रियाज की शादी नौशीन खान से हुई थी. दंपति के दो बच्चे हैं—एक बेटा और एक बेटी—जो दोनों अब अपनी किशोरावस्था में हैं. पारिवारिक सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि इन बच्चों को उनके पिता की गिरफ्तारी के बाद स्कूल से हटाना पड़ा.

ऐसा लगता है कि शादी के बाद रियाज ने धीरे-धीरे निम्न मध्यम वर्ग में अपनी जगह बना ली थी. अपने एक भाई सिकंदर के साथ मिलकर रियाज ने राजसमंद के देवगढ़ में वेल्डिंग का कारोबार स्थापित किया और ट्रकों और निर्माण संबंधी उपकरणों की मरम्मत आदि का काम करने लगा. स्थानीय निवासियों के हिसाब से उसका कारोबार काफी अच्छा-खासा चल रहा था.

अपनी सीमित लेकिन ठीकठाक आय से मजबूत आर्थिक स्थिति हासिल कर लेने के बाद रियाज सामाजिक रुतबा कायम करने की कोशिश में दावत-ए-इस्लामी से जुड़े धार्मिक हलकों में सक्रिय हो गया. जांचकर्ताओं का मानना है कि उसे संगठन से रू-ब-रू कराने वाला उसका एक ग्राहक था जो टैंपो-टैक्सी बिजनेस से जुड़ा था.

दावत-ए-इस्लामी संगठन को ईशनिंदा करने वालों के खिलाफ फतवा जारी करने से जुड़ा पाया गया है और इसके सदस्य कथित तौर पर फ्रांस और पाकिस्तान में हत्याओं के दोषी रहे हैं. हालांकि, अन्य धर्मों के मजहबी समूहों की तरह दावत-ए-इस्लामी भी एक सोशल नेटवर्क के तौर पर कार्य करता है, जिससे सदस्यों को आगे बढ़कर अन्य सदस्यों को जोड़ने का मौका दिया जाता है.

2019 में रियाज हज यात्रा के लिए अपने परिवार के साथ सऊदी अरब गया था. पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि उसने इसके लिए 2.5 लाख रुपये का भुगतान करने के लिए अपने पिता से विरासत में मिली जमीन का एक छोटा टुकड़ा बेच दिया था.


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कट्टरपंथी बनने की वजह अस्पष्ट

हालांकि, ये बताने वाला कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं हैं कि किस मजहबी उन्माद ने दुनिया के प्रति रियाज के पूरे नजरिये को बदलकर रख दिया था. 2016 में उसने राजस्थान के पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया के दामाद मितुल चंदेला के स्वामित्व वाले एक संगमरमर कारोबार में नौकरी भी की थी. भाजपा के कार्यक्रमों में रियाज की उपस्थिति—जिसकी तस्वीरें उसने अपने फेसबुक पर पोस्ट की थीं—ने स्थानीय इस्लामपंथियों को नाराज कर दिया. जांच दस्तावेज दिखाते हैं कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) से जुड़े एक स्थानीय नेता ने तो पोस्ट के नीचे यहां तक लिख दिया था, ‘रियाज एक बास्टर्ड है, मुसलमान नहीं.’

रियाज की तरह ईशनिंदा को लेकर हत्या के दूसरे आरोपी मुहम्मद गौस ने भी सामान्य माहौल के बीच इस तरह का रास्ता अख्तियार कर लिया. 1984 में जन्मा गौस उदयपुर के एक सरकारी स्कूल में कक्षा 10 तक पढ़ा है और स्थानीय समाचार पत्रों दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका आदि के लिए विज्ञापन लाने का काम करता था. इस नौकरी में उसे बमुश्किल 3,000 रुपये महीने मिलते थे. हालांकि, समय के साथ गौस निवेश योजनाएं बेचकर ठीकठाक पैसे कमाने लगा.

गौस ने 2013 में अपने परिवार के साथ मक्का की यात्रा का इंतजाम किया. अगले साल दिसंबर में वह दावत-ए-इस्लामी की सभा में हिस्सा लेने के लिए कराची (पाकिस्तान) पहुंचा.

जांच से जुड़े पुलिस अधिकारियों का कहना है कि दावत-ए-इस्लामी के अन्य सदस्यों की तरह दोनों लोग घंटों मदनी चैनल को देखने में बिता देते थे, जो 2012 से भारत में प्रतिबंधित है लेकिन ऑनलाइन एकदम आसानी से उपलब्ध है. वे दावत-ए-इस्लामी की वेबसाइट पर मजहबी मार्गदर्शन तलाशते, जो शादी से लेकर अटैच टॉयलेट वाले बाथरूम के उपयोग के औचित्य तक हर विषय पर मशविरा देता है.

हालांकि, जांच रिकॉर्ड से ऐसा कुछ पता नहीं चलता कि मजहबी उन्माद से भरे इन लोगों में से कोई भी किसी भी तरह से जिहादियों के संपर्क में था. बहरहाल, जांचकर्ताओं का दावा है कि उदयपुर के दर्जी की हत्या का फैसला स्थानीय मस्जिदों में कुछ बैठकों के दौरान किया गया. ये लोग सोशल मीडिया नेटवर्क के जरिये जुड़े थे, जिसमें कई लोगों ने नूपुर शर्मा के खिलाफ हिंसा का आह्वान तो किया, लेकिन साजिश का हिस्सा नहीं बने.

हत्यारे खुद-ब-खुद प्रेरित हुए

ईशनिंदा को लेकर अमरावती के दुकानदार उमेश कोहली की हत्या कर देने के आरोप में गिरफ्तार सात लोगों की पृष्ठभूमि भी कुछ इसी तरह की है. किसी ने भी मदरसे में शिक्षा नहीं ली है, और न ही मजहबी आधार वाली किसी संस्था से जुड़े रहे हैं. मुख्य आरोपी इरफान खान समेत पांच आरोपियों ने हाईस्कूल की पढ़ाई तक पूरी नहीं की है. उदयपुर की घटना के आरोपियों की तरह इरफान ने भी छोटा-मोटा कारोबार शुरू करके खुद को गरीबी से बाहर निकाला था, जो रीयल इस्टेट और पुराने वाहनों का कारोबार करता था. वह 2021 में महामारी से संबंधित राहत कार्यों में भी शामिल रहा था.

दिलचस्प बात यह है कि कुछ ही भारतीय जिहादियों ने मजहबी शिक्षा ली. इंडियन मुजाहिदीन के 10 शीर्ष सदस्यों में से जो दो 2008 के बटला हाउस कांड में दिल्ली पुलिस के साथ मुठभेड़ में शामिल थे, उनमें जीशान अहमद बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन की डिग्री हासिल करने के लिए पढ़ाई कर रह था और उसका फ्लैटमेट, मोहम्मद सैफ, एक हिस्ट्री ग्रेजुएट था और एमबीए करना चाहता था. मोहम्मद जाकिर शेख आजमगढ़ में मनोविज्ञान में मास्टर डिग्री की पढ़ाई कर रहा था.

इंडियन मुजाहिदीन अभियान की अगुआई करने के आरोपी सादिक इसरार शेख ने बचपन में दो साल आजमगढ़ स्थित एक मदरसे में बिताए थे लेकिन बाद में अपना नामांकन एक कंप्यूटर कोर्स के लिए कराया, और मजहबी शिक्षा में बहुत कम रुचि दिखाई.

अब्दुल करीम ‘टुंडा’, जिसे भारत में जिहादी आंदोलन शुरू करने वाला माना जाता है, तो 11 साल की उम्र तक ईसाई-संचालित मिशनरी स्कूल में पढ़ता था. अपने पिता की मौत के बाद परिवार की आर्थिक स्थितियों को देखते हुए उसे अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

विद्वान इरफान अहमद तर्क देते हैं कि भारतीय जिहादी समूह—इसके साथ ही स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) जैसे संगठन भी—मजहबी कारणों के बजाये राजनीतिक चिंताओं से प्रेरित हैं. सिमी का साहित्य, और साथ ही इंडियन मुजाहिदीन की तरफ से ऑनलाइन मैनिफेस्टो मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा पर केंद्रित रहे हैं. जिहाद को लेकर उनकी मजहबी जुनून इस समुदाय की रक्षा में सरकारी व्यवस्था की नाकामी पर केंद्रित है.

पिछले कुछ दशकों में भारत ने कई बार आतंकवादी संगठनों में भर्ती में तेजी देखी है, जो तमाम उतार-चढ़ावों और सांप्रदायिक संघर्ष की घटनाओं से प्रेरित रही है. 2016 से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने सौ से अधिक गिरफ्तारियां की हैं. ईशनिंदा को लेकर हत्याएं इस बात का संकेत हैं कि इस्लामी हिंसा समुदायों के बीच गहराई से जड़ें जमाती जा रही है, क्योंकि भारत में सांप्रदायिक उबाल और अधिक जहरीला होता जा रहा है.

लेखक दिप्रिंट के नेशल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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