सत्ताधारी वर्ग जब शासन में होता है तो क्या करता है ? सवाल की शक्ल में दिखता यह वाक्य दरअसल मार्क्सवादी सैद्धांतिकी पर लिखी एक कालजयी किताब का नाम है. स्वीडिश राजनीति विज्ञानी योरन थरबर्न ने अपनी किताब का नाम ही रखा ह्वाट डज द रुलिंग क्लास डू ह्वेन इट रुल्स ? थरबर्न को शायद इतने भर से संतोष ना था, सो उन्होंने किताब के लिए एक लंबा-चौड़ा उप-शीर्षक भी सोचा: ‘स्टेट एपरॉटस्स एंड स्टेट पावर अंडर फ्यूडलिज्म, कैपिटलिज्म एंड सोशलिज्म’ यानि सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवाद में राजकीय तंत्र और राजसत्ता ! अब यहां कह लेने दीजिए कि मैं इस किताब को शुरुआत से आखिर के पन्नों तक तो कभी नहीं पढ़ पाया मगर हां, किताब का लंबा-चौड़ा शीर्षक और उप-शीर्षक मुझे आज दिन तक याद रह गये है.
मुझे लगता है, कोई चाहे तो योरन थरबर्न की किताब का एक ठेठ भारतीय संस्करण भी तैयार कर सकता है. किताब के भारतीय संस्करण का शीर्षक कुछ यों दिया जा सकता है : ह्वाट डज द रुलिंग कास्ट डू ह्वेन इट रुल्स ? स्टेट एपरॉटस्स एंड स्टेट पावर अंडर ब्राह्मनिज्म इन एक कांस्टिट्यूशनल डेमोक्रेसी. मतलब हिन्दी में कहें तो योरन थरबर्न की किताब के तर्ज पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में लिखी गई किताब का नाम होगाः सत्ताधारी वर्ग जब शासन में होता है तो क्या करता है ? एक संवैधानिक लोकतंत्र में ब्राह्मणवाद के तहत राजकीय तंत्र और राजसत्ता ! किताब में उन तमाम तौर-तरीकों की चर्चा की जा सकती है जिसके सहारे जाति-व्यवस्था भारत में राज करती रही है और इसमें राजसत्ता के औपचारिक और अनौपचारिक रुपों का इस्तेमाल करती है. इस किताब में एक पूरा अध्याय इस बात पर लिखा जा सकता है कि अलग-अलग राजनीतिक रंग-रेशे की तमाम सरकारों ने कैसे साजिशन अन्य पिछड़ा वर्ग की जनगणना नहीं करवायी है.
पिछले हफ्ते राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने नरेन्द्र मोदी सरकार से अपील की कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती करवायी जाय. बात को ठीक-ठीक कहें तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सरकार को सलाह दी कि सुप्रीम कोर्ट में पेश होने जा रहे एक मुआमले में सरकार आगे बढ़कर एक हलफनामा दे और उसमें कहे कि ओबीसी की गिनती करवायी जायेगी। चाहे जिस कोण से विचार करें, जान यही पड़ेगा कि आयोग ने अपने इस हस्तक्षेप में बहुत देरी की और जितना करना था, उससे बहुत कम किया. सरकार ओबीसी की गिनती करवाने के अपने वादे से पहले ही कदम पीछे खींच चुकी है और फिर से इस दिशा में कदम आगे बढ़ाएगी, इसकी संभावना नहीं जान पड़ती. तो फिर, मानकर चलिए कि एक बार फिर हमसे गाड़ी छूट गई और अब अगले दस साल तक इंतजार करना पड़ेगा.
क्या है ओबीसी की गणना?
जनगणना में ओबीसी समूह के लोगों की गिनती करने का विचार अपने आप में बड़ा सीधा-सादा है. हमारे देश में हर दस साल पर जनगणना होती है और दुनिया के बाकी देशों की तरह भारत में भी जनगणना का मतलब सिर्फ इतना भर नहीं होता कि गिनकर बता दिया जाय कि भारत में अमुक तादाद में लोग रहते हैं. जनगणना में परिवारों और व्यक्तियों को विभिन्न श्रेणियों में रखकर उनकी संख्या बतायी जाती है. बताया जाता है कि जिन लोगों की गिनती की गई है, उनकी उम्र क्या है, वे लिंग, शिक्षा, पेशा आदि की किन श्रेणियों में आते हैं. जनगणना में लोगों को भाषा और धर्म की श्रेणियों में रखकर उनकी तादाद बतायी जाती है तो ये भी इंगित किया जाता है कि वे किस प्रकार के मकानों में रहते हैं और प्रत्येक घर में कौन-सी बड़ी संपदा है. जहां तक जाति का सवाल है, जनगणना में तीन श्रेणियों का इस्तेमाल होता है: अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) तथा सामान्य. अगर कोई परिवार अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का हुआ तो जनगणना करने वाले आधिकारिक सूची में ऐसे परिवार के सदस्यों की जाति का नाम भी दर्ज करते हैं.
ओबीसी समूह के लोगों की गिनती की मांग लंबे समय से चली आ रही है और सीधी-सादी मांग ये है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अतिरिक्त जनगणना की आधिकारिक पर्ची में एक खाना सामाजिक और शैक्षिक रुप से पिछड़े वर्गों(एसईबीसी—ओबीसी का आधिकारिक नाम) के लिए भी होना चाहिए. और, जिस तरह किसी व्यक्ति के एससी अथवा एसटी समूह के होने पर जनगणना की पर्ची में उसकी जाति का नाम दर्ज किया जाता है उसी तरह एसईबीसी श्रेणी के व्यक्ति की जाति का नाम भी दर्ज किया जाए. ध्यान रहे, यह कोई जातिवार जनगणना की मांग नहीं है क्योंकि जातिवार जनगणना बहुत जटिल है जिसमें तमाम जातियों की श्रेणी तय करने का मसला पेश आएगा और इसके लिए अभी तक कोई आधिकारिक सूचना-संग्रहिका(कंपेन्डियम) नहीं बनी है. जाहिर है, ओबीसी की गिनती अपने दायरे में सीमित है और इस गिनती को करने में कोई खास मशक्कत भी नहीं करनी होगी क्योंकि ओबीसी समूह की एक अखिल भारतीय स्तर की सूची पहले ही मौजूद है और उसी के आधार पर केंद्र सरकार के तहत आरक्षण दिया जाता है.
आखिर ओबीसी की गिनती क्यों की जाए?
इसकी वजह भी बड़ी सीधी-सादी है. कोई आधुनिक राजसत्ता किसी नागरिक को अपनी सामाजिक नीति का विषय मानती है तो एक ना एक वर्ग के रुप में उसे ऐसे नागरिक की गिनती करनी ही होती है. शेष बहु-नस्ली समाजों की तरह संयुक्त राज्य अमेरिका में भी जनगणना के वक्त ये गिनती की जाती है कि किस नस्ल के कितने लोग हैं. ऐसा ही ब्रिटेन में होता है जहां आप्रवासियों की गिनती उनके मूलनिवास के आधार पर होती है. साल 1990 में राष्ट्रव्यापी ओबीसी-आरक्षण का प्रावधान करने से पहले ओबीसी की गिनती के पक्ष या विपक्ष में तर्क दिये जा सकते थे. अब ये बात चाहे आपको पसंद हो या नापसंद लेकिन किसी समूह के सशक्तीकरण के लिए आरक्षण जैसा बड़ा कार्यक्रम चले और उसकी गिनती ना की जाये तो ये बात अपने आप में बड़ी हास्यास्पद मानी जायेगी.
जरा नजर डालिए कि इस मोर्चे पर सूचनाओं की किस कदर कमी है. भारत में नागरिकों का सबसे बड़ा तबका ओबीसी श्रेणी का है लेकिन हमें ये नहीं पता कि इस श्रेणी के नागरिकों की तादाद कितनी है. मंडल आयोग ने तो अटकलपच्चीसी के आधार पर बताया था कि भारत में ओबीसी श्रेणी के लोगों की तादाद कुल आबादी में 52 प्रतिशत की है. इस सिलसिले में कुछ और अनुमान भी लगाये गये हैं. कोई कहता है कि आबादी में ओबीसी तबके के लोगों की तादाद 36 प्रतिशत है तो कोई इस आंकड़ों को बढ़ाकर 65 प्रतिशत तक ले जाता है! जनगणना में ओबीसी समूह के लोगों की गिनती हो जाये तो आबादी में इस समूह की तादाद का रहस्य तो खुलेगा ही, जनांकिकी से संबंधित अन्य उपयोगी सूचनाएं भी सामने आयेंगी( जैसे लिंग-अनुपात, मृत्यु-दर, आयु-प्रत्याशा). ये भी पता चलेगा कि ओबीसी श्रेणी के लोगों के बीच स्त्री और पुरुषों में साक्षरता कितनी है, स्नातक स्तर की शिक्षा वाले कितने हैं और स्कूल जाने वाली आबादी का प्रतिशत क्या है. साथ ही, ओबीसी समूह के लोगों के लिए नीति बनाने के लिहाज से अत्यंत उपयोगी आर्थिक-दशा का संकेत करती सूचनाएं ( जैसे मकानों के प्रकार, संपदा, पेशा आदि) भी हासिल होंगी.
ये सारी सूचनाएं सिर्फ ओबीसी समूह के बारे में ही नहीं बल्कि उन तमाम जातियों के बारे में पता चलेंगी जो ओबीसी समूह के भीतर आती हैं और ये भी जाना जा सकेगा कि किस राज्य और किस जिले में ओबीसी के भीतर जातिवार स्थितियां क्या हैं. इन सूचनाओं का इस्तेमाल करते हुए साक्ष्य-आधारित सामाजिक नीति बनाने और उसकी नोंक-पलक दुरुस्त करने में बड़ी मदद मिलेगी. ऐसी जनगणना से गली-मुहल्लों में होनी वाली उस बकझक से भी निजात मिलेगी जिसमें एक-दूसरे को आंख तरेरकर या अंगुली दिखाते हुए बताया जाता है कि किस जाति के लोगों को आरक्षण मिलना चाहिए और किस जाति के लोगों को नहीं.
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ना-जानकारी की साजिश
बीते तीन दशक से सरकारें इस सीधे-सादे तर्क का सामना करने से बचने के लिए एक ना एक आड़ लेती रही हैं. बुद्धिजीवी हड़कंप फैलाने में जुटे रहे कि ओबीसी समूह के लोगों की गिनती होगी तो जातिवाद का उभार होगा, मानो जाति की सच्चाई से आंख मूंद लें तो जातिवाद खत्म हो जाएगा. नौकरशाही ने बहाना तलाशा कि गिनती करने में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां आयेंगी लेकिन ऐसा कहते हुए नौकरशाही ने ये नहीं बताया कि एससी, एसटी या फिर भाषा और धर्म के खांचे में रखकर लोगों की गिनती करने में कोई मुश्किल नहीं आती तो फिर ऐसा ही ओबीसी समूह के लोगों के साथ करने में कौन-सी व्यावहारिक दिक्कत आन खड़ी होगी. नौकरशाही का ऐसा ही एक दिलफेरब तर्क मोदी सरकार के दौर में आया है कि : `ओबीसी की गिनती से जनगणना की सत्यनिष्ठा पर बुरा असर पड़ेगा`. अब कोई समझाएं कि इस वाक्य का मतलब क्या हुआ?
ओबीसी के लिए जिस वक्त आरक्षण देने की शुरुआत हुई उस वक्त तक 1991 की जनगणना के हिसाब से बहुत देरी हो चुकी थी. एक दशक बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार ने 2001 की जनगणना में ओबीसी की गिनती कराने के काम को टाल दिया, हालांकि तब महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त ने गिनती कराने के बाबत बड़े साफ शब्दों में निवेदन किया था. यूपीए की सरकार भी मसले से भागती रही और इसी भागने के क्रम में एक बार ऐसा हुआ कि 2010 में लोकसभा में यूपीए की सरकार मसले पर बुरी तरह घिर गई. सरकार को मजबूरन जातिवार जनगणना की बात माननी पड़ी. लेकिन तब भी जाति-व्यवस्था के मकड़जाल को एक कामयाबी मिल ही गई और जातिवार जनगणना को जनगणना के मुख्य काम से अगल रखा गया. खुद को तीसमार खां समझने वाले नौकरशाह ये सूझ लेकर सामने आये कि सामाजिक-शैक्षिक जाति जनगणना(एसईसीसी) करवायी जाये और फिर जब ये गिनती हो गई तो नौकरशाही ने कहा कि गिनती से जो आंकड़े निकल कर आये हैं उनका ना तो वर्गीकरण किया जा सकता है और ना ही कोई उपयोग हो सकता है. इस तरह तीन दशक बीत गये लेकिन अब भी हमारे हाथ में ओबीसी की गिनती का कोई आंकड़ा नहीं है.
मोदी सरकार ने तो मसले पर एकदम से वापसी का ही रास्ता ले लिया.. साल 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने एलान किया कि देश में पहली बार ओबीसी की गिनती होने जा रही है. लेकिन 2019 के चुनाव के बाद ये फैसला बिना किसी बहस या तर्क के बदल दिया गया. इस घड़ी, जब साल 2021 की जनगणना का मसौदा जारी हुआ है, तो हम जान सके हैं कि उसमें ओबीसी वाला खाना तो नदारद है. मसौदे के जारी होने के बाद से मसले से जुड़े कई पक्षकारों ने गुहार लगायी है कि फैसला वापस लिया जाये. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने, जो कि एक संवैधानिक निकाय है, ओबीसी समूह की गिनती की सिफारिश की है. ओबीसी के कल्याण के निमित्त बनी संसद की स्थायी समिति तथा सामाजिक न्याय मंत्रालय ने भी ऐसी ही बात कही है. राजस्थान की सरकार, बिहार, ओड़िसा तथा महाराष्ट्र की विधानसभाओं ने भी मांग के पक्ष में बोला है. लेकिन जाति-व्यवस्था के मकड़जाल के भीतर चीजें इस मुस्तैदी से कायम हैं कि अपनी जगह से हिलने का नाम नहीं ले रहीं.
सुविधा-सम्पन्न तबके का छद्म
जाति-व्यवस्था को बनाये रखने के तरफदार क्यों इस बात पर तुले हुए हैं कि ओबीसी की गिनती हो ही नहीं ? गिनती हो जाये तो साफ पता चल जायेगा कि ओबीसी की तादाद देश की आबादी में बहुत ज्यादा है. लेकिन बात इतनी भर नहीं है. ये तो पहले ही पता है कि ओबीसी समूह के लोग हमारे देश की आबादी में बहुतायत में हैं, भले ही सही-सही तादाद ना पता हो. गिनती हो जाये तो ओबीसी समुदाय की कुछ जातियों की बदहाली की दास्तान भी सामने आएगी. इस समूह की कुछ जातियां तो ऐसी हैं कि अनुसूचित जाति के शीर्षस्थ तबके के तुलना में उसकी दशा गयी-बीती मानी जायेगी. लेकिन, जाति-व्यवस्था के तरफदार सिर्फ इन्हीं बातों के कारण ओबीसी की गिनती को रोक रखने पर तुले हैं, ऐसी बात नहीं.
दरअसल जाति-व्यवस्था के तरफदारों के भीतर एक गहरा डर बैठा हुआ है, डर इस बात का कि ओबीसी की गिनती हो जाये तो उनकी जातिगत सुविधा-सम्पन्नता का खेल सबके सामने आ जायेगा. अगर एससी, एसटी और ओबीसी की गिनती हो जाएगी तो आपको लगे हाथ बाकी बची श्रेणी (यानि सामान्य) की भी जानकारी मिल जायेगी. चूंकि जनगणना में धर्म-समुदाय के बाबत भी सूचनाएं एकत्र की जाती हैं तो फिर इन सूचनाओं का एक बड़े फलक पर उपयोग करते हुए अगड़ी जाति के हिन्दुओं की सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक सुविधा-सम्पन्नता के बारे में साफ-साफ बताया जा सकेगा. अगड़ी जाति के हिन्दू देश की आबादी में 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं लेकिन अधिकार और सुविधा के 80 प्रतिशत पदों पर इसी तबके के लोग काबिज हैं. वो जो `सामान्य` कही जाने वाली एक छतरीनुमा श्रेणी है, उसी की ओट लेके यह तबका अपनी सुविधा-सम्पन्नता को छिपाये रहता है. उसकी सुविधा-सम्पन्नता के रग-रेशे कहीं शेष समाज को ना दिखायी दे जायें, इस बात को लेकर ये तबका हमेशा सतर्क रहता है. दरअसल, सबसे बड़ी सुविधा तो ये है कि आप सामान्य कहलाते हैं यानि जाति-विहीन और इसी तर्क से ये तबका चाहता है कि उसकी जातिगत सुविधा-सम्पन्नता भी लोगों को सामान्य नजर आये, एकदम स्वाभाविक और सहज जान पड़े.
सत्ताधारी जाति पर जब शासन करने आती है तो दरअसल यही करती है.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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