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Saturday, 21 December, 2024
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क्या नीतीश कुमार का इकबाल खत्म हो गया है!

बिहार के मुख्यमंत्री के भाषणों में ही नहीं, बिहार में भी ‘सुशासन’ गायब है. वहां मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं. अब वे सुशासन का नाम लेने से बचते हैं.

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नीतीश कुमार ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अब तक कितने भाषण दिये होंगे, जब यह सवाल आपसे पूछा जाये तो संभव है आपके पास सही जवाब न हो. लेकिन इस सवाल को जरा आसान बना दिया जाये कि एवरेज हर महीने आठ-से 10 मंचों पर नीतीश बोलते हैं, तब आपके लिए यह केलकुलेट करना आसान हो जायेगा कि पिछले 13 वर्षों में नीतीश लगभग 15 सौ भाषण दे चुके होंगे.

अब अगला सवाल आपसे पूछा जाये कि नीतीश अपने भाषणों में किन दो शब्दों का सर्वाधिक इस्तेमाल करते रहे हैं, तो इसका जवाब ज़्यादातर लोग बेहिचक दे देंगे. जवाब होगा- ‘सुशासन’ और ‘न्याय के साथ विकास’.

लेकिन ज़रा ठहरिये! और याद कीजिए तो पायेंगे कि पिछले डेढ़ साल में नीतीश कुमार सुशासन शब्द का इस्तेमाल करने से गुरेज करने लगे हैं. मिसाल के तौर पर आप उनके पिछले 20-25 भाषणों को ले सकते हैं.

नीतीश कुमार शब्दों का चयन ठोक-बजा कर करते हैं. वह अपने शब्दों और अपनी कही बातों को लेकर अमूमन नहीं घिरते. वह कभी ‘सुशासन’ शब्द का इस्तेमाल करते हुए गर्वबोध से लबरेज हो जाते थे. पर अब उन्हें बखूबी पता चल चुका है कि यह शब्द उन्हें गर्वबोध नहीं दे पाता. क्योंकि पिछले दो सालों में बिहार में हिंसा, अपराध, रेप, लूट, मर्डर और यहां तक कि दंगा जैसे संगीन मामलों में भारी इजाफा हुआ है. बिहार पुलिस की वेबसाइट (biharpolice.bih.nic.in) खुद इसका सुबूत है.

बिहार में होने लगी है मॉब लिंचिंग  

पिछले कुछ महीनों में बिहार में मॉब लिंचिंग का एक भयावह ट्रेंड डेवलप हुआ है. दो दिन पहले खुद नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा में दो लोगों को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला. उससे दो दिन पहले अररिया में भीड़ ने एक बुजुर्ग की, मवेशी चोरी का इल्ज़ाम लगा कर जान ले ली. इस मामले की रिपोर्टिंग करते हुए हिंदुस्तान के स्थानीय संस्करण ने बीते महीनों में हुई मॉब लिंचिंग की फेहरिस्त जारी कर दी. नवादाबेगूसरायसीतामढ़ी और कई जगहों पर ऐसी वारदातों से बिहार पहले ही सहम चुका है. शेल्टर होम बलात्कार के अलावा पिछले बरस पिता के सामने बेटी का रेप का मामला हो या जहानाबाद में नाबालिग बच्ची से छेड़छाड़ का विडियो वायरल होने का मामला. दुखद पहलू यह है कि इन मामलों में गिरफ्तार आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस पर कुछ अदृश्य शक्तियों ने दबाव भी बनाया.

इस मामले का एक और दुखद पहलू यह है कि पिछले 20 अक्टूबर को सीतामढ़ी में हुए दंगे और मॉब लिंचिंग के तीन हफ्ते बाद असेम्बली में विपक्ष द्वारा तूफान खड़ा करने के बाद कार्रवाई हुई.

उससे पहले दुनिया ने देखा कि औरंगाबाद, नवादा, समस्तीपुर समेत एक दर्जन ज़िलों में रामनवमी पर एक ही ट्रेंड के अनुसार दंगे हुए. हद तो तब हुई जब भागलपुर दंगा में भाजपा नेता अश्विनी चौबे के बेटे का नाम आने पर उसने प्रेस कांफ्रेंस करके एफआईआर की उस कॉपी को कूड़ेदान में डाल कर नीतीश सरकार को चुनौती दे डाली. जबकि यही नीतीश कुमार अपने प्रथम कार्यकाल में शहाबुद्दीन और आनंद मोहन जैसे बाहुबलियों को सलाखों में ठूस कर यश अर्जित कर चुके हैं. जबकि अश्विनी चौबे के बेटे की गिरफ्तारी में हुई देरी पर नीतीश को आलोचनाओं की जद में आना पड़ा.

शासन इकबाल से चलता है, वह कहां है?

राजद नेता भाई वीरेंद्र ने इस घटना को नीतीश का इकबाल खत्म होना बताया था. नीतीश सरकार के इकबाल पर जब विपक्ष सवाल उठाता है तो नीतीश खामोश रहते हैं. एकदम चुप. मगर उनके व्यवहार में ज़रूर फर्क आया है. और वह फर्क यह है कि वह अब अपने भाषणों में सुशासन जैसे शब्द पर ज़ोर देने या उसके इस्तेमाल से परहेज करते हैं. लेकिन उनकी सरकार के सहयोगी व भाजपा नेता सुशील मोदी चुप नहीं रहते. वह लालू-राबड़ी काल को खींच ले आते हैं. लालू के कथित जंगल राज की याद दिलाकर मौजूदा स्थितियों को जस्टिफाई करने का प्रयत्न कर देते हैं.

लालू से नहीं, नीतीश से थी सुशासन की उम्मीद

लालू प्रसाद एक खास राजनीतिक परिस्थिति में बिहार की सत्ता में आए थे. जगन्नाथ मिश्रा से लेकर भागवत झा आजाद, चंद्रशेखर सिंह और बिंदेश्वरी दूबे के शासन से लोग त्रस्त थे और वंचित जातियां अपना हक मांग रही थीं. लालू यादव से उम्मीद थी कि वे वंचित जातियों को स्वर देंगे.

बिहार में सवर्ण जातियों के वर्चस्व के खिलाफ जो भावना थी, उसकी लहर पर लालू यादव सवार हो गए. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के शासन काल के दौरान वंचितों को स्वर तो ज़रूर मिला, लेकिन इस क्रम में प्रदेश में भारी सामाजिक उथल-पुथल हुई और कई स्तरों पर अराजकता छा गई. इससे निराश और नाराज़ लोगों ने नीतीश कुमार को विकल्प के तौर पर देखा.

नीतीश कुमार का वादा विकास और सुशासन था. इसमें कानून और व्यवस्था में सुधार एक महत्वपूर्ण पहलू था. लोगों को लगा कि नीतीश कुमार के आने के बाद अपराधी दुबक जाएंगे और बिहार के लोग सुरक्षित महसूस करेंगे. शुरुआत में नीतीश कुमार इस वादे पर एक हद तक खरे भी उतरे, लेकिन वो अब गुज़रे समय की बात है.

लेकिन सरकार के लिए शर्मनाक हालात पिछले दिनों तब बन गये जब खुद डीजीपी केएस द्विवेदी का वह पत्र सार्वजनिक हो गया जिसे उन्होंने तमाम ज़िलों के पुलिस कप्तानों को लिखा था. इस पत्र में उन्होंने असहाय तौर पर कहा था कि पुलिस, रात तो छोड़िये दिन में भी गश्त नहीं करती जिसके कारण लगातार अपराध बढ़ रहे हैं. राज्य के डीजीपी की इस बेबसी भरी टिप्पणी से स्वाभाविक तौर पर नीतीश प्रशासन के इकबाल पर सवाल उठना ही था. नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी इसे नीतीश सरकार के इकबाल का खत्म हो जाना करार दिया.

बीजेपी को मुसलमान नहीं चाहिए, लेकिन नीतीश को चाहिए

बात-बात पर दंगा भड़क उठना और सीतामढ़ी, अररिया समेत अनेक जिलों में मॉब लिंचिंग की घटनाओं की पुनरावृत्ति से निश्चित तौर पर नीतीश चिंतित होते होंगे. राजनीतिक नफा-नुकसान के लिहाज से भी ये घटनायें नीतीश के लिए चिंता का ज़रूर कारण होंगी. क्योंकि महागठबंधन से अलग होने के बाद उनके लिए मुसलमानों को अपने साथ बांधे रखने की चुनौती भी है.

जो नीतीश कुमार तलाक बिल पर अपनी सहयोगी केंद्र सरकार के खिलाफ राज्यसभा में वोट करने का साहसिक फैसला लेने का माद्दा दिखाते हैं, ज़ाहिर तौर पर उन्हें मुस्लिमों का समर्थन खोने की चिंता जरूर है. वह कत्तई नहीं चाहते होंगे कि ‘बिहार में सुशासन का राज है’, वाला भाषण न दोहरायें. फिर भी उन्हें अब यह साहस नहीं होता कि वह अपने भाषणों में सुशासन शब्द का इस्तेमाल करें. तो ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या नीतीश ने सचमुच अपना इकबाल खो दिया है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं.)

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