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Sunday, 22 December, 2024
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सुबह का भूला यदि शाम को घर न लौटे, तो उसे नीतीश कुमार कहते हैं

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नीतीश कुमार ने हमेशा दूसरों की बैसाखी पर विशुद्ध सहुलियत भरी राजनीति की है। दो सर्वथा मुख़्तलिफ़ विचारधाराओं, सिद्धांतों और नीतियों वाली पार्टियों के साथ गठबंधन में रहकर गठबंधन धर्म को धता बताते रहे हैं।

नीतीश कुमार भलीभाँति पहचान रहे हैं कि विकास का तथाकथित ‘क़रार’ अब ‘तक़रार’ बन गया है। विश्वसनीयता ज़ीरो हो गयी है। वोट बैंक छिटक गया है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव परिपक्व होकर जनमानस में स्वीकार्यता प्राप्त कर जमीनी स्तर पर गंभीर चुनौती दे रहे हैं। स्वजातीय वोट छोड़ सब वोट बिखरकर दूसरी पार्टियों में बँटने की प्रबल आशंका है, तो एक बार पुनः पूर्व में इन्हें राजनीतिक रूप से ज़िंदा करने वाले महागठबंधन की याद सताने लगी है।

नीतीश कुमार पहचान रहे है उनकी राजनीति सैचुरेशन बिंदु पर पहुँचने के बाद खड़ी ढलान पर है। उनके प्रशासनिक काम-काज में कोई नयापन नहीं है। सब नियमित कार्य अपनी मंथर गति से हो रहे है। विगत पाँच साल में चार बार विभिन्न-2 दलों के साथ सरकार बनाने के बाद से अफ़सरशाही परेशान है।  शराबबंदी से राजस्व में भारी कमी आयी है। बालूबंदी और फ़ंड की कमी से विकास कार्य ठप्प है। केंद्र से नियमित राज्याशं मद भी ससमय नहीं मिल रही है। बिहार विकास मिशन और सात निश्चय कार्यक्रम की योजनाओं का क्रियान्वयन लगभग ना के बराबर है। बाक़ी बचे कार्यकाल में चुनावी वादों को पूर्ण कर पाना असंभव है। शराबबंदी क़ानून अथवा दहेज प्रथा और बाल विवाह क़ानून की रिपैकेजिंग से एक समाज सुधारक की छवि गढ़ने की क़वायद भी लोगों को नहीं लुभा पायी।

नीतीश कुमार ने हमेशा दूसरों की बैसाखी पर विशुद्ध सहुलियत भरी राजनीति की है। दो सर्वथा मुख़्तलिफ़ विचारधाराओं, सिद्धांतों और नीतियों वाली पार्टियों के साथ गठबंधन में रहकर गठबंधन धर्म को धता बताते रहे हैं। वह माले, भाजपा, सीपीआई, राजद, कांग्रेस, लोजपा, हम(से) से लेकर रालोसपा तक सभी के साथ गठबंधन में रहे हैं और समय-समय पर इन्हीं पार्टियों को तोड़ने की नाकाम कोशिश भी करते रहे हैं। कांग्रेस कैसे भूलेगी कि महागठबंधन से निकलने के बाद किस प्रकार नीतीश कुमार ने कांग्रेस विधायक दल को तोड़ने की असफल कोशिश थी। यहाँ तक कि उनके तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष समेत चार एमएलसी कांग्रेस छोड़ जदयू में शामिल कर लिए गए।

1990 में मंडल कमीशन के लागू होने और 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के उपरांत देश में मंडलवादी और धर्मनिरपेक्ष राजनीति का उफान अपने चरम पर था. राष्ट्रीय पटल पर बीजेपी अलग-थलग पड़ चुकी थी और दुसरे दूसरे दलों के लिए राजनीतिक रूप से लगभग अछूत सी बन चुकी थी।

इसी दौर में राजनीतिक रूप से अस्पृश्य बन चुकी भाजपा के लिए तत्कालीन समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार संजीवनी लेकर प्रकट हुए। दिसंबर 1995 में भाजपा के मुंबई में आयोजित विशेष अधिवेशन में नीतीश कुमार ने भाजपा के मंच से यह कहकर सबको चौंका दिया, ”मुझे महसूस हो रहा है कि मैं घर आ गया हूँ”। नीतीश कुमार ने मंडल की काट में कमंडल पकड़े, बाबरी मस्जिद ढहाने वाली सांप्रदायिक पार्टी और मंडल कमीशन के खिलाफ के दल को अपना घर बताकर 1996 के आम चुनाव के पूर्व बीजेपी संग गठबंधन कर लिया। समाजवादी राजनीति करने वाले जॉर्ज फ़र्नांडीस और नीतीश कुमार ने मंडल विरोधी भाजपा को उसके सबसे मुश्किल हालात में अत्यावश्यक ‘समाजवादी प्रमाण पत्र’ सौंप दिया।

2010 में नीतीश-भाजपा गठबंधन ने बिहार में ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त किया। इस बार चुनाव में उनकी सीट बीजेपी से ज़्यादा आई। 17 साल बीजेपी की बैसाखी पर लालू विरोधी राजनीति करने वाले नीतीश कुमार ने जून 2013 में मौक़ा देख उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी समेत सभी भाजपाई मंत्रियों को इसलिए बर्ख़ास्त कर दिया क्योंकि नरेंद्र मोदी के बरक़्स वो एक महान सेक्युलर विकल्प के रूप में स्वयं को देखना चाहते थे। हालांकि राजनीति का अपना व्याकरण होता है और मौकापरस्ती अवाम को सबसे पहले समझ में आती है अतः 2014 का लोकसभा चुनाव सीपीआई के साथ मिलकर लड़ने के बाद मात्र 2 सीट जीत कर उन्हें अपने सपने की अकाल मृत्यु का अहसास हो गया.

2015 के विधानसभा चुनाव से पहले अपने धुर विरोधी लेकिन पुराने मेंटर लालू प्रसाद और कांग्रेस के महागठबंधन में  शामिल होकर दूसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री बने। लालू प्रसाद ने कहा था कि गंगा-जमुनी तहज़ीब,संविधान बचाने और देशहित में वो ज़हर पीने के लिए तैयार हैं। इसलिए ही उन्होंने तमाम कटुता भुलाकर चंद रोज़ पहले पार्टी तोड़ने की कोशिश करने वाले नीतीश कुमार को न सिर्फ़ साथ मिलाया, बल्कि प्रचार में उतरने से पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित किया।

फिर अचानक 18 महीने बाद सुशासन बाबू की अंतरात्मा जगी और काल्पनिक भ्रष्टाचारी ढाल बना कर घर वापसी कर बैठे।

26 जुलाई 2017 को राजनीतिक मूल्यों का चीरहरण,सामाजिक प्रतिबद्धता का क़त्ल एवं जनादेश का अपमान करने के बाद उन्हें गठबंधन का सबसे बड़ा सहयोगी दल भ्रष्टाचारी दिखने लगा। गठबंधन तोड़ने से पहले उन्होंने साज़िशन एक सोची-समझी रणनीति के तहत फ़ील्डिंग सजानी शुरू की। इसी कुटिल रणनीति के तहत उन्होंने पुराने भाजपाई मित्रों से विमर्श के बाद भाजपा को फ़ायदा पहुँचाने और कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के वोट काटने के लिए दिल्ली नगर निगम का चुनाव लड़ा ही नहीं, बल्कि ख़ुद निगम चुनावों में प्रचार भी किया।

फिर से पटकथा के बदलने का दौर आ गया है, महागठबंधन में रहते नोटबंदी का समर्थन करने वाले वे पहले विपक्षी नेता थे। आज 18 महीने बाद उसी नोटबंदी को फ़ेल बता कर आलोचना कर रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद का समर्थन करने वाले वे पहले विपक्षी मुख्यमंत्री थे। एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार के समर्थन के पीछे बहाना यह बनाया कि वो बिहार के राज्यपाल हैं, लेकिन बाबू जगजीवन राम की सुपुत्री, बिहार की बेटी पूर्व लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार की दावेदारी यह कह  ख़ारिज कर दी कि कांग्रेस उन्हें हराने के लिए चुनाव लड़ा रही है। लालू प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से अनेक बार नीतीश कुमार से इस फ़ैसले पर पुनर्विचार करने को कहा और नहीं मानने पर यहाँ तक कह दिया था, “नीतीश कुमार ऐतिहासिक भूल करने जा रहे हैं, मत करिए यह ब्लंडर” । आज लालू प्रसाद की बात सत्य साबित होती प्रतीत हो रही है।

अब जब उनका सामना मोदी-शाह की तानाशाही मॉडल वाली भाजपा से हुआ, तो इनके होश उड़े हुए हैं। यूपीए में मिली केंद्रीय मदद की जब डबल इंजन की सरकार वाली मदद से तुलना हुई, केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे इन्हें चौपट राजा कहने लगे, प्रधानमंत्री के आगे हाथ जोड़कर खड़े होने पर भी पटना यूनिवर्सिटी को सेंट्रल यूनिवर्सिटी बनाने की गुहार नहीं सुना जाना जैसे अनेक हैसियत दिखाने वाले घटनाक्रम शुरू हुए, जब बीजेपी से यह स्पष्ट संदेश मिलने लगा कि हम आपको मजबूर और स्वयं को मज़बूत करने के लिए साथ आए हैं, तो अंतरात्मा एक बार फिर जगने लगी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी एकजुटता देख उनके दबे अरमान विषम परिस्थितियों में आशा की किरणें खोजने लगे हैं।

 

लेखक नेता, प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा सह बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार हैं

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