आगामी बजट की तैयारी के क्रम में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण खास-खास समूहों से विचार-विमर्श में जुटी हैं. इन बैठकों में निमंत्रित लोग अच्छे से लेकर बुरे और सकारात्मक किस्म के दर्जनों विचार पेश कर रहे हैं. जाहिर है, इनमें से कुछ सुझाव ही बजट में शामिल किए जाएंगे. लेकिन जो भी वित्त मंत्री होता है वह इन बैठकों में उठाए गए मसलों से प्रभावित हो सकता है क्योंकि माना जाता है कि ये बताते हैं कि लोग आम तौर पर किन मसलों को लेकर चिंतित हैं – चाहे यह महंगाई हो, या वित्तीय घाटा या आर्थिक वृद्धि. इस बार भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.
वित्तीय स्थिति तनावपूर्ण है (कब नहीं रहती?), आर्थिक वृद्धि की दर गिरी है, कर राजस्व अपेक्षा से नीचा है, और अगर सही हिसाब लगाया जाए तो घाटा कहीं बड़ा है. सरकारी कर्ज भी अपेक्षित सीमा से 20 प्रतिशत ज्यादा है, और नए उधार घरेलू बचत को हड़पते जा रहे हैं (इसकी कुछ वजह यह है कि बचत सिकुड़ गई है). निजी क्षेत्र को घरेलू बचत से लगभग कुछ नहीं हासिल हो रहा है. जाहिर है, रिजर्व बैंक बाज़ार को ब्याज दरों में कटौती करने को मजबूर कर पाने में समर्थ है. फंड की कमी और उसकी बढ़ती कीमत के कारण निवेश को धक्का लगा है.
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कुछ वर्षों में मुद्रास्फीति की दर 7 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत हो गई लेकिन भविष्य निधि जैसी बचत योजनाएं 8 प्रतिशत से ऊपर जोखिम रहित, करमुक्त लाभ की पेशकश करती जा रही हैं. यह बेहद ऊंची दर है और वित्त बाज़ार के तालमेल में नहीं है. इसलिए वास्तविक ऋण दरें (मुद्रास्फीति का हिसाब करने के बाद) दुनिया में सबसे ऊंची हैं. अगर सरकार चाहती है कि ब्याज दरें घटें और निजी निवेश की राह आसान हो, तो उसे लघु बचत पर कर में छूट की सुविधा खत्म करनी चाहिए. खर्च के मामले में उसे बहुत ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है.
लेकिन भारी जनादेश के साथ और बड़े-बड़े वादे करके सत्ता हासिल करने वाली नवनिर्वाचित सरकार कोई सलाह सुनना पसंद नहीं करती. पिछले वर्ष की तुलना में इस साल, नए और बड़े वादों में ‘आयुष्मान भारत’ की लागत और किसानों को किए जाने वाले 6000 रुपये के वार्षिक भुगतान के खर्च शामिल हैं, जबकि कर राजस्व बजट अनुमान से काफी नीचे है. इन वर्षों में प्रतिरक्षा पर खर्च घटा है. वित्त मंत्री को, जो रक्षा मंत्री रह चुकी हैं, मालूम होगा कि सेना को पुराने साजो-सामान से किस तरह काम चलाना पड़ रहा है. अब और उपेक्षा महंगी साबित हो सकती है. इसके अलावा पिछले साल के कई बिल बकाया पड़े हैं. इसलिए, बजट के खर्च वाले पहलू के प्रति काफी संतुलित रुख अपनाना होगा. किसी भी नए और अतिरिक्त खर्च को दूसरे मदों में होने वाली बचत से संतुलित करना होगा. इस तरह की बचत की हमेशा गुंजाइश होती है.
राजस्व वाले पहलू को देखें, तो मंद पड़ती अर्थव्यवस्था में करों का बोझ बढ़ाने की गुंजाइश सीमित होती है. कठोर सच्चाई यह है कि वित्त मंत्री के पास ज्यादा हाथ-पैर फैलाने की जगह नहीं है, सिवाय इसके कि रिजर्व बैंक अपने अतिरिक्त कोश से जितना उपलब्ध करा दे. वित्तीय क्षेत्र की मुश्किलें आर्थिक गतिविधियों पर असर डालती रहेंगी, बैलेंसशीट को दुरुस्त करने का काम जारी है. ऐसे में रिजर्व बैंक से होने वाली बरसात का उपयोग सरकारी बैंकों को पूंजी देने और तरलता की समस्या से जूझ रहे शैडो बैंकों के लिए वित्तीय व्यवस्था करने में किया जाए क्योंकि उनके कोश के स्रोत सूख चुके हैं.
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मंत्री महोदया के लिए सर्वोत्तम रणनीति यह होगी कि वे वास्तविकता को सीधे-सीधे बयान कर दें (तथ्यों की ईमानदारी भरी स्वीकृति काफी आश्वस्त करती है). उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे पांच साल वाला टेस्ट मैच खेल रही हैं, न कि एकदिवसीय. इसलिए उनका ध्यान इस पर केन्द्रित होना चाहिए कि वित्तीय शुद्धता और नियंत्रण (जिसका वित्तीय बाज़ार स्वागत करेगा) बहाल हो, और लंबी अवधि के लिए सुधार नीति की पहल करके लोगों में जोश भरा जाए. सबसिडी पर खर्चे को सरकारी खाद्य खरीद व्यवस्था में सुधार करके कम किया जा सकता है. ख़र्चीले भंडार की जरूरत नहीं है जबकि हर साल अनाज की सरप्लस पैदावार होती है. बुनियादी ढांचे पर खर्च मौजूदा परिसंपत्तियों (सड़कों, डिस्कोम आदि) को उन दीर्घकालिक निवेशकों के सुपुर्द करके जुटाया जा सकता है, जो ऑपेरेशन और मेंटेनेन्स के ठेके लेते हैं. इस तरह की गई बचत का इस्तेमाल नई परिसंपत्तियां बनाने में किया जा सकता है, जहां शुरुआती प्रोजेक्ट जोखिम सरकार उठाती हो.
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