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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतगलत नहीं हैं निर्मला सीतारमण, ओला और उबर कार की बिक्री को नुकसान पहुंचा सकते हैं

गलत नहीं हैं निर्मला सीतारमण, ओला और उबर कार की बिक्री को नुकसान पहुंचा सकते हैं

कठिन बाज़ार से जूझ रहे कार उत्पादकों से सहानुभूति रखते हुए इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि वे इस मौके का फायदा उठाकर टैक्सों में और ज्यादा छूट हासिल करने की आपत्तिजनक कोशिश में लगे हैं

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निर्मला सीतारामन का भले ही मज़ाक उड़ाया जा रहा हो लेकिन उनकी इस बात में दम है कि ऐप-बेस्ड टैक्सी सेवाओं ने कारों की बिक्री पर असर डाला है. खबर है कि उबर और ओला की टैक्सियां देश में रोज करीब 20 लाख फेरे लगा रही हैं. इसका मतलब यह हुआ कि करीब 5 लाख लोग कार का मालिक बने बिना कार से सफर कर रहे हैं. और यह अचानक नहीं हुआ है. इसमें मेट्रो सेवा के विस्तार को जोड़ दीजिए (दिल्ली मेट्रो में रोज करीब 25 लाख लोग सफर कर रहे हैं. यानी लोगों के पास कार का मालिक बनने का विकल्प उपलब्ध है. शहरों की बस सेवाएं (दिल्ली में बसों में 40 लाख लोग सफर करते हैं) यह विकल्प नहीं थीं क्योंकि उनकी गति प्रायः धीमी होती है और उनमें सफर करने का मतलब प्रायः पसीने में नहाना है.

लेकिन हर किसी के लिए ऐप से टैक्सी बुक करना मुमकिन नहीं है. भारत के शहरों में ज़्यादातर दैनिक यात्री गरीब हैं, और (मुंबई को छोड़) या तो वे पैदल या साइकिल से काम पर जाते हैं. जैसे-जैसे आपकी आमदनी बढ़ती है, आप बस टिकट खरीदने लायक हो जाते हैं. मेट्रो या ऑटोरिक्शा या मोटरबाइक मध्यवर्ग वालों के लिए ही हैं. ओला और उबर की टैक्सियां काली-पीली प्राइवेट टैक्सियों से सस्ती तो हैं मगर खर्चीली हैं.


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दूसरे शब्दों में, ऐप-बेस्ड टैक्सियों से चलने वाले आम तौर पर कार खरीदने वाले तबके के हो सकते हैं. लेकिन इस रंग बदलती अर्थव्यवस्था में आमदनी और रोजगार की अनिश्चितता के कारण नई सदी वाले कई लोग कार मालिक बनने के साथ जुड़ी वित्तीय जिम्मेदारियों-देनदारियों से बचना चाहते हैं. वित्त मंत्री सीतारामन ने यही तो कहा था.

कहने की जरूरत नहीं कि कारों की मांग केवल ऐप-बेस्ड टैक्सियों के चलते ही नहीं घटी है. इसके दूसरे कारण भी हैं— आर्थिक वृद्धि की दर घटी है, वित्तीय क्षेत्र की हालत खराब है जिसके चलते कारों को फाइनांस की उपलब्धता प्रभावित हुई है, कई संभावित खरीदार ऐसी कारों के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो अगले अप्रैल से लागू होने वाले प्रदूषण के कड़े मानदंड के अनुकूल हों.

कार उद्योग ने डीलरों पर अपने स्टॉक में ज्यादा से ज्यादा कारें रखने का दबाव डालकर समस्या को और बढ़ा ही दिया है. जब तक यह स्टॉक निकल नहीं जाता, डीलर ताज़ा ऑर्डर नहीं देने वाले. इस बीच, बिक्री में गिरावट को और बढ़ाकर पेश किया जाएगा, जैसी कि इस उद्योग से खबर मिल रही है. इनमें से कुछ कारण खास इस सेक्टर से जुड़े हैं और अस्थायी हैं. यही वजह है कि दूसरे उत्पादों की मांग में इतनी गिरावट नहीं दिख रही है. लोग अगर कारों पर लगने वाले टैक्स में कटौती की उम्मीद कर रहे हैं, तो जाहिर है कि कोई भी आज कार क्यों खरीदेगा जबकि अगले हफ्ते वह सस्ते में मिलने की उम्मीद हो?

ऐप-बेस्ड टैक्सियों के साथ अपनी समस्याएं जुड़ी हैं. इनके चलते ट्रैफिक में भीड़भाड़ कम नहीं होने वाली, न ही प्रदूषण कम होने वाला है; बल्कि ये सब बढ़ने ही वाले हैं क्योंकि ये टैक्सियां 24 घंटे सड़क पर ही रहने वाली हैं. यही वजह है कि पश्चिमी देशों के शहरों में ऐसी टैक्सियों की संख्या को नियंत्रित करने पर विचार किया जा रहा है. दूसरी ओर अपने गुरुग्राम को देखिए, जहां डेढ़ मेट्रो लाइन को छोड़ दें तो भारत के दूसरे छोटे शहरों की तरह पब्लिक ट्रांसपोर्ट लगभग नदारद है. ऐप-बेस्ड टैक्सियां बेशक बड़ी संख्या में उन लोगों को राहत पहुंचाती हैं जिन्होंने इनके अभाव में एक कार या दूसरी कार खरीद ली होती.

लेकिन मसला टैक्सियों से आगे का है. भारत लंबे समय से अपने ऑटो उद्योग और कार रखने वालों की बड़ी संख्या पर खुश होता रहा है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट की उपेक्षा करता रहा है, फूटपाथों या साइकिल लेन बनाने की तो बात ही छोड़ दीजिए, जो कि किसी भी सभ्य शहर में होने ही चाहिए. देश में सड़कों का लोकतांत्रिकरण जरूरी है, और पब्लिक बसों में पैसा लगाया जाना चाहिए जो मेट्रो से सस्ती होती हैं.


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कठिन बाज़ार से जूझ रहे कार उत्पादकों से सहानुभूति रखते हुए इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि वे इस मौके का फायदा उठाकर टैक्सों में और ज्यादा छूट हासिल करने की ताक में हैं जबकि सरकार पहले ही कर राजस्व में कमी से जूझ रही है. उनकी यह कोशिश क्यों आपत्तिजनक है, इसे समझने के लिए मारुति-सुज़ुकी की वित्तीय स्थिति पर गौर कीजिए. पिछले साल इस कंपनी को 12.6 प्रतिशत बिक्री पर जोरदार टैक्स-पूर्व मुनाफा हासिल हुआ और निवेश राशि के तौर पर 36,500 करोड़ रुपये उसकी झोली में जमा रहे.

कंपनी की ओर से दिया जाने वाला लाभांश दो साल में दोगुने से ज्यादा हो गया. इसी उद्योग में कुछ कंपनियों (मसलन बजाज और आइशर मोटर्स) को मारुति-सुज़ुकी के मुक़ाबले ज्यादा मुनाफा हासिल हुआ, जबकि महिंद्रा ऐंड महिंद्रा और अशोक लेलैंड को थोड़ा कम मुनाफा हुआ, फिर भी मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को हुए औसत मुनाफे के मुक़ाबले तो यह ज्यादा ही था. अगर इस उद्योग के अगुआ यह मानते हैं कि कारों की कीमत ग्राहकों के लिहाज से बहुत ऊंची हैं, तो वे इसे कम क्यों नहीं करते. इस कारोबार में लगीं कई कंपनियां ऐसा करने में सक्षम भी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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