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Sunday, 22 December, 2024
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बाहुबलियों- नेताओं और पुलिस के सांठ-गांठ को लेकर ऐसा क्या है एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट में जिसे सार्वजनिक नहीं कर रही है सरकार

1993 मुंबई बम विस्फोट के बाद एनएन वोहरा समिति ने संगठित अपराधियों, माफिया, नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन के नौकरशाहों की सांठगांठ को बेनकाब करने वाली एक रिपोर्ट सौंपी थी. जिसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया. लेकिन अब समय आ गया है कि इसपर सख्ती से अमल किया जाए.

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कानपुर में पुलिसकर्मियों की नृशंस हत्या की घटना के बाद एक बार फिर संगठित अपराधियों, माफिया, नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन की सांठगांठ की ओर इशारा कर रही है. यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक अपराधी की तलाश में पुलिस दबिश करती है और इसकी सूचना पहले ही लीक हो जाती है, नतीजा संगठित तरीके से पुलिस पर गोलीबारी के रूप में होता है.

अब समय आ गया है कि केन्द्र सरकार संगठित अपराधियों, माफिया, नेताओं और पुलिस तथा प्रशासन के नौकरशाहों की सांठगांठ को बेनकाब करने वाली एन एन वोहरा समिति में 27 साल पहले की गयी सिफारिशों पर सख्ती से अमल किया जाये. मुंबई के 1993 के सिलसिलेवार बम विस्फोट कांड के बाद पूर्व गृह सचिव एन एन वोहरा की अध्यक्षता में उसी साल जुलाई में इस समिति का गठन हुआ था जिसने मात्र तीन महीने के भीतर ही अक्टूबर में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी.

सरकार को यह रिपोर्ट मिल जाने के बावजूद दो साल तक इसे सदन में पेश नहीं किया गया. विपक्षी दलों के दबाव में अंतत: 1995 में इसके कुछ अंशों को सार्वजनिक किया गया जो संगठित अपराधियों, नेताओं और पुलिस तथा नौकरशाहों की सांठगांठ की ओर संकेत दे रहे थे.

इस रिपोर्ट को आज तक पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया गया है. इस रिपोर्ट को सार्वजनिक कराने के लिये मामला उच्चतम न्यायालय भी पहुंचा था लेकिन याचिकाकर्ता सांसद दिनेश त्रिवेदी को इसमें विशेष सफलता नहीं मिली.

हां, इतना जरूर हुआ कि न्यायालय ने दिनेश त्रिवेदी बनाम भारत सरकार मामले में 20 मार्च 1997 को जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मुददे पर अपनी व्यवस्था दी. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ए एम अहमदी और न्यायमूर्ति वी सुजाता मनोहर की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि आधुनिक लोकतंत्र में नागरिकों को अपनी निर्वाचित सरकार के कामकाज के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन दूसरे अधिकारों की तरह ही इस अधिकार की भी सीमायें हैं और यह मुकम्मल नहीं है.


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जांच एजेंसी और गोपनीयता

न्यायालय ने वोहरा समिति की रिपोर्ट के साथ संलग्न सामग्री सार्वजनिक करने का निर्देश देने से इंकार कर दिया था. न्यायालय का विचार था कि इस सामग्री में विभिन्न सुरक्षा एजेन्सियों के प्रमुखों द्वारा उपलब्ध करायी गयी तमाम संवेदनशील सूचनायें हैं और इन्हें सार्वजनिक करने का निर्देश देने से इन एजेन्सियों और गोपनीयता के साथ काम करने के उनके तरीकों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचेगा.

न्यायायल ने अपने फैसले में कहा था कि इस रिपोर्ट में प्रदत्त जानकारी को ध्यान में रखते हुये राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष की सलाह से एक उच्च स्तरीय समिति गठित करनी चाहिए जो इस तरह की सांठगांठ से संबंधित मामलों की जांच की निगरानी करेगी ताकि वोहरा समिति की रिपोर्ट में दी गयी जानकारियों के आलोक में अपेक्षित नतीजे हासिल किये जा सकें.

वोहरा समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक ऐसी नोडल एजेन्सी गठित करने की सिफारिश की गयी थी जिसे मौजूदा सभी गुप्तचर और प्रवर्तन एजेन्सियां देश में संगठित अपराध के बारे में मिलने वाली सारी जानकारियां तत्परता से उपलब्ध करायेंगी.

यही नहीं, रिपोर्ट में कहा गया था कि नोडल एजेन्सी को इस तरह से मिली सूचनाओं का उपयोग आपराधिक सिन्डीकेट को राजनीतिक नफे नुकसान का अवसर प्रदान किये बगैर ही पूरी सख्ती के साथ करना होगा. रिपोर्ट में ऐसा करते समय गोपनीयता का पूरी तरह ध्यान रखने पर भी जोर दिया गया था.

न्यायालय के इस फैसले को भी 23 साल हो चुका है. सरकार ने निश्चित ही इस ओर कदम उठाये हैं लेकिन इसके बावजूद संगठित अपराधियों की नेताओं, राजनीतिक दलो और पुलिस तथा नौकरशाहों के साथ सांठगांठ पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. इसी का नतीजा है कि आज भी इन अपराधियों को नेताओं ओर राजनीतिक दलों का संरक्षण पहले की तरह ही प्राप्त है. कानपुर का विकास दुबे भी इसका अपवाद नहीं है.

सरकार अगर वास्तव में अपराधियों के नेटवर्क को पूरी तरह नष्ट करना चाहती है तो उसे वोहरा समिति की रिपोर्ट में जांच एजेन्सियों द्वारा दी गयी जानकारियों के आधार पर ठोस पहल करनी होगी. कानपुर की घटना के बाद भी अगर सरकार ने सख्त कदम नहीं उठाये तो देश में संगठित गिरोहों की राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के साथ सांठगांठ का सिलसिला खत्म नहीं होगा और पुलिस तथा प्रशासन में शामिल मुखबिरों से ऐसे अपराधियों तक सूचनायें लीक होती रहेंगी.

इस सनसनीखेज वारदात की प्रारंभिक जांच से यही संकेत मिलता है कि विकास दुबे, जो अब फरार है, के बसपा और सपा सहित कई राजनीतिक दलों में पैठ थी. उसके भाजपा और दूसरे दलों के नेताओं के साथ तस्वीरें भी सामने आयी हैं जिनसे यही संकेत मिलता है कि राजनीति में अपनी पैठ मजबूत कर रहे विकास दुबे को लंबे समय से राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का संरक्षण प्राप्त था.


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राजनीति, अपराध और बाहुबली

देश में राजनीति के तेजी से बढ़ते अपराधीकरण का ही नतीजा है कि सर्वोच्च न्यायालय के बार बार हस्तक्षेप के बावजूद राजनीतिक दलों में आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों का दबदबा बढ़ रहा है.

यह सही है कि न्यायालय ने 1997 में वोहरा समिति की रिपोर्ट के साथ संलग्न सामग्री सार्वजनिक करने का निर्देश देने से इंकार कर दिया था लेकिन इसके बावजूद शीर्ष अदालत लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका ओर निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा अकूत दौलत अर्जित करने की घटनाओं पर सरकार से जवाब मांगती रही है.

यही नहीं, न्यायालय ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाहुबलियों की सक्रियता खत्म करने के लिये अपने फैसलों में अनेक महत्वपूर्ण निर्देश दिये लेकिन निर्वाचन आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद सरकार और सत्तारूढ़ दल-गठबंधन और राजनीतिक दलों ने कभी भी इस समस्या से उबरने के लिये इच्छा शक्ति का परिचय नहीं दिया.

आपराधिक मामले वाले सांसद और नेता

अगर राजनीति में बाहुबलियों की सक्रिय भूमिका का जिक्र करें तो पायेंगे की 17वीं लोकसभा में 233 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें से 159 के खिलाफ बलात्कार, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के प्रति हिंसा जैसे जघन्य अपराध के आरोपों में मामले में दर्ज हैं. यहीं स्थिति 16वीं लोकसभा की भी थी जिसमे 112 माननीयों के खिलाफ संगीन अपराध के आरोप अदालतों में लंबित थे.

जहां तक राजनीति में अपनी पैठ जमाने वाले बाहुबलियों का है तो राजद के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के रुतबे से सभी परिचित हैं. मोहम्मद शहाबुद्दीन दोहरे हत्याकांड में उम्र कैद की सजा भुगत रहे हैं. इस समय तिहाड़ जेल में बंद शहाबुद्दीन पर बिहार में तीन दर्जन से अधिक आपराधिक मुकदमे हैं.

हरियाणा के नेता गोपाल कांडा और महाराष्टृ के अरूण गवली सहित ऐसे अनेक बाहुबलि हुये हैं जिन्होंने राजनीति में अपनी पैठ बनायी.

इसी तरह, उत्तर प्रदेश के तेजतर्रार और बाहुबलि नेता पूर्व सांसद अतीक अहमद के खिलाफ भी 2002 से 2016 के दौरान 22 मामले दर्ज हुये. इनमें से कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनमें अपराध सिद्ध होने की स्थिति में उम्र कैद या मौत की सजा का प्रावधान है.

उप्र में ही विधायक उपेन्द्र तिवारी के खिलाफ भी 1996 से 2011 के दौरान कई मामले दर्ज हुये. इनमे से तीन मामले उम्र कैद या मौत की सजा के दंडनीय के अपराध से संबंधित है. एक अन्य पूर्व विधायक खालित अजीम भी ऐसे ही बाहुबली हैं जिनके खिलाफ 2003 से 2011 के दौरान छह प्राथमिकी दर्ज हुयी. इनमे से कम से कम पांच मामले ऐसे हैं जिनमें अपराध सिद्ध होने पर उम्र कैद या मौत की सजा हो सकती है.

इसी कड़ी में बिहार के विधायक शमीम अख्तर और अनंत सिंह का नाम भी प्रमुखता से शीर्ष अदालत के सामने आया था. इन नेताओं के खिलाफ ऐसे गंभीर अपराध के आरोप हैं जिनमें उम्र कैद तक की सजा हो सकती हैं.

आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों ओर बाहुबलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग रखने के बारे में न्यायिक व्यवस्था के बावजूद सरकार के ढुलमुल रवैये और राजनीतिक दलों में आमसहमति के अभाव का ही नतीजा है कि देश की संसद और राज्यों के विधानमंडलों में बड़ीं संख्या में ऐसे व्यक्ति निर्वाचित होकर पहुंच रहे हैं जिनके खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार, अपहरण और फिरौती वसूलने जैसे संगीन आरोपों में मुकदमे लंबित हैं. इन निर्वाचित और अब भूतपूर्व हो चुके सांसदों तथा विधायकों के मुकदमों की सुनवाई के लिये विशेष अदालतें भी गठित हुयी हैं लेकिन इनमें मुकदमों के निबटारे की रफ्तार बहुत तेज नहीं है.


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सरकार अगर वास्तव में गंभीर है तो उसे पूरी ईमानदारी से वोहरा समिति की रिपोर्ट मे उपलब्ध करायी गयी जानकारियों के आधार पर अपराधियों, नेताओं, राजनीतिक दलों और नौकरशाह तथा पुलिस की सांठगांठ खत्म करने के लिये निर्णायक कार्रवाई करनी होगी. इस तरह की कार्रवाई के प्रति अगर सरकार ने उदासीनता दिखाई तो विकास दुबे जैसे संदिग्ध छवि वाले लोगों को राजनीतिक दलों और उनके नेताओं तथा पुलिस प्रशासन के नौकरशाहों का संरक्षण मिलता रहेगा और इनके खिलाफ कार्रवाई करने का साहस दिखाने वाले पुलिसकर्मी अपनी जान गंवाते रहेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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