संक्रामक रोग हमारे बीच तब से मौजूद हैं जब से हमने परिवार और समाज में रहना शुरू किया. हमारे शरीर में कई तरह की बीमारियां कई तरह के रोगाणुओं से होती हैं– बैक्टीरिया, वायरस, फफूंद और परजीवी. ये बारीक जीव हमें मारने का इरादा नहीं रखते हैं. ये तो आसरा ढूंढ़ते हुए हमारे शरीर में आते हैं.
क्या खोजते हैं? वही जो हर दूसरा जीव ढूंढ़ता है– खाने के लिए भोजन और अपनी संतति को फैलाने के माध्यम. किसी भी परजीवी के लिए यह समझदारी का काम नहीं है कि वह अपने मेज़बान के शरीर को बीमार कर दे, या उसे मार दे. यह उनका उद्देश्य होता भी नहीं है. तो फिर इनसे बीमारियां क्यों होती हैं?
बिगड़े हुए योग से बने रोग
इन सूक्ष्म जीवों से हमें रोग तभी होते हैं जब इनके साथ हमारे शरीर का संबंध बिगड़ जाता है. यानी इनके साथ संबंध बिगड़ने का दुष्प्रभाव ही बीमारी है– यह एक ‘साइड–इफेक्ट’ है. हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की नैसर्गिक शक्ति होती है. यह ‘रोग–प्रतिरोध तंत्र’ एक अदृश्य सेना की तरह हमारे शरीर की रक्षा करता है.
सुरक्षा के इस काम के दो चरण होते हैं. एक, इस तंत्र को उस जीवाणु की पहचान करनी होती है जो रोग का कारण है. दो, शिनाख़्त करने के बाद हमारी यह सेना इस रोगाणु को निपटाने के लिए उपयुक्त हथियार बनाती है, ताकि हम स्वस्थ्य हो सकें. इसके दुष्प्रभाव रोकने के बाद हमारे शरीर की सेना इस हमलेवार को हटाने का इंतजाम करती है.
हर रोगाणु से निपटने के लिए हर शरीर को यह दो बातें सीखनी पड़ती हैं– पहले शिनाख्त करना, फिर उससे निपटने के लिए हथियार बनाना. ये असलाह जैविक और रासायनिक तत्वों से बनता है, बारूद से नहीं.
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एक नया रोगाणु
जब कोई नया जीवाणु रोग का कारण बनता है, तब हमारे शरीर को उसकी पहचान करना असंभव होता है. पहली बार इस रोगाणु से संक्रमण होने पर हमारे शरीर के पास इससे रक्षा का कोई उपाय नहीं होता है. ऐसा ही कुछ मामला है दुनिया भर में फैल रहे ‘कोरोनावायरस डिजीज-2019’ रोग का, जिसे संक्षिप्त में ‘कोविड-19’ कहते हैं.
इसका कारण एक वायरस है. इसका कठिन वैज्ञानिक नाम भी एक बार जान लेना चाहिए – ‘सिवेयर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस-2’ या संक्षिप्त में ‘सारस–कोव-2’. इसका औपचारिक हिंदी में अनुवाद करें तो इसका एक हास्यास्पद नाम भी गढ़ सकते हैं– ‘प्रचंड तीव्र श्वासतंत्र लक्षण कोरोनावायरस-2’.
यह वायरस पिछले साल पहली बार मनुष्य में पाया गया था. तब से अब तक यह दुनिया भर में फैल गया है और बड़ी संख्या में लोग इससे संक्रमित हुए हैं. उनमें से कुछ की मौत भी हुई है.
डर का अभूतपूर्व संक्रमण
वायरस के संक्रमण और इससे होने वाली मौतों की खबर इस वायरस के फैलने से भी तेजी से फैली हैं. इससे एक नए तरह का भय लोगों में भयानक रूप से उभरा है. खौफ का यह माहौल भी खतरनाक है. सारस–कोव-2 के बारे में हम जो भी समझ सके हैं उससे यह डर मेल नहीं खाता है.
पिछले कुछ हफ्तों में हमें यह पता चला है कि इस वायरस का संक्रमण कैसे होता है, किस तरह के लोगों को यह गंभीर रूप से बीमार करता है और किस तरह के लोगों को छोड़ देता है. यह भी कि इसे रोकने के तरीके क्या हो सकते हैं, इसका उपचार कैसे हो सकता है, इसकी जांच के लिए नये परीक्षण कैसे तैयार किए जा सकते हैं, इसकी दवा और टीका कैसे बनाया जा सकता है.
जब हम किसी बात से अनजान होते हैं, तब उससे निपटना कठिन होता है. कुछ वैसे ही जैसे नये वायरस के सामने हमारा रोग–प्रतिरोध तंत्र लाचार हो जाता है. ऐसे में हम जो थोड़ा–बहुत जानते हैं उसी का सहारा लेते हैं. आजकल व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर अपार सामग्री बिजली की तेजी से फैलती है. इतनी तेजी से तो कोई वायरस भी नहीं फैल सकता. कोई जानकारी ‘वायरल’ होना उसकी सफलता का सूचक माना जाता है, उसका सही होना–न–होना नहीं.
बहुत सारी जानकारी गलत होती है. उसमें सच की मात्रा कम और अतिशयोक्ति अधिक होती है. इस तरह की बेबुनियाद बातचीत से खूब नुकसान होता है, लोगों का भी और समाज का भी.
तथ्य क्या है? सच क्या है?
यह हम जानते हैं कि हमारे बीच सारस–कोव-2 का संक्रमण तेजी से हुआ है. यह इतनी ही तेजी से फैलता जाएगा अगर हमने रोकथाम न की. इस रोकथाम के लिए हम सभी कुछ चीजें कर सकते हैं. हम अपने हाथ धो सकते हैं. चेहरे को छूने से बच सकते हैं. अगर हमें बुखार या खांसी है तो हम दूसरे लोगों से अपने आप को अलग रख सकते हैं और अगर हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जिसे ‘कोविड-19’ है, तो हम अपनी जांच करवा सकते हैं.
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ऐसा बहुत कुछ है जो सरकारें कर सकती हैं और कर भी रही हैं. जिन देशों में यह वायरस फैला है वहां से आवागमन या तो सीमित कर दिया गया है यह उस पर रोक लगा दी गयी है. विदेश से आने वालों का निरीक्षण हो रहा हैं. जो लोग विदेश से आ चुके हैं उनकी तबीयत पूछी जा रही है कि कहीं वे बीमार तो नहीं पड़े हैं. सरकार रोगियों की जांच के इंतज़ाम कर रही है और साथ ही इसका भी कि जिन्हें रोग का संदेह है उनकी देखरेख के साथ ही उनसे दूसरों को संक्रमण रोका जाए.
सिनेमाघर, स्कूल–कॉलेज और बाजार–मॉल में लोग बड़ी संख्या एक जगह मिलते हैं. सो इन्हें बंद रखना एहतियात का एक तरीका है. इस संक्रमण का खतरा तब बढ़ता है जब हम इस वायरस से संक्रमित किसी व्यक्ति से करीब से मिलते हैं– तीन–से–छह फुट के दायरे में– और 15 मिनट या उससे ज्यादा समय उसके पास रहते हैं. ऐसे में सारस–कोव-2 के फैलने में आसानी होती है.
अस्पतालों में कई तरह के रोगियों के कई तरह के उपचार होते हैं. इनमें काम करने वाले डॉक्टर, नर्स और सभी कर्मचारियों को दुगुनी सावधानी बरतने की जरूरत है ताकि न तो इनका संक्रमण हो और न वायरस इनके माध्यम से दूसरों में फैले ही.
स्वास्थ्य विज्ञान की दुनिया क्या कर रही है?
इस वायरस के बारे में हम बहुत कुछ समझ चुके हैं. हर रोज नयी बातें पता चल रही हैं. दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक दल इस वायरस से बचने के लिए दवाएं और टीके बनाने पर शोध कर रहे हैं. संचार क्रांति की वजह से केवल सोशल मीडिया पर अफवाहें और झूठी खबरें ही तेजी से नहीं चलतीं.
नये संचार माध्यम और शोध की नयी पद्धतियों की मदद से आज वैज्ञानिक अभूतपूर्व तेजी से काम कर सकते हैं, एक–दूसरे के काम से सीख भी सकते हैं, ताकि मिल–जुल के काम और असरदार हो सके. इतनी तेजी से दवा या टीका मिलने की संभावना पहले कभी नहीं रही है जितनी आज है.
ऐसा कतई नहीं है कि रोज–दो–रोज में दवा बाजार में आ जाएगी. जो भी दवा या टीका इस रोग पर कारगर लगता है उसकी तरह–तरह से, विविध परिस्थितियों में जांच करनी होगी, ताकि उसके दुष्प्रभाव जाने जा सकें, उसे प्रभावशाली बनाया जा सके.
कुछ दवाइयां और टीके जांच के आरंभिक चरणों में आ चुके हैं. कुछ के आशाजनक संकेत मिल रहे हैं. जैसे–जैसे प्रयोग आगे बढ़ रहे हैं, कुछ उपयोगी और सफल नतीजों की उम्मीद भी बढ़ रही है. वैज्ञानिक, सरकारें और सामाजिक संस्थाएं साथ मिल के इस काम को गति दे रही हैं.
इस सब के बावजूद अभी हमारे पास कोई कारगर दवा या टीका नहीं है. सभी जांचों की कड़ी कसौटियों पर खरा उतर सके ऐसा कोई भी उपचार अभी तक हमारे पास नहीं है, जिसकी सुरक्षा सिद्ध हुई हो.
दवा/टीका मिलने तक क्या करें?
इस अनिश्चितता की वजह से तरह–तरह की जानकारी तेजी से यहां–से–वहां फैल रही है. ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम विश्वसनीय स्रोतों पर ही ध्यान दें. यह तो हम सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर प्रामाणिक जानकारी की बजाय अफवाह और झूठ बहुत तेजी से फैलता है, दूर–दूर तक फैलता है.
इसका एक कारण यह है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान किसी भी बात को 100 प्रतिशत सही या 100 प्रतिशत कारगर नहीं बताता. वैज्ञानिक जानकारी संतुलित भाषा में, अंकों और गणनाओं में दी जाती है. इसमें एक बड़ी जटिलता है– जीवों के संसार में सदा ही कुछ–न–कुछ बदलने की गुंजाइश रहती है. हर जिम्मेदार वैज्ञानिक अपने दायरे का सम्मान करता है और सत्यनिष्ठ बात ही कहता है. विज्ञान में अतिशयोक्ति की कोई जगह नहीं होती है.
झूठ और अफवाह फैलाने वालों पर यह जिम्मेदारी नहीं होती. वे अपनी बात बिना किसी संदेह के, बिना संकोच के, पूर्ण निश्चितता के साथ कह सकते हैं. उन्हें न तो कोई जांचने वाला होता है, न उनकी किसी के प्रति जवाबदारी ही होती है. पिछले कुछ हफ्तों में हम सभी को बहुत कुछ ऐसा सुनने को मिला है जो गलत है, झूठ है.
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इस उथल–पुथल के समय में यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम अपना संतुलन बना के रखें, सही और प्रमाणिक जानकारी की पहचान बनाएं. अप्रमाणिक जानकारी हमें झूठा दिलासा तो दे सकती है, लेकिन उसका असर उलटा भी पड़ सकता है. बिजली की गति से फैलने वाली ‘वायरल कहानियां’ भी अगर महामारी नहीं, तो सामाजिक अभिशाप तो हैं हीं.
यह हम सभी की जिम्मेदारी है कि इस खतरे से अपना और अपने समाज का बचाव करें. वही जानकारी पढ़ें–देखें जो प्रमाणिक हो, और उसी को दूसरों तक भेजें.
कुछ अफवाहों का निदान नीचे दिया गया है. जांच के देखिए कि इसमें से कितनी बातें आपने सुनी हैंः
(सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. गगनदीप कंग संक्रामक रोगों की विशेषज्ञ हैं. बच्चों को बड़ी संख्या में मारने वाले खतरनाक ‘रोटावायरस’ का टीका बनाने के लिए उनकी ख्याति दुनिया भर में है. पिछले साल वे शीर्ष वैज्ञानिकों के समूह ‘रॉयल सोसायटी’ में चुनी गयीं. इस सम्मान को प्राप्त करने वाली वे पहली भारतीय महिला हैं. वे दिल्ली के निकट फरीदाबाद के ‘ट्रासलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान’ की कार्यकारी निदेशक हैं और वेल्लूर के क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज में पढ़ाती हैं.)
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