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Monday, 23 December, 2024
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नई दिल्ली को ओली सरकार को चेतावनी देनी चाहिए, चीन को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नेपाल का इस्तेमाल करने देना भारी पड़ेगा

नई दिल्ली को ऐसे अगले कदम उठाने की जरूरत है जिसके बारे में चीन और पाकिस्तान सिर्फ अनुमान लगाते रह जाएं.

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चीन के नेपाली क्षेत्र में स्थित उत्तर पश्चिमी जिले पर दावे को भारत को घेरने की व्यापक रणनीति और नई दिल्ली को उत्तरी क्षेत्र, खासकर जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय क्षेत्रों में एकतरफा कार्रवाई करने से रोकने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए. हिमालय के इतिहास में जबसे जनजातियों ने आजीविका, व्यापार और युद्धों के लिए यहां पर आना-जाना और जोखिम भरे रास्ते तैयार करना शुरू किया है, कभी इतनी बुरी स्थिति नहीं रही. भारत और उसके लोगों के संग नेपाली क्षेत्र के सांस्कृतिक संबंध पहाड़ों की तरह चिरकालीन हैं, नया दावेदार बीजिंग, इस तरह का कोई जुड़ाव नहीं रखता है और न ही भौगोलिक स्तर पर यहां के किसी हिस्से पर दावा जताने का हकदार है.

हिंद महासागर में स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स के साथ भारत को घेरने के चीन के निरंतर प्रयास के बाद बीजिंग द्वारा हाल में हिमालय में जमीन कब्जाने को खासकर पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं -रेलवे स्टेशनों और पहाड़ियों में सीमावर्ती व्यापार केंद्रों आदि रूप—के जरिये भारत से सटे पड़ोसी देशों में अतिक्रमण की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए.

नेपाल में बीजिंग ने जमीन हड़पी

काठमांडू से आई मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, चीन ने नेपाल-तिब्बत सीमा के साथ लगे नेपाल के चार जिलों में लगभग 11 गांवों की जमीन हड़प ली है. गोरखा जिले के रुई गांव के निवासी पहचान संबंधी दस्तावेजों के लिए नेपाली अधिकारियों के समक्ष प्रदर्शन कर रहे थे जब कथित तौर पर उन्हें चीनी दस्तावेज थमाए गए.

एक अन्य मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन ने हुमला जिले में कर्णाली स्थित अपेक्षाकृत कम आबादी वाले लिहो क्षेत्र की काफी भूमि और भगादारे खोला (नदी) के आसपास के क्षेत्र की करीब छह हेक्टेयर जमीन पर कब्जा जमा लिया है. यही नहीं ऐसी खबरें भी हैं कि चीनी सैनिकों ने रसुवा जिले के सिंजेन खोला और भुर्जुक खोला में डेरा डाल रखा है. इलायची की खेती और प्राचीन शिव मंदिर के लिए ख्यात उत्तर-पूर्वी जिले संखुवासभा के खारेन, सिंधु पाल, सैमजंग और अरुण नदी की तलहटी की तमाम भूमि पर भी चीन कब्जा कर चुका है. इसका डोकलाम घाटी और सिलीगुड़ी गलियारे के नजदीक स्थित होना इसे एक अहम रणनीतिक क्षेत्र और भारत की सुरक्षा के लिए संभावित खतरा बनाता है.

चीन ने 1960 के दशक में कोडारी से गुजरने वाले अरानिको हाईवे का निर्माण किया, जो सिंधुपाल चौक में बॉर्डर क्रासिंग पर लोकप्रिय व्यापार केंद्र बन गया. 2015 में भूकंप के बाद चीन ने कोडारी बॉर्डर क्रासिंग बंद कर दी और स्थानीय बाजार और यहां के लोगों को शिगात्से स्थानांतरित कर दिया. नांगरजे, शिगात्से, ल्हात्से, तिंगरी और गाईरांग से गुजरने वाली ल्हासा-बुरंग रेलवे लाइन अंतत: गिलगित से जुड़ेगी और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का हिस्सा बन जाएगी.

संयोगवश, जब नेपाल ने भारतीय क्षेत्र पर अपना दावा करते हुए एक नया नक्शा जारी किया था, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने नक्शे में संशोधनों को यह कहते हुआ खारिज कर दिया था कि ‘कृत्रिम तौर पर बढ़ाकर दावे करना न तो ऐतिहासिक तथ्यों या सबूतों पर आधारित है और न ही तर्कसंगत है.’ मीडिया सूत्रों के अनुसार हालांकि, नेपाली सरकारों को लगातार इसका अहसास रहा है कि चीन उसकी भूमि हथिया रहा है लेकिन कर्ज के जाल में फंसे होने के कारण उन्होंने इसके विरोध का पर्याप्त साहस नहीं दिखाया है.


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1950 के दशक में शिनजियांग और तिब्बत, अब नेपाल

गलवान घाटी में अपनी स्थिति मजबूत करके और भारत के साथ सैन्य स्तरीय वार्ता जारी रहने के बीच ही पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों की उपस्थिति बढ़ाकर चीन पहले ही भारत को यह संकेत दे चुका है कि युद्ध छेड़ना, यहां तक कि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में मुकाबले की तैयारी करना भी निरर्थक है. नेपाल के हुमला क्षेत्र स्थित एक गांव पर दावा जताने के साथ चीन ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि वह एक दीर्घकालिक संघर्ष के लिए तैयार है जो अंततः बीजिंग को लाभ देगा जैसा 1950 के दशक में शिनजियांग और तिब्बत में अतिक्रमण के दौरान हुआ था.

जब तत्कालीन सोवियत संघ आक्रामक रूप विभिन्न राज्यों को खुद में मिला रहा था और द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही के बाद अपना भौगोलिक क्षेत्र बढ़ा तेजी से बढ़ा रहा था, चीन भी हर दिशा में अपने आसपास के क्षेत्रों पर चुपचाप कब्जा जमाने में जुटा था. इसकी वजह से ही जब 1948 में वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बना तो उसे कुछ ऐसे देशों के नजदीक पहुंचने का अच्छा मौका मिल गया जिनके साथ कभी सीमाएं साझा भी नहीं करता था. शिनजियांग और तिब्बत पर अतिक्रमण ने चीन को अपनी सीमाएं भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, रूस और मंगोलिया के साथ साझा करने के लिए अधिकृत कर दिया.

सोवियत संघ के विघटन ने बीजिंग को उसकी जगह खुद को खड़े करने का एक सुअवसर प्रदान कर दिया. एक कुशल और सोची-समझी रणनीति के तहत चीन ने यूएसएसआर के वैचारिक सिद्धांतों को नहीं अपनाया. इसके बजाय उसने व्यापार, वाणिज्य और उदार शक्ति वाले पहलू पर ध्यान केंद्रित किया और मध्य एशिया, दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, हिंद महासागर रिम क्षेत्र और एशिया-प्रशांत, जिसे अब भारत-प्रशांत कहा जाता है, की ओर अपने कदम बढ़ाए. अपनी रणनीति और पहुंच लगातार मजबूत करने की कवायद के तहत चीन ने सीपीईसी के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को पाकिस्तान तक विस्तारित किया, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरने वाली सड़क के जरिये चीन को हिंद महासागर से जोड़ती है.


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पाकिस्तान का संकट भारत के लिए अवसर

गिलगिट-बालटिस्तान के लोग पिछले तीन हफ्ते से अधिक समय से अपने क्षेत्रों में इस्लामाबाद के कानूनों को लागू किए जाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि उनका कहना है यह क्षेत्र पाकिस्तान का नहीं है. बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ विद्रोह भी चरम पर पहुंच चुका है. सिंध प्रांत खासकर कराची में हो रही घटनाएं उस क्षेत्र में एक गंभीर अलगाववादी आंदोलन का हिस्सा हैं. इस्लामाबाद में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की तरफ से संसाधनों की लूट-खसोट ही इन सारे विरोध-प्रदर्शनों की जड़ है, जिसने व्यावहारिक तौर पर इस देश को चीन की कठपुतली वाला बना दिया है. सेना और सरकार के बीच बढ़ता टकराव इस्लामाबाद में अनिश्चितता को बढ़ा ही रहा है. इस बीच, संयुक्त विपक्ष ने प्रधानमंत्री इमरान खान के इस्तीफे की मांग के साथ प्रदर्शनों को एक नया दौर शुरू कर दिया है.

ऐसे हालात के बीच नई दिल्ली के लिए जरूरी है कि चीन और पाकिस्तान दोनों को अपने अगले कदम के बारे में अनुमान लगाने के लिए छोड़ दे. अब जबकि पाकिस्तान अपने खुद के विरोधाभासों का भार सहन नहीं कर पा रहा है, बीजिंग के लिए इसकी उपयोगिता के कोई मायने नहीं रह गए हैं.

आश्चर्यजनक रूप से बीजिंग समर्थन और भारत विरोधी गतिविधियों के लिए एक लॉन्चपैड के रूप में इस्तेमाल के लिए नेपाल की ओर रुख कर रहा है. प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली के नेतृत्व वाली अस्थिर सरकार परोक्ष रूप से चीन के समर्थन के कारण अब तक बची हुई है क्योंकि काठमांडू अपनी संप्रभुता को ताक पर रखकर चीन के आगे जरूरत से ज्यादा झुकने को तैयार है.

नई दिल्ली को भी ओली सरकार को चेतावनी देनी होगी कि चीन को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नेपाली भूमि इस्तेमाल करने की अनुमति देना और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालना भारत को कड़ी प्रतिक्रिया के लिए बाध्य करेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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